"तो क्या मैं विनोद करती हूँ!" बोली उनसे वैदेही,
- अपने लिए रुक्ष हो तुम क्यों, होकर भी भ्रातृ-स्नेही?
आज उर्मिला की चिन्ता यदि, तुम्हें चित्त में होती है,
- कि "वह विरहिणी बैठी मेरे, लिये निरन्तर रोती है।"
"तो मैं कहती हूँ, वह मेरी बहिन न देगी तुमको दोष,
- तुम्हें सुखी सुनकर पीछे भी, पावेगी सच्चा सन्तोष।
प्रिय से स्वयं प्रेम करके ही, हम सब कुछ भर पाती हैं,
- वे सर्वस्व हमारे भी हैं, यही ध्यान में लाती हैं॥
जो वर-माला लिये, आप ही, तुमको वरने आई हो,
- अपना तन, मन, धन सब तुमको, अर्पण करने आई हो,
मज्जागत लज्जा तजकर भी, तिस पर करे स्वयं प्रस्ताव,
- कर सकते हो तुम किस मन से, उससे भी ऐसा बर्ताव?"
मुसकाये लक्ष्मण, फिर बोले-"किस मन से मैं कहूँ भला?
- पहले मन भी तो हो मेरे, जिससे सुख-दुख सहूँ भला!"
"अच्छा ठहरो" कह सीता ने, करके ग्रीवा-भंग अहा!
- "अरे, अरे", न सुना लक्ष्मण का, देख उटज की ओर कहा-
"आर्य्यपुत्र, उठकर तो देखो, क्या ही सु-प्रभात है आज,
- स्वयं सिद्धि-सी खड़ी द्वार पर, करके अनुज-वधू का साज!"
क्षण भर में देखी रमणी ने, एक श्याम शोभा बाँकी!
- क्या शस्यश्यामल भूतल ने, दिखलाई निज नर झाँकी!
किंवा उतर पड़ा अवनी पर, कामरूप कोई घन था,
- एक अपूर्व ज्योति थी जिसमें, जीवन का गहरापन था!
देखा रमणी ने चरणों में--नत लक्ष्मण को उसने भेंट,-
- अपने बड़े क्रोड़ में विधु-सा, छिपा लिया सब ओर समेट॥
सीता बोलीं-"नाथ, निहारो, यह अवसर अनमोल नया;
- देख तुम्हारे प्राणानुज का, तप सुरेन्द्र भी डोल गया!
माना, इनके निकट नहीं है, इन्द्रासन की कुछ गिनती,
- किन्तु अप्सरा की भी क्यों ये, सुनते नहीं नम्र विनती?
तुम सबका स्वभाव ऐसा ही, निश्वल और निराला है,
- और नहीं तो आई, लक्ष्मी, कौन छोड़ने वाला है?
कुम्हला रही देख लो, कर में, स्वयंवरा की वरमाला,
- किन्तु कण्ठ देवर ने अपना, मानो कुण्ठित कर डाला॥"
मुसकाकर राघव ने पहले, देखा तनिक अनुज की ओर,
- फिर रमणी की ओर देखकर, कहा अहा! ज्यों बोले मोर-
"शुभे, बताओ कि तुम कौन हो, और चाहती हो तुम क्या?"
- छाती फूल गई रमणी की, क्या चन्दन है, कुमकुम क्या!
बोली वह--"पूछा तो तुमने-शुभे, चाहती हो तुम क्या?"
- इन दशनों-अधरों के आगे, क्या मुक्ता हैं, विद्रुम क्या?
मैं हूँ कौन वेश ही मेरा, देता इसका परिचय है,
- और चाहती हूँ क्या, यह भी, प्रकट हो चुका निश्वय है॥
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