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शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

उड़ान { तेजेन्द्र शर्मा }

बंबई मुझसे छूट रहा है। गाड़ी मुझे यहाँ से दूर दिल्ली की ओर ले जा रही है। क्या मैं दिल्ली वापस जाने के लिए यहाँ आयी थी? ऐसा तो नहीं सोचा था मैंने। और भी किसने सोचा होगा? पिताजी कह रहे थे, 'वीनू बेटा, अब तू एयर-होस्टेस हो गयी है। मेरा तो सिर का बोझ हल्का हो गया। अपने भाई-बहनों को अब तुझे ही सँभालना है।' कितना स्नेह है उनको मुझसे! हर समय मेरी ही चिंता रहती थी उनको। मैं कैसे अकेली बंबई जैसे शहर में रह पाउूँगी? मेरे खाने-पीने और रहने की चिंता...
बांद्रा के होस्टल से अब वापस कटरा नील, चाँदनी चौक! यह सब मुझे बहुत अजीब-सा क्यों लग रहा है? मैं अपने ही घर तो वापस जा रही हूँ।
घर! क्या वह घर है? पिताजी के शरीर की तरह ओवर-टाइम कर-करके जर्जर हो रहा है। दादाजी ने कभी पंद्रह रुपये महीने किराये पर लिया था। पिताजी आज भी पंद्रह रुपये ही देते हैं। छत पर मुड़े हुए शहतीर, अंगीठी और स्टोव के धुएँ से लटकते हुए काले जाले। पिछले सात वर्षों से तो घर की पुताई भी नहीं हो पायी। सूर्य की रोशनी तो कभी भी उस घर की अभेद्यता को बींध नहीं पायी। उस घर में वापस जाऊँगी मैं? नाली में बहता वह गंदा पानी और नथुनों को बींधती गंध! क्यों न जंजीर खींचकर नीचे उतर जाऊँ? ...पर वापस तो जाना ही है, बंबंई में अब मेरा है ही कौन? नीलम भी धीरे-धीरे मुझे भुला देगी। कौन किसको याद रखता है!
"वीनू! जब मैं बंबई आयी थी, तो तुम्हारी तरह भाग्यशाली नहीं थी। यहाँ इस कमरे में अकेली दीवारों को घूरा करती थी। मुझे तो इस नौकरी और बंबई, दोनों से ही घृणा-सी हो गयी थी। मगर अब धीरे-धीरे अभ्यस्त हो गयी हूँ।'
"नीलम, मैं सोचती हूँ, सचमुच कितनी भाग्यशाली हूँ मैं! बी.ए. पास करते ही एयरलाइन की नौकरी और अब तुम्हारे जैसी सहेली, मुझसी भाग्यवान तो शायद ही कोई और हो!'
भाग्यवान! क्या अर्थ हैं इस शब्द के? मैं अपने माँ-बाप, भाई-बहनों को छोड़ बंबई रहने में भाग्यवान थी, और आज जबकि अपने घर वापस जा रही हूँ, तो स्वयं को अभागी मान रही हूँ।
क्या मुझे फिर उसी सड़क पर बार-बार चलना होगा, जिस पर मेरे जीवन के पिछले बीस वर्ष बीते थे? फतेहपुरी की मस्जिद से लाल किले तक। रास्ते में टाउन हॉल, फव्वारा, कोतवाली, सीसगंज गुरुद्वारा, चर्च, शिवजी का मंदिर, मोती सिनेमा तथा चिड़ियों का अस्पताल...किस शान से दुनिया को जीना सिखाते हैं! कहीं पूरियाँ बिकती हैं, तो कहीं कोई हकीम साहब मूँछों पर ताव दिये मर्दानगी बेचते हैं। परंतु मेरे मन की कमजोरी मुझे कहाँ ले जायेगी? इसका क्या इलाज है?
