मैं पतझड़ की कोयल उदास,
बिखरे वैभव की रानी हूँ
मैं हरी-भरी हिम-शैल-तटी
की विस्मृत स्वप्न-कहानी हूँ।
- अपनी माँ की मैं वाम भृकुटि,
- गरिमा की हूँ धूमिल छाया,
- मैं विकल सांध्य रागिनी करुण,
- मैं मुरझी सुषमा की माया।
- अपनी माँ की मैं वाम भृकुटि,
मैं क्षीणप्रभा, मैं हत-आभा,
सम्प्रति, भिखारिणी मतवाली,
खँडहर में खोज रही अपने
उजड़े सुहाग की हूँ लाली।
- मैं जनक कपिल की पुण्य-जननि,
- मेरे पुत्रों का महा ज्ञान ।
- मेरी सीता ने दिया विश्व
- की रमणी को आदर्श-दान।
- मैं जनक कपिल की पुण्य-जननि,
मैं वैशाली के आसपास
बैठी नित खँडहर में अजान,
सुनती हूँ साश्रु नयन अपने
लिच्छवि-वीरों के कीर्ति-गान।
- नीरव निशि में गंडकी विमल
- कर देती मेरे विकल प्राण,
- मैं खड़ी तीर पर सुनती हूँ
- विद्यापति-कवि के मधुर गान।
- नीरव निशि में गंडकी विमल
नीलम-घन गरज-गरज बरसें
रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम अथोर,
लहरें गाती हैं मधु-विहाग,
‘हे, हे सखि ! हमर दुखक न ओर ।’
- चांदनी-बीच धन-खेतों में
- हरियाली बन लहराती हूँ,
- आती कुछ सुधि, पगली दौड़ो
- मैं कपिलवस्तु को जाती हूँ।
- चांदनी-बीच धन-खेतों में
बिखरी लट, आँसू छलक रहे,
मैं फिरती हूँ मारी-मारी ।
कण-कण में खोज रही अपनी
खोई अनन्त निधियाँ सारी।
- मैं उजड़े उपवन की मालिन,
- उठती मेरे हिय विषम हूख,
- कोकिला नहीं, इस कुंज-बीच
- रह-रह अतीत-सुधि रही कूक।
- मैं उजड़े उपवन की मालिन,
मैं पतझड़ की कोयल उदास,
बिखरे वैभव की रानी हूँ,
मैं हरी-भरी हिमशैल-तटी
की विस्मृत स्वप्न-कहानी हूँ।
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