तुम कहते, ‘तेरी कविता में
कहीं प्रेम का स्थान नहीं;
आँखों के आँसू मिलते हैं;
अधरों की मुसकान नहीं’।
- इस उत्तर में सखे, बता क्या
- फिर मुझको रोना होगा?
- बहा अश्रुजल पुनः हृदय-घट
- का संभ्रम खोना होगा?
- इस उत्तर में सखे, बता क्या
जीवन ही है एक कहानी
घृणा और अपमनों की।
नीरस मत कहना, समाधि
है हृदय भग्न अरमानों की।
- तिरस्कार की ज्वालाओं में
- कैसे मोद मनाऊँ मैं?
- स्नेह नहीं, गोधूलि-लग्न में
- कैसे दीप जलाऊँ मैं?
- तिरस्कार की ज्वालाओं में
खोज रहा गिरि-शृंगों पर चढ़
ऐसी किरणों की लाली,
जिनकी आभा से सहसा
झिलमिला उठे यह अँधियाली।
- किन्तु, कभी क्या चिदानन्द की
- अमर विभा वह पाऊँगा?
- जीवन की सीमा पर भी मैं
- उसे खोजता जाऊँगा।
- किन्तु, कभी क्या चिदानन्द की
एक स्वप्न की धुँधली रेखा
मुझे खींचती जायेगी,
बरस-बरस पथ की धूलों को
आँख सींचती जायेगी।
- मुझे मिली यह अमा गहन,
- चन्द्रिका कहाँ से लाऊँगा?
- जो कुछ सीख रहा जीवन में,
- आखिर वही सिखाऊँगा।
- मुझे मिली यह अमा गहन,
हँस न सका तो क्या? रोने में
भी तो है आनन्द यहाँ;
कुछ पगलों के लिए मधुर हैं
आँसू के ही छन्द यहाँ।
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