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सोमवार, 18 अप्रैल 2011

देह की कीमत. / तेजेन्द्र शर्मा

परमजीत कौर अपने कमरे में गुमसुम बैठी थी। उसकी आंखें सामने पड़े कलश पर टिकी हुई थीं। उसका दो वर्षीय पुत्र गहरी नींद सो रहा था। कमरे की निस्तब्धता को उसके पुत्र की ज़ुकाम से बंद नाक की सांस की आवाज ही भंग कर रही थी। कमरे का टेलिविज़न भी चुप था, टेलिफ़ोन भी गला बंद किये कोने में पड़ा था। किन्तु यह चुप्पी किसी शांति का प्रतीक नहीं थी। परमजीत के मन में तूफान की लहरें भयंकर शोर मचा रही थीं।

और फ़रीदाबाद के सेक्टर पंद्रह के बाहर एक कुत्ता ज़ोर से रो रहा था।

रोना तो अब शायद पम्मी के जीवन का अभिन्न अंग बनने वाला था।......पम्मी।......हां, हरदीप उसे इसी नाम से तो पुकारा करता था। पम्मी और हरदीप एक-दूसरे के जीवन का अटूट हिस्सा बन चुके थे। पम्मी का उजला खिला रंग रूप, बेदाग मुलायम चेहरा और अंग्रेजी (आनर्स) तक की पढ़ाई; ......यही सब गुण तो उसे फ़रीदाबाद के सेक्टर अट्ठारह से सेक्टर पंद्रह तक ले आये थे। हरदीप ने पम्मी को अपने किसी रिश्तेदार के विवाह में देख लिया था।......बस! ......तभी से बीजी के पीछे पड़ गया था, 'बीजी, जे ब्याह करना है, तो बस उस लाल सूट वाली से।'

'लाल सूट वाली दा नाम तां पुछ लैंदा!' बीजी को अपने पुत्र की व्यग्रता कहीं अच्छी भी लगी थी ......उनका लाडला बेटा जापान जाने की तैयारी में है। यदि, वहां से कोई चपटी नाक वाली जापानी पत्नी उठा लाया तो बीजी का क्या होगा! बीजी लग गईं लाल सूट वाली की तलाश में।

तलाश जाकर पूरी हुई सेक्टर अट्ठारह में। बीजी के मन में थोड़ा झटका लगा।......पुत्तर की पसंद टिकी भी तो जाकर सेक्टर अट्ठारह में। भला पन्द्रह सेक्टर वाले अट्ठारह वालों के घर रिश्ता लेकर जायें तो कैसे! ......बात बड़ी सीधी सी है - सेक्टर पन्द्रह है कोठियों और बंगलों वाला सेक्टर......हर बंगले में कम से कम एक कार तो है ही......और सेक्टर अट्ठारह में हैं हाउसिंग बोर्ड के दो कमरों वाले मकान।......बीजी सोच में पड़ गईं।

बीजी सोचते-सोचते ही सेक्टर अट्ठारह में पहुंच गईं। भला सा घर! ......सीधे सादे लोग! ......छोटा सा परिवार! सरदार वरयाम सिंह, पत्नी सुरजीत कौर, परमजीत और छोटा भाई सुखविंदर! ......बस इतना ही परिवार। दीवार पर गुरु नानक देव और गुरु गोबिंद सिंह के चित्र......और लाल कपड़े में लिपटा गुरु ग्रंथ साहिब परिवार के आस्तिक होने का ऐलान कर रहे थे। बाहर गुरुद्वारे के लाउडस्पीकर पर आवाज आ रही थी......'श्लोक महल्ला पंजवां......अपने सेवक की आपे राखे......आपे नाम जपावे......जहां-जहां काज किरत सेवक की......।' बीजी को लगा ऐसे समय में यह श्लोक उनकी सफलता का ऐलान है।......परमजीत उस दिन कालेज नहीं गई थी।......उसे हल्का सा बुखार था।

बुखार में जो लड़की इतनी सुंदर लग सकती है, वो सजने-संवरने के बाद क्या लगेगी! वरयाम सिंह और सुरजीत कौर प्रसन्न कि उनकी बेटी विवाह के बाद नज़दीक भी रहेगी और रहेगी भी सेक्टर पंद्रह में।......होने वाला जमाई जापान में काम करता है। माता-पिता के लिए इतना ही काफ़ी था।......उन्हें हां करने में देर ही कितनी लगनी थी।......वे दोनों भी कन्यादान कर स्वर्ग में अपना स्थान पक्का करने की योजना बनााने लगे।

परमजीत को तो कन्यादान शब्द से ही वितृष्ष्णा हो उठती थी।......दान वाली वस्तु बनना उसे गवारा नहीं था।......इसीलिये विवाह कचहरी में करना चाहती थी।......परन्तु शादी विवाह के मामले में बेटियों को नहीं बोलना चाहिए।...सम्भवत: इसीलिये परमजीत बोलना चाह कर भी कुछ नहीं बोल पाई। और 'लाल सूट वाली कुड़ी' लांवा फेरे लेकर, ज्ञानियों के श्लोकों पर सवार होकर सेक्टर अट्ठारह से पन्द्रह के बीच की सड़क लांघ गई। रास्ते में भीम बाग और जैन मंदिर उसके विवाह के मूक साक्षी बने खड़े थे।

साक्षी बनने के लिए बिजली तैयार नहीं थी। इसीलिये तो जब घर पहुंचे तो बत्ती नदारद थी......फरीदाबाद में बिजली तो हर रोज गुल हो जाती है......दिन में लगभग चार से छह घंटे तो बत्ती के बिना बिताने ही पड़ते हैं। 'साढ्ढे घर बिजली दी की जरूरत है जी, साढ्ढी तां बहू ही ऐनी चमकीली है कि सारा घर उजला होया पाया है।'......बीजी अपनी ख़ुशी छिपा नहीं पा रही थीं।

उजली बहू तो आज भी घर में है। पर आज घर में गहरा काला अंधेरा छाया हुआ है।......बीजी अपने कमरे में रो-रोकर आंखें सुजा रही हैं। तो हरदीप के दोनों भाई अपनी भाभी को पत्थर दिल करार दे रहे हैं।......चुप हैं तो केवल दारजी!

दारजी ने सदा ही पम्मी को पिता का सा प्यार दिया है। वास्तव में उनका व्यवहार सरदार वरयाम सिंह के साथ समधियों जैसा रहा ही नहीं......दोनों ऐसे दोस्त बन गये, जैसे वर्षों से एक-दूसरे को जानते हों।......निकले भी तो पड़ोसी ही। सरदार वरयाम सिंह मौड़ मण्डी के रहने वाले थे और दारजी का बचपन मानसा में बीता था। भला मानसा और मौड़ में दूरी ही कितनी थी! ......बस इतनी ही दूरी फ़रीदाबाद में भी थी।......किन्तु हरदीप तो बहुत दूर चला गया था। हरदीप को दूर जाने का शौक भी बचपन से ही था। उसके ताऊजी जब से आस्ट्रेलिया जाकर बस गये थे......तब से हरदीप के मन में बस एक ही साध थी कि कहीं विदेश में जाकर ही बसना है।......पर पढ़ाई-लिखाई में तो उसका मन लगता ही नहीं था।......बस, किसी तरह दारजी के रसूख से हर वर्ष पास हो जाता था।......परन्तु हायर सेकण्डरी में तो बोर्ड की परीक्षा होती है।......वहां तो रसूख नहीं चलता है ना ! बस, उसी साल थोड़ी मेहनत की थी।......बी.ए. की डिग्री तो कुकुरमुत्तों की तरह उगे किसी 'पब्लिक कालेज' से ख़रीद ली गई थी।

ख़रीदने को तो दारजी नौकरी भी खरीद देते। परन्तु हरदीप को तो न नौकरी करनी थी और न ही दारजी के व्यापार में हाथ बंटाना था......उसे तो किसी भी तरह विदेश जाना था......बस......वहां जाना था......पैसा कमाना था और ऐश की जिन्दगी जीनी थी।......उन्हीं दिनों एअरलाइन में उड़ान परिचारकों की नौकरी निकली थी। विदेश की सैर का खुला न्यौता! ......हरदीप को कहीं से भनक लग गई कि पगड़ी-धारक सिखों को यह नौकरी नहीं मिल सकती......बस! कर आया केशों का अंतिम संस्कार! कर दिया दारजी की भावनाओं का खून! ......हो गई नौकरी की तैयारी!

पर क्या नौकरी ऐसे मिलती है? ......लिखित परीक्षा देनी होती है......पास करनी पड़ती है......साक्षात्कार! ......या फिर तगड़ी सिफारिश।......हरदीप के पास तो कोई भी अस्त्र-शस्त्र नहीं था इसलिए कोई भी बाधा लांघ नहीं पाया।......पहली ही सीढ़ी से फिसल कर गिर पड़ा।

आज पम्मी न जाने कितनी सीढ़ियों से नीचे गिर पड़ी है। उसमें उठकर बैठने की ना तो ताकत ही है और ना ही हिम्मत! ऐसा कैसे हो जाता है? ......एक ही घटना आप के समूचे जीवन को कैसे तहस-नहस कर देती है।......जिजीविषा बहुत निदर्यी वस्तु होती है। इंसान को जीवित रहने के लिए मजबूर करती रहती है। वरना क्या आज पम्मी के पास जीने का कोई बहाना है। उसके जीवन पर छाया अंधेरा तो और भी विकराल होता जा रहा है।

अंधेरे में जीने का अभ्यास है पम्मी को! ......तभी तो बीजी की कटु बातें और देवरों का निर्दयी व्यवहार भी उस अंधेरे को चीर कर उसे क्षत-विक्षत नहीं कर पा रहे हैं।......'मैं तां पहले ही कहन्दी सी, कुड़ी मंगली है।......ऐथे ब्याह नहीं करणा! ......मेरी तां कदी कोई सुणदा ही नहीं!' ......बीजी का विलाप जारी था।

'ना, उसके मां पयो ने कुछ छुपाया था क्या? ......साफ़-साफ़ बोल दिता था कि हमारी कुड़ी तां मंगली है।......ओस वक्त तो तेरे काके ने ही कह दिया था कि वोह इन बातों को माणता ही नहीं।......फिर आज किस बात की शिकैत है?' 'मेरा तां पुत्तर चला गया! ......तुसी मैंनूं ही लेक्चर दे रहे हो?'

'ओये जे तेरा पुत्तर गया है तो, ओस अभागन का भी तो खसम चला गया! ......ओय सोच भागवाने, विधवा का जीवन किसी को चंगा लगदा है?'

'हाय ओये, कुड़ी न निकली, डायण निकली, लोको! मां पयो ने अपनी डायण हमारे हवाले कर दिती......हुण मैं की करां जी?'

'करणा क्या है; बस अपणी बहु नू संभालो! ......हरदीप की निशाणी है उसदे पास......निक्के बच्चे नूं उसने संभालणा है।......मैं तो कहता हूं......!' और दारजी चुप्प हो गये।

'की कहंदे हो......। कुछ बोलो तां सही!'

'मैं तो कहता हूं......असी आप ही थोड़े वकत के बाद कुड़ी दा दूसरा ब्याह कर दें।......कुड़ी दा जीवन संवर जायेगा......ते साडी इज्जत रह जायेगी।'

'हाय ओये रब्बा! ......कैसा बाप है एह बन्दा! ......अभी पुत्तर नूं मेरे हफ्ता नहीं होया, ते बहू दे दूजे ब्याह दी गल करदा पया है! ......हाय ओये!'

'अपणे बैण बस कर! ......पम्मी की तरफ ध्यान दे।' दारजी का धैर्य चुकता जा रहा था।

पम्मी अब भी उस कलश को ताके जा रही है......जो मरा है, उसकी राख इसी कलश में पड़ी है। मरने वाला मरा भी तो जापान जाकर। 'काका, जा पान लै आ !' ......बीजी की बात सुनकर पम्मी की हंसी छूट गई थी।......भला उनका काका पूरा जापान कैसे ला सकता है! ......किन्तु आज तो उसी जापान ने उनके काके को और पम्मी के हरदीप को पूरे का पूरा निगल लिया था।

जापान जाने की हठ भी तो हरदीप की ही थी।......कोई पक्की नौकरी तो वहां थी नहीं।......फिर भला क्या आवश्यकता थी वहां जाने की। विवाह से पहले पम्मी को यह कहां बताया गया था कि काका अवैध तरीके से जापान जाता है और दो-तीन वर्ष वहां बिताकर, जेबें भरकर, वापिस आ जाता है।

'क्यों जी, आप ऐसा 'इल-लीगल' काम क्यों करते हैं।......अगर कभी पकड़े गये तो?'

'ओय झलिल्ये, जब तक रिस्क नहीं लेंगे, तो यह ऐशो आराम के सामान कैसे जुटायेंगे।......यह सारी इम्पोर्टड चीजें कहां से आयेंगी?'

'मुझे इन चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं जी! ......आप बस यहीं रहिये जी! ......हम बस अपनी दाल-रोटी में ही खुश हैं।'

'तो, आदरणीय पम्मी जी, तुसी दाल-रोटी विच खुश रहो। ते बस आह ही खांदे रहो! ......सरदार हरदीप सिंह दाल-रोटी में खुश रहने के लिये नहीं पैदा हुआ!'

'नहीं जी, मैं अब आपको वहां नहीं जाने दूंगी।......आप एक बार तो वहां हो ही आये हैं।......शौक तो पूरा हो ही चुका है......फिर दोबारा जाने की क्या जरूरत है? ......यहां दारजी का अच्छा-भला बिजनेस है......वही संभालिये।'

'ओये तुम जनानियों को मर्दों की बातों में दखल नहीं देना चाहिए।......तुम अपना घर संभालो......बस पैसे कमाना हम मर्दों का काम है। वोह हमारे ऊपर ही छोड़ दो।'

बुरी तरह से आहत हो गई थी पम्मी! ......उसने अंग्रेज़ी साहित्य में पढ़ाई इसलिये नहीं की थी, कि घर के आंगन में गाय की तरह बंधी खड़ी रहे और पति अपनी मनमानी करता रहे......पम्मी अपने पति के हर काम में बराबर की भागीदार होना चाहती थी......उसे अपने काम में भागीदार बनाना चाहती थी।......उसकी ताकत बनना चाहती थी पर काका तो दारजी और बीजी की कमज़ोरी था......वोह भला एक कमज़ोरी की ताकत कैसे बन पाती? ताकत की तो पम्मी में कोई कमी नहीं......उसका चरित्र इतना शक्तिशाली है कि वह किसी भी मुसीबत का सामना करने में सक्षम है। परन्तु जब से हरदीप ने उसे बताया है कि वह किस तरह अवैध तरीके से टोकियो पहुंचता है, तो उसकी शक्ति भी जवाब देने लगी थी।

'बड़ी सीधी सी जुगत है पम्मी! तीन वर्ष पहले भी चल गई थी; अब की बार भी चल जायेगी।......अपना एजेंट हमें दिल्ली से बैंकाक तो अपनी देसी एअरलाइन से भेजेगा। वहां से सिडनी का टिकट बनवायेगा, वाया टोकियो।......टोकियो में आठ घंटे का ट्रांज़िट हॉल्ट होगा......बस, उसी आठ घंटे में अपना एजेंट हमें एअरपोर्ट से बाहर निकाल कर ले जायेगा......मैं पहुंच जाऊंगा टोकियो में अपने अड्डे पर!'

'मुझे तो डर लगता है जी!'

'ओये, मैं वहां कोई अकेला थोड़े ही होऊंगा।......कितने लड़के पाकिस्तान से होते हैं, कितने बंगलादेशी, और कितने अपने पंजाबी भाई।......यही नहीं फिलीपीन और कोरिया वाले भी 'इल-लीगल' होते हैं।'

'पर होते तो 'इल-लीगल' ही हैं न जी!'

'ओ तू यहां कानूनी और ग़ैर-कानूनी के चक्कर में पड़ी है और मुझे अपनी ज़िन्दगी बनाने की फिक्र है।'

पम्मी को तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। उसके पल्ले तो यह बात ही नहीं पड़ रही थी कि इतने पचड़ों में पड़कर जापान जाने की ऐसी मजबूरी क्या है? ......क्या इसी को ज़िन्दगी बनाना कहते हैं? ......पर......काका तो बहुत अकलमंद है न......पिछली बार ही पांच लाख बचाकर लाया था......इम्पोर्टेड चीजें अलग......। भला सफल आदमी भी कभी गलत हुआ है !......किसकी मजाल जो सफलता को उसकी कमियां बता सके ?......फिर पम्मी ही भला कैसे अपने हरदीप को समझा सकती थी!

उल्टा हरदीप ने ही उसे समझा दिया था।......हरदीप के समझाने का नतीजा भी महीने भर में सामने आ गया था।......शर्म से लजाकर पम्मी ने बताया था कि उसका जी खट्टा खाने को करने लगा है।......दारजी तो बच्चों की तरह भंगड़ा पाने लगे थे।......बीजी ने बलैयां ली थीं......बहू को काला टीका लगाया......उसकी नजर उतारी......गुरुद्वारे ले जाकर माथा टिकवाया......घर में अखण्ड पाठ रखवाया।......अबकी बार बीजी ने भी पुत्तर को समझाने की कोशिश की थी, 'पुत्तरा, कुड़ी दा पैर भारी है। मेरी गल मन, ऐस वार नां जा......पहला बच्चा है, तूं साथ होएंगा, तां कुड़ी चंगा महसूस करेगी।'

'बीजी, कोई निक्की बच्ची थोड़े ही है पम्मी! ......फिर आप हो, दारजी हैं ने, दो छोटे वीर ने, कोई इकल्ली थोड़ी है।'

'पुत्तरा असी सारे बेगाने! ......उसका अपणा तो बस, तू ही है।'

कितना सच कहा था बीजी ने! ......आज हरदीप की मौत के बाद सब बेगानों का सा व्यवहार ही तो कर रहे हैं। हरदीप तो बेटे का मुंह देखे बिना ही चलाना कर गया।

'पम्मी, इंसान अपने भविष्य के लिये क्या कुछ नहीं करता! ......दिल छोटा नहीं करदे पगली!'

'पता नहीं क्योंजी, मेरा तो दिल ही नहीं मानता कि आप जापान जाओ।......मेरी तो बस यही तमन्ना है कि जब अपना बच्चा पैदा हो, तो सबसे पहले आप ही उसका चेहरा देखें।'

चेहरे कैसे दूर चले जाते हैं। गायब हो जाते हैं।......पम्मी की मां जचगी के लिये अपनी बेटी को अपने घर ले गई थी।......आजकल घर में कहां बच्चे पैदा किये जाते हैं? ......दाइयां तो केवल कहानियों में रह गई हैं......या फिर पिछड़े हुए गांवों में।......शहरों में तो बच्चे नर्सिंग होम में ही पैदा होते हैं। मायके वाले तो बस पैसे खरचते हैं......परेशानी उठाते हैं ताकि होने वाला बच्चा उनके जमाई के नाम को आगे बढ़ा सके। पम्मी का पुत्र अपने पिता की अनुपस्थिति में ही इस दुनिया में आ गया था।

और हरदीप अपने पुत्र को देखे बिना ही इस दुनिया से चला गया था......अपनी रणनीति के अनुसार हरदीप बैंकाक होते हुए टोकियो पहुंच गया था। अपने पुराने साथियों के साथ ही जाकर रहने का ठिकाना भी कर ही लिया था......एक ही कमरे में दस-बारह अवैध रूप से घुसे लड़के वहां रहते थे।......कुछ एक की पत्नियां पीछे हिन्दुस्तान में प्रतीक्षा कर रही थीं।......कुछ एक जापान में ही विवाह करने की जुगाड़ बना रहे थे।......जापानी कन्या से विवाह करने पर वो जापान में रहना वैध हो जाता।

फ़रीदाबाद का वैध नागरिक, खाते-पीते घर का 'काका', जापान में अवैध काम करके को अभिशप्त था।......वहां वो कुली भी बन जाता था तो कभी रेस्टॉरेंट में बर्तन भी मांज लेता था......हर वो काम जो हरदीप अपने देश में किसी भी कीमत पर नहीं करता, जापान में सहर्ष कर लेता था।......कारण? ......झूठी शान के अतिरिक्त, और क्या हो सकता है......कि लड़का जापान में काम करता है।

काम करता है! ......दारजी सब समझते हैं, कि काका क्या काम करता है। घर में एक वहीं तो हैं जो पम्मी की बात से सहमत हैं कि हरदीप को जापान नहीं जाना चाहिए।......पर काके को बीजी की पूरी शह है।......बीजी का मन तो इम्पोर्टेड सामान के साथ बंधा रहता है।......फिर न जाने उन्हें इम्पोर्टेड बहू के ख्याल से क्यों डर लगता था।

डर तो पम्मी को भी था कि कहीं कोई जापानी गुड़िया उसके हरदीप को अपने जाल में न फंसा ले। हरदीप को सख्त हिदायत थी कि हर सप्ताह वह पम्मी को फोन करेगा।......हरदीप भी अपना वादा हर सप्ताह निभाता था। फिर एक सप्ताह हरदीप का फ़ोन नहीं आया।......पम्मी का माथा ठनका। बीजी ने झिड़क दिया, 'ना! जे एक हफ्ता फोन नहीं आया तां हो की गया......मुंडा कहीं बिजी हो गया होगा।......आजकल की लड़कियां तो अपने खसम को गुलाम बनाकर ही रखना चाहती हैं।'

पम्मी ने भी एक गुलाम की तरह चुप्पी साध ली थी। अपनी भावनाओं को दिल में ही दबा दिया था।

परन्तु विदेश में बैठे हरदीप का बुख़ार उसके शरीर में दबकर रहने को तैयार नहीं था।......भेद खुल जाने के डर से डॉक्टर से दवा लेने में भी नहीं जा सकते थे। दोस्त लोग मिलकर ही दवा करवा रहे थे। शरीर कमजोर पड़ गया था।......दो कदम चलते ही चक्कर आने लगते थे। अवैध कर्मचारी को तो रोज़ के पैसे रोज़ काम करने पर ही मिलते हैं। काम नहीं तो दाम नहीं।......मन ही मन हरदीप को यह चिंता भी खाये जा रही थी। बस इसीलिये कमज़ोरी की हालत में भी काम पर निकल पड़ा था।

पम्मी को हर दिन काटने को दौड़ रहा था।......वह अपनी मां से मिलने तक नहीं जा पा रही थी।......अगर पीछे से हरदीप का फोन आ गया तो? मां का फ़ोन तो कई बार आ चुका था और पिता जी भी दो बार लेने आ चुके हैं। आखिरकर, पम्मी ने सेक्टर पंद्रह से अटठारह के बीच की सड़क लांघने का मन बना ही लिया।