मेरे सामने बैठा लड़का किस बेहयाई से मुझे घूर रहा है! घूरता तो मुझे राजू भी था...मगर कितने प्यार से! उसकी तो अदा ही कुछ और थी। नीले रंग के कपड़ों में उसका व्यक्तित्व कैसा निखर उठता था! उसके गोरे रंग पर मूँछें कितनी फबती थीं! पहली ही नजर में वह मुझे कुछ खास ही अच्छा लगने लगा था। मुझे अपने घर भी तो ले गया था। अपनी माँ से भी मिलवाया था।
"वीनू! आज तुम्हें माँ से मिलवाने ले जा रहा हूँ। तुम साड़ी पहनकर आना। वही पीली साड़ी। उसमें तुम बहुत प्यारी लगती हो।'
"राजू, मूझे पसंद कर लेंगी माँजी?'
"जो तुम्हें पसंद न करे, उसकी अपनी ही नजर में कुछ दोष होगा!'
दोष! किसको दोषी ठहराऊँ मैं? इन छ: महीनों में कितना लंबा सफर तय कर आयी हूँ मैं। हँसती-खिलखिलाती वीनू से एक गंभीर चिंतनशील नवयुवती हो गयी हूँ मैं।
गाड़ी सूरत स्टेशन पर रुकी है। वह लड़का अब भी ढिठाई से मेरी ओर ताक रहा है। चायवाला 'चाय गरम' की आवाजें लगा रहा है। क्या यह भी एयर-होस्टेस का ही दूसरा रुप है? क्या मैं भी हवाई जहाज में चाय-कॉफी के लिए पुछती ऐसी ही लगती होऊँगी? ...नहीं! ...मैं ऐसी नहीं हो सकती...मैं मात्र चाय या शराब बेचने वाली नहीं हो सकती। मैं तो एयरहोस्टेस थी। मेरा काम था यात्रियों के आराम की देखभाल। मैं तो घर की मालकिन की तरह उनकी तथा उनके बच्चों की आवभगत करती थी। उनको खाना खिलाना तो केवल 'एक काम' था। मैं तो और भी बहुत कुछ करती थी। 'कंपार्टमेंट' की हर चीज पीली-सी दीखने लगी है। ऑंखों के सामने ऍंधेरा-सा छा रहा है। क्या ऍंधेरा पीला भी होता है?
"तुम्हारी यूनिफॉर्म की साड़ियों के दो रंग हैं...पीला और हरा। दोनों में ही काले और लाल रंग के डिजाइन हैं। वीनू! तुम्हें कौन-सा रंग पसंद है?'
"जी, पीला, मैडम!'
मिस्टर शाह मेरी क्लास को पढ़ाने आते थे। उनकी मूँछें कुछ विशिष्ट ही थीं। वह चेहरे से कोई मेजर या कर्नल लगते थे। थे बहुत ही सहृदय व्यक्ति। मुझे चीज और वाइन ने नाम कभी याद नहीं हो पाते थे। सभी फ्रांसीसी नाम थे। वह मुझे कभी डाँटते नहीं थे। हमेशा वीनू बेटा ही बुलाते थे। एयरलाइन के और लोग तो 'हनी', 'डार्लिंग' और 'लव' ही बुलाते हैं सब लड़कियों को। काश, वे इन शब्दों का अर्थ समझ पाते! अर्थशून्य लोग!
मेरी पहली ही फ्लाइट दुबई और मस्कट के लिए थी। एयरलाइन में नया नियम बनाया गया था। ट्रेनीज केवल गल्फ फ्लाइट्स पर ही जायेंगे। उन्हें लंदन या लंबी फ्लाइट्स पर नहीं भेजा जायेगा।
"अरे वीनू, जब मैं ट्रेनी थी, तो पहली ही फ्लाइट्स पर मैं हाँगकाँग गयी थी। तुम लोगों की किस्मत तो दुबई तक ही सिमट गयी है।'
नीलू बेगम! यदि किस्मत की खराबी यहाँ पर ही रुक जाये, तो कोई बात नहीं, कहीं और बढ़ती न जाये!'
