समस्त रचनाकारों को मेरा शत शत नमन .....

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

पंचवटी पृष्ठ ६

अरे, कौन है, वार न देगी, जो इस यौवन-धन पर प्राण?

खाओ इसे न यों ही हा हा, करो यत्न से इसका त्राण।

किसी हेतु संसार भार-सा, देता हो यदि तुमको ग्लानि,

तो अब मेरे साथ उसे तुम, एक और अवसर दो दानि!"


लक्ष्मण फिर गम्भीर हो गये, बोले--"धन्यवाद धन्ये!

ललना सुलभ सहानुभूति है, निश्चय तुममें नृपकन्ये!

साधारण रमणी कर सकती, है ऐसे प्रस्ताव कहीं?

पर मैं तुमसे सच कहता हूँ कोई मुझे अभाव नहीं॥"


"तो फिर क्या निष्काम तपस्या, करते हो तुम इस वय में?

पर क्या पाप न होगा तुमको, आश्रम के धर्म्मक्षय में?

मान लो कि वह न हो, किन्तु इस, तप का फल तो होगा ही,

फिर वह स्वयं प्राप्त भी तुमसे, क्या न जायगा भोगा ही?


वृक्ष लगाने की ही इच्छा, कितने ही जन रखते हैं,

पर उनमें जो फल लगते हैं, क्या वे उन्हें न चखते हैं?"

लक्ष्मण अब हँस पड़े और यों, कहने लगे--"दुहाई है!

सेंतमेंत की तापस पदवी, मैंने तुमसे पाई है॥


यों ही यदि तप का फल पाऊँ, तो मैं इसे न चक्खूँगा,

तुमसे जन के लिए यत्न से, उसको रक्षित रक्खूँगा।"

हँसी सुन्दरी भी, फिर बोली-"यदि वह फल मैं ही होऊँ,

तो क्या करो, बताओ? बस अब, क्यों अमूल्य अवसर खोऊँ?"


"तो मैं योग्य पात्र खोजूँगा, सहज परन्तु नहीं यह काम,"

"मैंने खोज लिया है उसको, यद्यपि नहीं जानती नाम।

फिर भी वह मेरे समक्ष है", चौंके लक्ष्मण, बोले--"कौन?"

"केवल तुम" कहकर रमणी भी, हुई तनिक लज्जित हो मौन॥


"पाप शान्त हो, पाप शान्त हो, कि मैं विवाहित हूँ बाले!"

"पर क्या पुरुष नहीं होते हैं, दो-दो दाराओं वाले?

नर कृत शास्त्रों के सब बन्धन, हैं नारी को ही लेकर,

अपने लिए सभी सुविधाएँ, पहले ही कर बैठे नर!"


"तो नारियाँ शास्त्र रचना पर, क्या बहु पति का करें विधान?

पर उनके सतीत्व-गौरव का, करते हैं नर ही गुणगान।

मेरे मत में एक और हैं, शास्त्रों की विधियाँ सारी,

अपना अन्तःकरण आप है, आचारों का सुविचारी॥


नारी के जिस भव्य-भाव का, साभिमान भाषी हूँ मैं,

उसे नरों में भी पाने का, उत्सुक अभिलाषी हूँ मैं।

बहुविवाह-विभ्राट, क्या कहूँ, भद्रे, मुझको क्षमा करो;

तुम कुशला हो, किसी कृती को, करो कहीं कृत्कृत्य, वरो।"


"पर किस मन से वरूँ किसी को? वह तो तुम से हरा गया!"

"चोरी का अपराध और भी, लो यह मुझ पर धरा गया?"

"झूठा?" प्रश्न किया प्रमदा ने, और कहा--"मेरा मन हाय!

निकल गया है मेरे कर से, होकर विवश, विकल, निरुपाय!

कोई टिप्पणी नहीं: