समस्त रचनाकारों को मेरा शत शत नमन .....

मंगलवार, 15 मार्च 2011

लो चली मैं अपने देवर की बारात ले के

लो चली मैं अपनी देवर की बारात ले के लो चली मैं
न बैण्ड बजा, न ही बाराती, खुशियों की सौगात ले के
लो चली मैं

देवर दुल्हा बना, सर पे सेहरा सजा
भाभी बढ़कर आज बलाइयाँ लेती है
प्रेम की कलियाँ खिले, पल पल खुशियाँ मिले
सच्चे मन से आज दुआएँ देती है
घोड़े पे चढ़ के, चला है बाँका, अपनी दुल्हन से मिलने
लो चली मैं

वाह! वाह! राम जी, जोड़ी क्या बनाई
देवर देवरानीजी, बधाई हो बधाई
सब रसमों से बड़ी है जग में दिल से दिल की सगाई

आज है शुभ घड़ी, आज बनी मैं बड़ी
कल तक घर की बहु थी, अब हूँ जेठानी
हुक़ुम चलाऊँगी मैं, आँख दिखाऊँगी मैं
सहमी खड़ी रहेगी मेरी देवरानी
हज़ार सपने, पलकों में अपने दीवानी मैं साथ ले के
लो चली मैं .

रचनाकार: रविंदर रावल


आज हमारे दिल में अजब ये उलझन है

आज हमारे दिल में अजब ये उलझन है
गाने बैठे गाना, सामने समधन है
हम कुछ आज सुनायें, ये उनका भी मन है
गाने बैठे गाना, सामने समधन है

कानो की बालियाँ, चाँद सूरज लगे
ये बनारस की साड़ी खूब सजे
राज़ की बात बतायें, समधीजी घायल हैं
आज भी जब समधन की, खनकती पायल है

होंठों की ये हँसी, आँखों की ये हया
इतनी मासूम तो, होती है बस दुआ
राज़ की बात बतायें समधी खुश क़िसमत है.ब
लक्ष्मी है समधन जी, जिनसे घर जन्नत है

आज हमारे दिल में अजब ये उलझन है
सामने समधीजी, गा रही समधन है
हमको जो है निभाना, वो नाज़ुक बन्धन है
सामने समधीजी, गा रही समधन है

मेरी छाया है जो, आपके घर चली
सपना बन के मेरी, पलकों में है पली
राज़ की बात बतायें, ये पूँजी जीवन की
शोभा आज से है ये, आपके आँगन की

रचनाकार: रविंदर रावल

वाह वाह राम जी

वाह वाह राम जी, जोड़ी क्या बनाई
भैय्या और भाभी को, बधाई हो बधाई
सब रसमों से बड़ी है जग में
दिल से दिल की सगाई

आपकी कृपा से ये, शुभ घड़ी आई
जीजी और जीजा को, बधाई हो बधाई
सब रसमों से बड़ी है जग में
दिल से दिल की सगाई

वाह वाह राम जी

मेरे भैय्या जो, चुप बैठे हैं
देखो भाभी ये, कैसे ऐंठे हैं
ऐसे बड़े ही भले हैं
माना थोड़े मन्चले हैं
पार आप के सिवा कहीं भी न फिसले हैं

देखो देखो ख़ुद पे, जीजी इतराई
भैय्या और भाभी को, बधाई हो बधाई
सब रसमों से बड़ी है

वाह वाह राम जी

सुनो जीजाजी, अजी आप के लिये
मेरी जीजी ने, बड़े तप हैं किये
मन्दिरों में किये फेरे
पूजा साँझ सवेरे
तीन लोक तैंतीस देवों के ये रही घेरे

जैसे मैं ने माँगी थी, वैसी भाभी पाई
जीजी और जीजा को, बधाई हो बधाई
सब रसमों से बड़ी है

वाह वाह राम जी
रचनाकार: रविंदर रावल

दीदी तेरा देवर दिवाना

ला ला ...
दीदी तेरा देवर दिवाना
दीदी तेरा देवर दिवाना
हाय राम कुड़ियों को डाले दाना
हाय राम कुड़ियों को डाले दाना

(धंधा है ये उसका पुराना)\- २
हाय राम कुड़ियों को डाले दाना
हाय राम कुड़ियों को डाले दाना

ल ल्ला ...