मुझे हॉस्टल से लेने के लिए एयरलाइन की गाड़ी आयी थी। उसमें एक होस्टेस और दो परसर भी बैठे थे। परसर को हम मर्दाना होस्टेस भी कहते हैं। मैंने सबको अपना परिचय दिया। वह हवाई अड्डे पहुँचे, तो सभी लोग एक ऑफिस में इकट्ठे हुए। वहाँ भी मुझे सबको अपना परिचय देना था। यूनिफॉर्म में सभी चहरे एक-से लग रहे थे। मैं हड़बड़ाहट में कई लोगों को अपना परिचय दो या तीन बार दे गयी। मेरी चेक-होस्टेस ने मेरा साहस बढ़ाया और फ्लाइट के विषय में कुछ हिदायतें दीं। विमान को पहली बार अंदर से देखकर मैं अपने-आपको संयत नहीं रख पा रही थी। एक गरीब क्ल की बेटी और 382 सीटों वाला विशालकाय जंबो जेट। फ्लाइट में घोषणाएँ मुझे ही करनी थीं। मैंने बोलना शुरू किया। ऑंसू जैसे बाहर आना ही चाहते थे। घबड़ाहट, खुशी और मौके की नजाकत सब अपना रंग दिखा रहे थे। विमान के उड़ते ही शरीर को एक झटका-सा लगा। खिड़की से झाँककर देखा तो बंबई रात की बाँहों में बिजली की तरह चमक रही थी। जुगनुओं की कतारों जैसी बत्तियाँ...
गाड़ी चलती जा रही है अपने गंतव्य की ओर। पेड़ पीछे छूटते जा रहे हैं। नंग-धड़ंग बच्चे फटी-फटी ऑंखों से गाड़ी को देख रहे हैं। जैसे कोई इस्पात का दैत्य धड़धड़ाता हुआ भागा जा रहा हो। कभी विमान देखकर मेरी भी ऐसी ही हालत होती होगी। ऑंखें फट जाती होंगी। मेरा भी दिल आइकैरस की भाँकि उड़ान भरने को होता होगा। उसी की तरह मेरे पंख भी गल गये। मैं धरती पर आ गिरी। आकाश को अपनी बाँहों में न समेट सकी।
सामने बैठे लड़के ने भाड़-सा मुँह खोलकर जम्हाई ली, तो कीड़े लगी दाढ़ें दिखायी देने लगीं।
"तुम अपने दाँत डॉक्टर को दिखाओ, वीनू! अभी से तुम्हारी एक दाढ़ मे कीड़ा लग गया है।'
"तुम्हें सदा मेरी कितनी चिंता रहती है, राजू! चलो, डॉ. अरोड़ा से मिल लेते हैं।'
चाचाजी की दाढ़ में भी कीड़ा लग गया था। कितना दर्द हो रहा था उनको! वह अमेरिका से दिल्ली आये थे। पिताजी के साथ मैं भी उन्हें हवाईअड्डे पर लेने गयी थी। चाची भी उनके साथ आयी थी। चाचा-चाची हमारे घर न चलकर सीधे बुआ के घर लोधी कॉलोनी चले गये थे। गरीब भाई के घर से अमीर बहन का घर कहीं अधिक सुहाता होगा उनको। पिताजी भी तो सत्यकाम बने रहते हैं। क्यों नहीं लेते औरों की तरह रिश्वत? हमारा भी एक सुंदर-सा घर होता। गरीबी सुरसा की तरह हमारे घर को न निगलती। चाची हमारे घर भी तो आयी थी।
"वीनू! बहुत बड़ी हो गयी हो! और देखो, कितनी सुंदर भी! तुम्हें तो फिल्मों का शौक तो कभी भी नहीं था, पर एयर-होस्टेस के नाम से ही शरीर में सनसनी दौड़ जाती थी। अनु की बहन मधु भी तो एयर-होस्टेस है। अन्य किसी भी आकर्षण से अधिक तो मुझे अनु से ही यह प्रेरणा मिलती थी कि मैं भी एयर-होस्टेस बनूँ। कैसे चटखारे ले-लेकर मुझे अपनी विदेश यात्रा के किस्से सुनाती थी! मधु दीदी का जीवन तो फाइव स्टार होटलों के ग्लैमर में ही व्यतीत होता रहा है। उनके घर में तो हर काम के लिए स्प्रे ही इस्तेमाल होता है, यहाँ तक कि मच्छर मारने के लिए भी मधु दीदी लंदन से स्प्रे ही लाती है। उस दिन तो हद ही हो गयी, जब मैंने मधु दीदी को हाथ से छूकर देखा कि क्या होस्टेस भी हाड़-मांस की ही बनी होती है?