सड़क पार करते हुए हरदीप को ज़ोर का चक्कर आ गया। तेज़ रफ्तार से आती कार के ड्राइवर ने पूरे ज़ोर से ब्रेक लगाई थी।......परन्तु हरदीप के जीवन का दीप गिेंज़ा की व्यस्त सड़क के बीचों बीच बुझा पड़ा था। हरदीप के साथियों में शोर मच गया। हड़कंप की सी स्थिति थी। अवैध लाश! ......लावारिस! ......उसे लेने कौन जाये? ......हरदीप के दसों दोस्त भी तो अवैध थे - लावारिस ज़िन्दा लाशें।......जो भी लाश लेने जायेगा, वही धर लिया जायेगा।......पर सतनाम के पास तो वैध वीज़ा था।......वो तो हरदीप की दोस्ती के कारण सबके साथ रहता था।......फिर गुज़ारा भी सस्ते में हो जाता था। सतनाम ने जाकर लाश को पहचाना।......पर अब लाश का करें क्या? ज़िंदा इंसान का हवाई जहाज़ का किराया कम लगता है, परंतु लाश को जापान से भारत भेजना बहुत महंगा सौदा बन जाता है। किसी प्रोफेशनल से लाश पर लेप चढ़वाना, ताबूत का इंतज़ाम, सरकारी लाल फीताशाही, और हवाई जहाज़ का किराया! ......सतनाम ने सभी दोस्तों से बातचीत की......सभी बड़े दिल वाले थे। पंजाबी ख़ून ने ज़ोर मारा और दो दिन में ही तीन लाख भारतीय रुपये के बराबर पैसा इकट्ठा हो गया।......सभी दोस्तों ने अपने यार को श्रध्दांजलि के रूप में यह पैसा एकत्रित किया था।

सतनाम भारतीय दूतावास जाने की सोच रहा था। एक नया अफ़सर है, नवजोत सिंह। सुना है ख़ासा मददगार इंसान है। दोस्तों ने टोका, 'यार, यह एम्बेसी के चक्कर में न पड़ो। हिन्दुस्तानी एम्बेसी वाले तो बनता काम बिगाड़ने के लिए मशहूर हैं।'

'याद नहीं पिछली बार अवतार सिंह के साथ क्या किया था।' सतनाम परेशान हो उठा, 'भाई, एक बार चलकर तो देख लें।'

सभी सतनाम की बात मान गये। आखिर इन सभी 'इल-लीगलों' में एक वही तो 'लीगल' था। गैर कानूनी ढंग से दूसरे देश में जाकर सिंह भी कैसे चूहे हो जाते हैं।

नवजोत सिंह भारतीय दूतावास में पिछले साल भर से है। पिछली बार पंजाब के एक लड़के ने आत्महत्या की थी, तब भी उसी के सिर सारा काम आन पड़ा था। उस लड़के का मृत शरीर, अभी तक नवजोत को झुरझुरी दिला जाता है। सतनाम सिंह की बात नवजोत पूरे ध्यान से सुनता रहा। उसने सतनाम की पीठ ठोंकी, 'तुम सबने तो अपनी दोस्ती निभा ली यारो।......दो दिन में तीन लाख रुपये इकट्ठे कर लिये! ......अब मुझे कुछ सोचना है।' सतनाम मुंह नीचा किये खड़ा रहा।......नवजोत के माथे पर पड़ते बल इस बात की घोषणा कर रहे थे कि वह गहरी सोच में डूबा हुआ है।

'एक बात बताओ सतनाम सिंह तुम कह रहे थे कि हरदीप सिंह की बीवी और एक बच्चा भी है।' नवजोत ने ठंडी सांस लेकर पूछा।

'है जी!'

'तुमसे एक बात कहूं, तो बुरा तो नहीं मानोगे?'

'कहो न साबजी! ......इस परदेस में आप ही तो हमारे माई-बाप हैं।'

'सतनाम, अगर यह सारा पैसा इस लाश को हिन्दुस्तान भेजने में खर्च हो गया, तो हरदीप की बीवी को क्या मिलेगा......बस एक लाश! ......उस पर वो अभागन क्रिया-कर्म का खर्चा करेगी, सो अलग।'

'आप कहना क्या चाहते हैं बाऊजी?'