मैं बोली के लाना यू इमली का दाना
मगर वो छुहारे ले आया दिवाना
मैं बोली मचले है दिल मेरा हाय
वो खरबुजा लाया जो नीम्बू मँगाये
(पगला है कोई उसको बताना) \- २
हाय राम कुड़ियों को डाले दाना

हाय राम कुड़ियों को डाले दाना

ओय होए होए
दीदी तेरा देवर दिवाना
हाय राम कुड़ियों को डाले दाना

मैं बोली कि लाना तू मिट्टी का हाँड़ी
मगर वो बताशे ले आया अनाड़ी
मैं बोली के लादे मुझे तू खटाई
वो बाज़ार से लेके आया मिठाई
हूँ मुश्किल है यूं मुझको फँसाना \- २
हाय राम कुड़ियों को डाले दाना
हाय राम कुड़ियों को डाले दाना

उई माँ
दीदी तेरा देवर दिवाना
हाय राम कुड़ियों को डाले दाना

होए होए होए हाय रे हाय होए होए होए हाय रे हाय


भाभी तेरी बहना को माना \-२
हाय राम कुड़ियों का है ज़माना \- २

रब्बा मेरे मुझको बचाना \- २
हाय राम कुड़ियों का है ज़माना \- २

रप्पापपा तुरूरूरू रू रू \-२

हुकूम अपका था जो मैने ना माना
खतावार हूँ मैं न आया निभाना
सज़ा जो भी दोगे वो मँज़ूर होगी
अजी मेरी मुश्किल कभी दूर होगी
बन्दा है ये खुद से बेगाना \- २
हाय राम कुड़ियों का है ज़माना
हाय राम कुड़ियों का है ज़माना \- ५

रचनाकार: देव कोहली


जूते दे दो पैसे ले लो

दूल्हे की सालियों ओ हरे दुपट्टे वालियों \- २
जूते दे दो पैसे लेलो
को: जूते दे दो पैसे ले लो

दुल्हन के देवर तुम दिखलाओ ना ये तेवर \- २
पैसे देदो जूते लेलो
को: पैसे दे दो जूते ले लो

हे हे हे हे

अजी नोट गिनो जी, जूते लाओ
जिद छोड़ो जी, जूते लाओ
फ्रॉड हैं क्या हम, तुम ही जानो
अकड़ू हो तुम, जो भी मानो
को: जो भी मानो, जो भी मानो
अजी बात बढ़ेगी, बढ़ जाने दो
माँग चढ़ेगी, चढ़ जाने दो
पड़ो ना ऐसे, पहले जूते
को: पहले जूते पहले जूते
जूते लिये हैं नहीं चुराया कोई जेवर
दुल्हन के देवर तुम दिखलाओ ना ये तेवर
पैसे दे दो जूते ले लो
जूते दे दो पैसे ले लो \- २

कुछ ठँडा पी लो, मूड नहीं है
दही बड़े लो, मूड नहीं है
कुल्फ़ी खा लो, बहुत खा चुके
पान खा लो, बहुत खा चुके
को: बहुत खा चुके बहुत खा चुके
अजी रसमलाई, आपके लिये
इतनी मिठाई, आपके लिये
पहले जूते, खाएँगे क्या
आपकी मर्जी, नाजी तौबा
को: नाजी तौबा नाजी तौबा
किसी बेतुके शायर की बेसुरी क़व्वालियों
दूल्हे की सालियों ओ हरे दुपट्टे वालियों
जूते दे दो पैसे ले लो \- २

हे हे हे हे
जूते दे दो पैसे ले लो \- ४
रचनाकार: रविंदर रावल

साजन जी घर आये

कब से आए हैं तेरे दूल्हे राजा
अब देर न कर जल्दी आजा

तेरे घर आया मैं आया तुझको लेने
दिल के बदले में दिल का नज़राना देने
मेरी हर धड़कन क्या बोले है सुन सुन सुन
साजन जी घर आए साजन जी घर आए
दुल्हन क्यूं शरमाए साजन जी घर आए

ऐ दिल चलेगा अब ना कोई बहाना
गोरी को होगा अब साजन के घर जाना
माथे की बिंदिया क्या बोले है सुन सुन सुन
साजन जी घर आए ...

दीवाने की चाल में फंस गई मैं इस जाल में
ऐ सखियों कैसे बोलो बोलो
मुझपे तो ऐ दिलरुबा तेरी सखियां भी फ़िदा
ये बोलेंगी क्या पूछो पूछो
जा रे जा झूठे तारीफ़ें क्यूं लूटे
तेरा मस्ताना क्या बोले है सुन सुन सुन
साजन जी घर आए ...