"तुम इतनी घबड़ा क्यों रही हो, वीनू? अनु मुझसे अक्सर तुम्हारे बारे में बात करती है। जैसे मैं अनु की दीदी, वैसे ही तुम्हारी थी। हाँ, तुम्हें होस्टेस बनने का शौक है न?'
"शौक, दीदी! यह तो मेरे जीवन का सपना है। पंछियों के समान पंख लग जायेंगे मेरे। आज लंदन में तो कल सिडनी। सारी दुनिया देखूँगी मैं। क्या ऐसा हो सकता है, मधु दीदी?'
"अरे क्यों नहीं हो सकता! पहले पढ़ाई तो पूरी कर लो अपनी। अब तो बी.ए. पूरी होने में बस डेढ़ ही साल बाकी है।'
डेढ़ साल। कितना थोड़ा समय लगता है सुनने में, और बीतने में जैसे सदियाँ! आकाश में उड़ते हर विमान को निहारा करती थी उन दिनों। अपनी ही धुन में मस्त रहने लगी थी मैं। किसी भी और कार्य में तो मेरी रुचि नहीं होती थी।
गाड़ी एकाएक रुक गयी है। बाहर तो कोई स्टेशन भी नहीं है। एकदम उजाड़-सा है। दूर तक वृक्ष फैले हैं। गाड़ी को रुका देखकर वे भी रुक गये हैं। जैसे गाड़ी का हाल पूछ रहे हों। दौड़ समाप्त हो गयी है परंतु मेरी मंजिल तो अभी दूर है। गाड़ी में किसी बच्चे के रोने की आवाज आने लगी है। उसकी माँ उसे डाँट रही है। माँ तो डाँटती ही है।
"वीनू! तू एयर-होस्टेस नहीं बनेगी। हमारे खानदान में आज तक कभी कोई लड़की इस मटरगश्ती वाली नौकरी में नहीं गयी। किसके भरोसे तुझे देश-विदेश जाने दूँ? तू बी.ए. पूरी कर ले, तो मेरे हाथ पीले कर दूँ। मुझे नहीं चाहिए तेरी कमाई। रूखी-सूखी खा लेंगे, पर बेटी को ऐसी बेशरम नौकरी नहीं करने देंगे। वह पुरी साहब की छोकरी मधु को देखो। क्या कपड़े पहनती है! राम-राम! मालूम ही नहीं होता, लड़की है या लड़का! सुन लिया न तूने?'
मैं तो अपने मन की बात बहुत पहले से सुन चुकी थी। एयर-होस्टेस बनना तो मेरे जीवन का ध्येय बन गया था। पिताजी ने सदा की भाँति फिर मेरा साथ दिया था। और मैंने एयर-होस्टेस की नौकरी के लिए प्रार्थनापत्र भेज दिया। करीब दो महीने पश्चात् मुझे साक्षात्कार के लिए बुलाया गया। में दिन-रात तैयारी करती रही। साक्षात्कार के लिए जाते समय मेरी टाँगे काँप रही थी। गला खश्क-सा हो रहा था। फिर भी स्वयं को संयत करते हुए मैंने हर प्रश्न का उत्तर सहजता से दे दिया था।
फिर शुरू हुआ इंतजार, और पाँच महीने बीत गये। फिर एक दिन एयरलाइन की चिट्ठी आ ही पहुँची कि मेरी नियुक्ति हो गयी है। दिनकर और मीनू बहुत प्रसन्न थे। उनकी दीदी एयर-होस्टेस बनने वाली थी। उन्होंने तो पहले से ही अपनी फरमाइशों की सूची मुझे बना दी थी। मेरे पाँव धरती पर नहीं पड़ रहे थे। मेरा सपना मेरे कितने समीप था! सपना सच हो रहा था।
"पिताजी, मेरा नियुक्ति-पत्र आ गया है। मुझे दस दिन में बंबई पहुँचना है। अब तो तैयारी करनी होगी।'
