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रविवार, 10 अप्रैल 2011

उत्तर में


तुम कहते, ‘तेरी कविता में
कहीं प्रेम का स्थान नहीं;
आँखों के आँसू मिलते हैं;
अधरों की मुसकान नहीं’।

इस उत्तर में सखे, बता क्या
फिर मुझको रोना होगा?
बहा अश्रुजल पुनः हृदय-घट
का संभ्रम खोना होगा?


जीवन ही है एक कहानी
घृणा और अपमनों की।
नीरस मत कहना, समाधि
है हृदय भग्न अरमानों की।

तिरस्कार की ज्वालाओं में
कैसे मोद मनाऊँ मैं?
स्नेह नहीं, गोधूलि-लग्न में
कैसे दीप जलाऊँ मैं?


खोज रहा गिरि-शृंगों पर चढ़
ऐसी किरणों की लाली,
जिनकी आभा से सहसा
झिलमिला उठे यह अँधियाली।

किन्तु, कभी क्या चिदानन्द की
अमर विभा वह पाऊँगा?
जीवन की सीमा पर भी मैं
उसे खोजता जाऊँगा।


एक स्वप्न की धुँधली रेखा
मुझे खींचती जायेगी,
बरस-बरस पथ की धूलों को
आँख सींचती जायेगी।

मुझे मिली यह अमा गहन,
चन्द्रिका कहाँ से लाऊँगा?
जो कुछ सीख रहा जीवन में,
आखिर वही सिखाऊँगा।


हँस न सका तो क्या? रोने में
भी तो है आनन्द यहाँ;
कुछ पगलों के लिए मधुर हैं
आँसू के ही छन्द यहाँ।

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