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रविवार, 10 अप्रैल 2011

कवि / रेणुका

नवल उर में भर विपुल उमंग,
विहँस कल्पना-कुमारी-संग,
मधुरिमा से कर निज शृंगार,
स्वर्ग के आँगन में सुकुमार !

मनाते नित उत्सव-आनन्द,
कौन तुम पुलकित राजकुमार !


फैलता वन-वन आज वसन्त,
सुरभि से भरता अखिल दिगन्त,
प्रकृति आकुल यौवन के भार,
सिहर उठता रह-रह संसार।

पुलक से खिल-खिल उठते प्राण !
बनो कवि ! फूलों की मुस्कान ।


सरित सम पर देती है ताल,
चन्द्र बुनता किरणों का जाल ।
सरल शिशु-सा सोता है विश्व,
ओढ़ सपनों का वसन विशाल ।

निशा का परम मधुर यह हास ।
बनो कवि ! रत्न-खचित आकाश ।


विरह से व्याकुल, तप्त शरीर,
नयन से झरता झर-झर नीर,
जलन से झुलस रहे सब गात,
जुड़ी है आँखों की बरसात,

सिसक-संयुक्त अति करुण उसाँस ।
बनो कवि ! सावन-भादो मास ।


न उपवन का वह विभव-विलास,
न कलियों का मृदु गंधोच्छ्वास,
लता, तरुओं की शुष्क कतार,
यही है उपवन के शॄंगार ।

काल का अति निर्मम आघात ।
बनो कवि ! तरु का मर्मर-पात ।


मधुर यौवन-स्वप्नों में भूल
और फँस वैभव के छवि-जाल
वासना-आसव का कर पान
मनुजता हुई बहुत बेहाल ।

अचिर अन्तहित हों सब क्लेश ।
लिखो कवि ! अमर स्वर्ण-संदेश ।


न खिलता उपवन में सुकुमार
सुमन कोई अक्षय छविमान,
क्षणिक निशि का हीरक-शृंगार,
उषा की क्षणभंगुर मुसकान ।

क्षणिक चंचल जीवन नादान ।
हँसो कवि ! गाकर ऐसे गान ।

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