संध्या की इस मलिन सेज पर
गंगे ! किस विषाद के संग,
सिसक-सिसक कर सुला रही तू
अपने मन की मृदुल उमंग?
- उमड़ रही आकुल अन्तर में
- कैसी यह वेदना अथाह ?
- किस पीड़ा के गहन भार से
- निश्चल-सा पड़ गया प्रवाह?
- उमड़ रही आकुल अन्तर में
मानस के इस मौन मुकुल में
सजनि ! कौन-सी व्यथा अपार
बनकर गन्ध अनिल में मिल
जाने को खोज रही लघु द्वार?
- चल अतीत की रंगभूमि में
- स्मृति-पंखों पर चढ़ अनजान,
- विकल-चित सुनती तू अपने
- चन्द्रगुप्त का क्या जय-गान?
- चल अतीत की रंगभूमि में
घूम रहा पलकों के भीतर
स्वप्नों-सा गत विभव विराट?
आता है क्या याद मगध का
सुरसरि! वह अशोक सम्राट?
- सन्यासिनी-समान विजन में
- कर-कर गत विभूति का ध्यान,
- व्यथित कंठ से गाती हो क्या
- गुप्त-वंश का गरिमा-गान?
- सन्यासिनी-समान विजन में
गूंज रहे तेरे इस तट पर
गंगे ! गौतम के उपदेश,
ध्वनित हो रहे इन लहरों में
देवि ! अहिंसा के सन्देश।
- कुहुक-कुहुक मृदु गीत वही
- गाती कोयल डाली-डाली,
- वही स्वर्ण-संदेश नित्य
- बन आता ऊषा की लाली।
- कुहुक-कुहुक मृदु गीत वही
तुझे याद है चढ़े पदों पर
कितने जय-सुमनों के हार?
कितनी बार समुद्रगुप्त ने
धोई है तुझमें तलवार?
- तेरे तीरों पर दिग्विजयी
- नृप के कितने उड़े निशान?
- कितने चक्रवर्तियों ने हैं
- किये कूल पर अवभृत्थ-स्नान?
- तेरे तीरों पर दिग्विजयी
विजयी चन्द्रगुप्त के पद पर
सैल्यूकस की वह मनुहार,
तुझे याद है देवि ! मगध का
वह विराट उज्ज्वल शृंगार?
- जगती पर छाया करती थी
- कभी हमारी भुजा विशाल,
- बार-बार झुकते थे पद पर
- ग्रीक-यवन के उन्नत भाल।
- जगती पर छाया करती थी
उस अतीत गौरव की गाथा
छिपी इन्हीं उपकूलों में,
कीर्ति-सुरभि वह गमक रही
अब भी तेरे वन-फूलों में।
- नियति-नटी ने खेल-कूद में
- किया नष्ट सारा शृंगार,
- खँडहर की धूलों में सोया
- अपना स्वर्णोदय साकार।
- नियति-नटी ने खेल-कूद में
तू ने सुख-सुहाग देखा है,
उदय और फिर अस्त, सखी!
देख, आज निज युवराजों को
भिक्षाटन में व्यस्त सखी!
- एक-एक कर गिरे मुकुट,
- विकसित वन भस्मीभूत हुआ,
- तेरे सम्मुख महासिन्धु
- सूखा, सैकत उद्भूत हुआ।
- एक-एक कर गिरे मुकुट,
धधक उठा तेरे मरघट में
जिस दिन सोने का संसार,
एक-एक कर लगा धहकने
मगध-सुन्दरी का शृंगार,
- जिस दिन जली चिता गौरव की,
- जय-भेरी जब मूक हुई,
- जमकर पत्थर हुई न क्यों,
- यदि टूट नहीं दो-टूक हुई?
- जिस दिन जली चिता गौरव की,
छिपे-छिपे बज रही मंद्र ध्वनि
मिट्टी में नक्कारों की,
गूँज रही झन-झन धूलों में
मौर्यों की तलवारों की।
- दायें पार्श्व पड़ा सोता
- मिट्टी में मगध शक्तिशाली,
- वीर लिच्छवी की विधवा
- बायें रोती है वैशाली।
- दायें पार्श्व पड़ा सोता
तू निज मानस-ग्रंथ खोल
दोनों की गरिमा गाती है,
वीचि-दृर्गों से हेर-हेर
सिर धुन-धुन कर रह जाती है।
- देवी ! दुखद है वर्त्तमान की
- यह असीम पीड़ा सहना।
- नहीं सुखद संस्मृति में भी
- उज्ज्वल अतीत की रत रहना।
- देवी ! दुखद है वर्त्तमान की
अस्तु, आज गोधूलि-लग्न में
गंगे ! मन्द-मन्द बहना;
गाँवों, नगरों के समीप चल
कलकल स्वर से यह कहना,
- "खँडहर में सोई लक्ष्मी का
- फिर कब रूप सजाओगे?
- भग्न देव-मन्दिर में कब
- पूजा का शंख बजाओगे?"
- रामधारी सिंह "दिनकर"
- "खँडहर में सोई लक्ष्मी का
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