"हाँ, बेटा। मैं भी यही सोच रहा हूँ। तुम्हारे लिए नये कपड़े लेने होंगे। और हमारी बेटी चेयर-कार से जायेगी। तुम घबराओ नहीं, बेटा, मैं सब प्रबंध कर लूँगा।'
पिताजी ने प्रबंध कर ही लिया। बतलाया तक नहीं, कहाँ से कर्ज लिया। मैं तो वह कर्ज भी नहीं उतार पाया।
बंबई में मामी के व्यवहार ने एक सप्ताह में ही बता दिया कि मुझे रहने के लिए हॉस्टल ढूँढ़ना पड़ेगा। नीलम ने मेरी कितनी सहायता की उन दिनों! रिश्तेदारों के सारे उत्तरदायित्व उसने अपने ऊपर ले लिये थे। मुझे पैसे ही कितने मिलते थे ट्रेनिंग में! उस पर बंबई जैसे महानगर में होस्टल में रहना। हर परेशानी का एक ही हल था...नीलम।
"विनू! तुम्हारे लिए लंदन से यह लिपस्टिक और नेल-पॉलिश लायी हूँ। हाँ, यह ड्रेस भी तुम्हारी ही है।'
"नीलू, इतनी अच्छी न बनो कि मैं अपने-आपको छोटी महसूस करने लगूँ।'
"बकवास नहीं करते। मैं कोई एहसान नहीं करती तुम पर!'
"नीलू! क्या मैं भी कभी लंदन जाऊँगी? मेरे जीवन का सबसे बड़ा सपना भी सच होगा?'
"अब तो ट्रेनिंग पूरी होने को है तुम्हारी। बस, अगले ही महीने तुम्हारी फ्लाइंग शुरू हो जायेगी। लंदन जाने लगो, तो हमें भूल नहीं जाना।'
"मैं तुम्हें कैसे भूल सकती हूं नीलू? मेरी तो यादों का स्त्रोत तुम ही हो। दिल्ली में भी सदा तुम्हारे ही बारे में सोचूँगी।'
गाड़ी फिर रुक गयी है। बाहर स्टेशन नहीं दीख रहा। ऍंधेरा कुछ अधिक ही है-बाहर भी और भीतर भी। कुछ भी सुझायी नहीं दे रहा। राजू, नीलम, पिताली, माँ, बांद्रा, चाँदनी चौक, दिल्ली, बंबई-सब एक फिल्म-से बन गये हैं। गाड़ी के ऍंधेरे में यह फिल्म सुचारु रूप से जारी है। ऍंधेरे में भी वह लड़का मुझे बिल्लीनुमा ऑंखों से घूर रह है। बिलकुल झपटने को तैयार है अपने शिकार पर।
एयरलाइन में ऐसी बहुत-सी ऑंखों से मैं परिचित हूँ...जो कि मौका मिलने ही अपने शिकार को शिकंजे में जकड़ लेती हैं। मैं भी उनके लिए एक नया बकरा ही थी। कोई मेरी ऑंखों की प्रशंसा करता, तो कोई किसी-न-किसी बहाने छूने की चेष्टा करता। मैं सोचती, कितना कृत्रिम है यहाँ का वातावरण! किसी में कहीं भी सहजता नहीं। बनावट-ही-बनावट है।
इतनी ठसाठस भरी हुई गाड़ी में अकेलापन मुझे बुरी तरह से कचोट रहा है। कभी भीड़ से भरी बंबई नगरी में भी अकेलापन मुझे यूँ ही जकड़ लेता था।
मुझे ट्रेनी फ्लाइट्स करते तीन महीने हो चुके थे। मेरी चेक होस्टेस ने मुझे सोलो दे दी थी यानी कि अब मैं स्वतंत्र रूप से अयर-होस्टेस हो गयी थी। मेरा दिल खुशी से झूम उठा था। पहली ही सोलो पर मुझे रोम, लंदन और फ्रैंकफर्ट जाना था। एक ही फ्लाइट में पूरा यूरोप। नीलू मुस्करा रही थी मेरी प्रसन्नता पर। कभी वह भी ऐसे ही हालात से गुजर चुकी थी।
मैं बहुत नर्वस थी। अपना अटैचीकेस मैं नीलू की सहायता से तैयार कर रही थी। नीलू भी तो हद कर देती है!