'अगर हम इस लाश का क्रिया-कर्म यहीं जापान में कर दें, तो इसकी अस्थियां तो मुफ्त में भारत भेजी जा कती हैं डिप्लोमैटिक मेल में भेज देंगे।......ये पैसा .. उसके काम आ आयेगा।'

सतनाम किंकर्तव्यविमूढ़ होकर रह गया था। उसे समझ ही नहीं आ रहा था, कि उसकी प्रतिक्रया क्या हो। उसे नवजोत सिंह बहुत ही घटिया आदमी लगा, क्योंकि भावनाओं की कद्र उस इंसान में बिल्कुल भी नहीं थी।......उसे नवजोत सिंह बहुत अच्छा इंसान लगा।......क्योंकि वह जीवित व्यक्ति के बारे में सोच रहा है......सिर्फ लाश के बारे में नहीं। 'बाऊजी, आप जो ठीक समझें, वहीं करो जी।'

सतनाम ने वापिस आकर सारे मित्रों को नवजोत सिंह के मन की बात बताई। सभी की आंखों में नवजोत का चरित्र पेण्ड़ुलम की तरह नायक और खलनायक के बीच झूल रहा था। बुत बने बैठे थे सब। किसी भी निर्णय पर पहुंच पाना आसान था क्या? एक राय पर सभी मित्र एकमत थे कि फ़रीदाबाद में हरदीप की बेवा से बात की जाये। जो वह ठीक समझे वही किया जाये।

फोन की घंटी बजी। दोपहर का समय था। दारजी ने फ़ोन उठाया। जापान से फ़ोन था।......दारजी की आवाज़ स्वयमेव ही ऊंची हो गई, 'हां जी! ......मैं उसका फ़ादर बोल रहा हूं जी।......उसकी वाईफ़ घर में नहीं है। ......जी! ......व्हाट!....

'हलो, मिस्टर सिंह! ......आप हमारी आवाज़ सुन रहे हैं?'

दारजी की गीली भर्राई हुई आवाज़ निकली, 'क्यों जी? काके का फ़ोन था......क्या बोला?'

'अब वोह कभी नहीं बोलेगा, भागवाने!'

'शुभ-शुभ बोलोजी! वाहेगुरु मेहर करे!'

'हरदीप दी बीबी, काका सानूं छड के चला गया। ... जापान वाले काके दा क्रिया-कर्म वहीं करके उसके पैसे पम्मी के नाम भेज रहे हैं।'

तूफ़ान का झोंका एक भूचाल की तरह आया। बीजी फटी हुई आंखों से अपने पति को देख रही थीं, जिसने ऑल इंडिया रेडियो की तरह अपने पुत्र की मौत का समाचार सुना दिया था। बीजी का स्यापा घर की दीवारों की सीमा पर करके पड़ोसियों के घरों तक पहुंचने लगा था। वह बदहवास हुए जा रही थीं। हरदीप के दोनों भाई भौंचक्के खड़े थे।

'पुत्तर नूं तां खा गई, हुण ओसदे पैसे बी खा जायेगी।'

'अकल दी बात कर, कुलवंत! ......ओस बेचारी को तो अभी तक यह भी नहीं पता कि वो विधवा हो चुकी है।' दारजी को दु:ख और गुस्से दोनों पर काबू पाना भारी पड़ रहा था।

'दारजी, भरजाई को बुलाने से पहले एक बात हम आपस में तय कर लें।'

'हमें क्या तय करना है पुत्तर जी?'

'दारजी या तो वीरजी की लाश लेने हम दोनों भाइयों में से कोई जायेगा......या फिर......!'

'बोलो पुत्तर, चुप क्यों हो गये?'

'या फिर जापान वालों से कहिये कि पैसे बीजी के नाम से भेजें।'

'पुत्तर जी, अगर तुम लाश लेने जाओगे तो क्या खास बात हो जायेगी?' दारजी का गुस्सा बाहर आने को बेताब हो रहा था।

'दारजी, हम वहां वीरजी की जगह टोकियो में रहने का चक्कर चला सकते हैं।' कुलदीप ढिठाई से बोला।

'ओये, हरदीप की मौत से भी तुमने कोई सबक नहीं लिया?'

'चलो जी हम एक मिनट के लिये मान भी जायें कि काके दा क्रिया-कर्म जापान में हो जाये, तो सारे पैसे कल दी आई कुड़ी को क्यों मिलें। पुत्तर तो हमारा गया है!' बीजी ने कुलदीप के सुर में आवाज़ मिलाई।

दारजी सिर पकड़कर बैठ गये। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि इस औरत के साथ उन्होंने इतना लंबा जीवन बिता डाला, 'ओ, जिसका खसम गया है, पहले उसे तो बताओ कि वोह बेवा हो चुकी है।'

'पर दारजी, पम्मी भाभी के आने से पहले हम घरवालों को कोई फैसला तो कर लेना चाहिए।......दोबारा जापान से फोन आ गया तो क्या जवाब देंगे?' यह गुरप्रीत था, सबसे छोटा।

दारजी अपने परिवार को देखकर हैरान थे, क्षुब्ध थे......अपने ही पुत्र या भाई के कफ़न के पैसों की चाह इस परिवार को कहां तक गिरायेगी, उन्हें समझ नहीं आ रहा था। मन किया सब कुछ छोड़-छाड़कर संन्यास ले लें। पर अगर वे नहीं होंगे तो पम्मी का क्या होगा? ......यह गिध्द तो सामूहिक भोज करने में जरा भी नहीं, हिचकिचाएंगे। 'पुत्तर जी आप अपणे भाई और मां के साथ फ़ैसले करो, मैं ज़रा जाकर अपनी बहू को उसकी बरबादी की खबर दे आऊं।'

