अरे, कौन है, वार न देगी, जो इस यौवन-धन पर प्राण?
- खाओ इसे न यों ही हा हा, करो यत्न से इसका त्राण।
किसी हेतु संसार भार-सा, देता हो यदि तुमको ग्लानि,
- तो अब मेरे साथ उसे तुम, एक और अवसर दो दानि!"
लक्ष्मण फिर गम्भीर हो गये, बोले--"धन्यवाद धन्ये!
- ललना सुलभ सहानुभूति है, निश्चय तुममें नृपकन्ये!
साधारण रमणी कर सकती, है ऐसे प्रस्ताव कहीं?
- पर मैं तुमसे सच कहता हूँ कोई मुझे अभाव नहीं॥"
"तो फिर क्या निष्काम तपस्या, करते हो तुम इस वय में?
- पर क्या पाप न होगा तुमको, आश्रम के धर्म्मक्षय में?
मान लो कि वह न हो, किन्तु इस, तप का फल तो होगा ही,
- फिर वह स्वयं प्राप्त भी तुमसे, क्या न जायगा भोगा ही?
वृक्ष लगाने की ही इच्छा, कितने ही जन रखते हैं,
- पर उनमें जो फल लगते हैं, क्या वे उन्हें न चखते हैं?"
लक्ष्मण अब हँस पड़े और यों, कहने लगे--"दुहाई है!
- सेंतमेंत की तापस पदवी, मैंने तुमसे पाई है॥
यों ही यदि तप का फल पाऊँ, तो मैं इसे न चक्खूँगा,
- तुमसे जन के लिए यत्न से, उसको रक्षित रक्खूँगा।"
हँसी सुन्दरी भी, फिर बोली-"यदि वह फल मैं ही होऊँ,
- तो क्या करो, बताओ? बस अब, क्यों अमूल्य अवसर खोऊँ?"
"तो मैं योग्य पात्र खोजूँगा, सहज परन्तु नहीं यह काम,"
- "मैंने खोज लिया है उसको, यद्यपि नहीं जानती नाम।
फिर भी वह मेरे समक्ष है", चौंके लक्ष्मण, बोले--"कौन?"
- "केवल तुम" कहकर रमणी भी, हुई तनिक लज्जित हो मौन॥
"पाप शान्त हो, पाप शान्त हो, कि मैं विवाहित हूँ बाले!"
- "पर क्या पुरुष नहीं होते हैं, दो-दो दाराओं वाले?
नर कृत शास्त्रों के सब बन्धन, हैं नारी को ही लेकर,
- अपने लिए सभी सुविधाएँ, पहले ही कर बैठे नर!"
"तो नारियाँ शास्त्र रचना पर, क्या बहु पति का करें विधान?
- पर उनके सतीत्व-गौरव का, करते हैं नर ही गुणगान।
मेरे मत में एक और हैं, शास्त्रों की विधियाँ सारी,
- अपना अन्तःकरण आप है, आचारों का सुविचारी॥
नारी के जिस भव्य-भाव का, साभिमान भाषी हूँ मैं,
- उसे नरों में भी पाने का, उत्सुक अभिलाषी हूँ मैं।
बहुविवाह-विभ्राट, क्या कहूँ, भद्रे, मुझको क्षमा करो;
- तुम कुशला हो, किसी कृती को, करो कहीं कृत्कृत्य, वरो।"
"पर किस मन से वरूँ किसी को? वह तो तुम से हरा गया!"
- "चोरी का अपराध और भी, लो यह मुझ पर धरा गया?"
"झूठा?" प्रश्न किया प्रमदा ने, और कहा--"मेरा मन हाय!
- निकल गया है मेरे कर से, होकर विवश, विकल, निरुपाय!
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