"वीनू! तुम तो ऐसे घबरा रही हो, जैसे डोली में ही बैठने वाली हो।'
"नहीं, यार! पहली बार विदेश में अकेले रहूंगी न, इसी को लेकर परेशान हूं। हमारे साथ के लड़के कैसा व्यवहार करेंगे, यही सोच रही हूँ।'
"देखो! परेशान होने की कोई बात नहीं। किसी को जरूरत से ज्यादा लिफ्ट देने की जरूरत नहीं। तुम्हें ठंडे और शालीन बने रहना है। कोई भी तुम्हें कुछ नहीं कह सकेगा। अपने-आपको समेटे रखो और किसी से भी अधिक खुलो नहीं।'
हम दोनों बातें करती-करती रात को बहुत देर से सोयी थीं। अगली सुबह ड्राइवर एयरलाइन की गाड़ी लेकर हमारे हॉस्टल आ गया। उसने मेरे बारे में पूछा, और मुझे एक चिट्ठी देकर बोला, 'मेम साहब, आपके लिए मैसेज है।' मेरे माथे पर पसीना आ गया। यह क्या नयी चीज़ है, मैं सोच रही थी। नीलू ने मेरी हिम्मत बढ़ायी और पत्र खोला...
गाड़ी किसी नदी के पुल से गुजर रही है। धड़-धड़ का शोर बढ़ता ही जा रहा है। वह लड़का मुझसे बात करने का दो बार असफल प्रयत्न कर चुका है। शोर और बढ़ता जा रहा है।
कुछ इसी तरह का शोर मुझे वह पत्र पढ़कर महसूस हुआ था। कुछ इसी तरह का पीला ऍंधेरा उस समय भी था। कितने व्यावसायिक ठंडेपन से लिखा गया था:
"एयरलाइन में होस्टेसों का चयन आवश्यकता से अधिक हो गया है। इसीलिए आपको एयरलाइन की सेवा से मुक्त किया जाता है। तीन महीने के वेतन का चेक संलग्न है।'
मेरे सभी सपने आकाश से गिरकर पाताल में धँस गये थे। क्या यह चेक मेरे परिवार के सपनों को पूरा कर सकता है?
हर व्यक्ति हमें अपने ढंग से दिलासा देता। मुझ जैसी और भी कई थीं। परायी सांत्वना हमारे हृदय को छील देती। केवल नीलू के कंधों पर सिर रखकर रो लेती। उसी समय हम यूनियन के कार्यालय पहुँचे। वहाँ आपात्कालीन स्थिति दिखायी दे रही थी। यूनियन ने कितना शोर किया था, पर ऊपर बैठे लोग बहुत ऊपर बैठे थे। उन्हें वह शोर सुनायी ही नहीं दिया।
राजू तो मेरी नौकरी छूटते ही पराया-सा हो गया। मुझे दिलासा देने तक नहीं आया। वाह रे प्यार! पिताजी ने बहुत धैर्य-भरा पत्र लिखा था, 'तू चली आ, वीनू बेटे! मैं सब सँभाल लूँगा। अपने दिल को कुछ मत लगाना। बस, चली ही आ।'
और मैं जा रही हूँ वापस। अपने परिवार के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने के सपने की लाश को ढोये। सामने बैठा लड़का उसी चिता में से कुछ बची हुई चिनगारियाँ ढूँढ़ रहा है। उसे क्या मालूम, इस गाड़ी में एक लुटा हुआ काफिला वापस जा रहा है। उसके लुटने के लिए कुछ भी नहीं बचा है।

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