पंद्रह सेक्टर पर गिरी बिजली को दारजी अट्ठारह सेक्टर अपने साथ ले गये। सरदार वरयाम सिंह और सुरजीत कौर के तो पैरों के नीचे से मानों जमीन ही निकल कई। पम्मी तो चीख मारकर बेहोश ही हो गई।......बस चार-पांच महीने ही तो बिताये थे अपने पति के साथ।

'वरयाम सिंह जी, आप जी दी क्या राय है? ......जापान वालों को क्या जवाब दिया जाये?'

'सरदार साहब, आप बड़े हैं, अक्लमंद हैं, दुनिया देखी है आपने। आप जो फैसला करेंगे......वोह तो ठीक ही होगा।' सरदार वरयाम सिंह के हाथ जुड़े हुए थे।

'देख भाई वरयाम सिंह, यह फैसला मैं अकेला नहीं कर सकता......मेरी हालत से तो तू अच्छी तरह वाकिफ है......अभी तक न जाने कैसे सब कुछ सहे जा रहा हूं'

'सरदार साहिब, आप जो भी फैसला करें......जरा पम्मी के भविष्य का जरूर ख्याल करें।'

'भविष्य की बात तो बाद में सोचेंगे......अभी तो पम्मी को मेरे साथ रवाना करें। घर मे सौ अफ़सोस करने वाले आयेंगे।' दारजी उठ खड़े हुए।

वरयाम सिंह और सुरजीत कौर पम्मी और उसके पुत्र को लिये पंद्रह सेक्टर की ओर चल दिय।......भीम बाग और जैन मंदिर पम्मी की सूजी आंखें देखकर भी चुप थे।......निरपेक्ष खड़े थे।

बीजी ने सबको देखा तो उनका स्यापा और ऊंचा हो गया। दारजी ने पम्मी को अलग से बुलाया और उससे एक बार फिर वही सवाल किया।......पम्मी के पास सिवाय रोने के और कोई जवाब नहीं था। दारजी के दिमाग में वरयाम सिंह की आवाज़ गूंज रही थी, 'जरा पम्मी के भविष्य का ख्याल जरूर करें।'

जापान से फ़ोन आया। दारजी ने फ़ोन उठाया। पम्मी की ओर देखा। पम्मी की रोती हुई आंखों में लाचारी साफ़ दिखाई दे रही थी। बीजी, कुलदीप और गुरप्रीत की आंखें और कान दारजी की ओर ही लगे हुए थे।

'हांजी, नवजोत सिंह जी, आप......ड्राफ़्ट परमजीत कौर के नाम से ही बनवाइयेगा।......और......और अस्थियां थोड़ी इज्ज़त से किसी कलश में भिजवा दीजियेगा।' दारजी के आंसुओं ने उनकी आंखों से विद्रोह कर दिया। और वे निढाल होकर जमीन पर ही बैठ गये।

पूरा घर तनाव से भर गया। बीजी ने पूरा घर सिर पर उठा लिया, 'ऐस कमीनी नूं तां पैसा मेरे पुत्तर तो ज्यादा प्यारा हो गया।......अपने पुत्तर दे आखरी दर्शन वी नहीं कर सकांगी।......खसमां नूं खाणिये तेरा कख ना रहे।'

दारजी ने पम्मी के सिर पर हाथ फेरकर उसे कमरे में जाने को कहा।......पम्मी एक लुटे-पिटे मुसाफिर की तरह किसी तरह अपने कमरे तक पहुंच गई।

रात को बीजी ने एक और चाल चली, 'सुणोजी, मैं एक बात कहूं, बुरा तो नहीं मानोगे।'

'बोलो', दारजी की दर्द भरी आवाज उभरी।

'अगर कुलदीप पम्मी पर चादर डाल दे, तो कैसा रहे? ......घर की इज्ज़त भी घर में रह जायेगी और......'

अस्थियां और बैंक ड्राफ्ट आ पहुंचे हैं। बाहर बीजी का प्रलाप जारी है, दारजी दु:खी हैं। और अंदर कमरे में पम्मी अपनी सूजी आंखों से कलश को देश रही है।......उसने तीन लाख रुपये का ड्राफ्ट उठाया।......उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह उसके पति की देह की कीमत है या उसके साथ बिताये पांच महीनों की कीमत।

उसका पुत्र अभी भी जुकाम से बंद नाक से साँस लिये जा रहा है।

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