ना समझे नादान है ये मेरा एहसान है
चाहा जो इसको कह दो कह दो
छेड़ो मुझको जान के बदले में एहसान के
दे दिया दिल इसको कह दो कह दो
तू ये ना जाने दिल टूटे भी दीवाने
तेरा दीवाना क्या बोले है सुन सुन सुन
साजन जी घर आए ...

मेंहदी लाके गहने पाके
हाय रो के तू सबको रुला के
सवेरे चली जाएगी तू बड़ा याद आएगी
तू जाएगी तू बड़ा याद आएगी
तेरे घर आया ...

रचनाकार: समीर

मेरी प्यारी बहनिया बनेगी दुल्हनिया

मेरी प्यारी बहनिया बनेगी दुल्हनिया
सजके आएँगे दूल्हे राजा
भैया राजा बजाएगा बाजा

अपने पसीने को मोती कर दूँगा
मोतियों से बहना की माँग भर दूँगा
आएगी बारात देखेगी सारी दुनिया
होंगे लाखों में एक दूल्हे राजा
भैया राजा ...

सोलह सिंगार मेरी बहिना करेगी
टीका चढ़ेगा और हलदी लगेगी
बहना के होंठों पे झूलेगी नथनिया
और झूमेंगे दूल्हे राजा
भैया राजा ...

सेज पे बैठेगी वो डोली पे चढ़ेगी
धरती पे बहना रानी पाँव न धरेगी
पलकों की पालकी में बहना को बिठा के
ले जाएँगे दूल्हे राजा
भैया राजा ...

सजना के घर चली जाएगी जो बहना
होंठ हँसेंगे मेरे रोएँगे ये नैना
रखिया के रोज़ रानी बहना को बुलाऊँगा
ले के आएँगे दूल्हे राजा
भैया राजा ...
रचनाकार: इंदीवर

बाबुल की दुआएं लेती जा

बाबुल की दुआएं लेती जा
जा तुझको सुखी संसार मिले
मैके की कभी ना याद आए
ससुराल में इतना प्यार मिले
बाबुल की दुआएं ...

नाज़ों से तुझे पाला मैंने
कलियों की तरह फूलों की तरह
बचपन में झुलाया है तुझको
बाँहों ने मेरी झूलों की तरह
मेरे बाग़ की ऐ नाज़ुक डाली
तुझे हर पल नई बहार मिले
बाबुल की दुआएं ...

जिस घर से बँधे हैं भाग तेरे
उस घर में सदा तेरा राज रहे
होंठों पे हँसी की धूप खिले
माथे पे ख़ुशी का ताज रहे
कभी जिसकी जोत न हो फीकी
तुझे ऐसा रूप-सिंगार मिले
बाबुल की दुआएं ...

बीतें तेरे जीवन की घड़ियाँ
आराम की ठंडी छाँवों में
काँटा भी न चुभने पाए कभी
मेरी लाड़ली तेरे पाँवों में
उस द्वार से भी दुख दूर रहें
जिस द्वार से तेरा द्वार मिले
बाबुल की दुआएं ...

रचनाकार: साहिर लुधियानवी


ढोलक में ताल है पायल में छन छन

ढोलक में ताल है, पायल में छन छन
घूंघट में गोरी है, सेहरे में साजन
जहाँ भी ये जाएँ, बहारें ही छाएँ
ये खुशियाँ ही पाएँ, मेरे दिल ने दुआ दी है
मेरे यार की शादी है...

प्यार मिला प्रीत मिली, मेरे यार को
बड़ी प्यारी जीत मिली, मेरे यार को
खुश है जो दिल, मैंने महफ़िल, गीतों से सजा दी है
मेरे यार की शादी ...

हार नहीं जीत नहीं जहाँ प्यार है
जिसमें हार जीत हो वो कहाँ प्यार है
लग जा गले, यार मेरे, मैंने दिल से सदा दी है
मेरे यार की शादी ...

साथी, सखियां, बचपन का ये अंगना
गुड़िया, झूले, कोई भी तो होगा संग ना
छुपाऊँगी आँसू कैसे, भीगेंगे कंगना

साथी सुन ले, बोले जो ये अंगना
ये मन, जीवन, प्यार के ही, रंग में रंगना
हँस देगी तेरी चूड़ी, खनकेंगे कंगना
साथी सुन ले रे
मेरे यार की शादी ...
रचनाकार: जावेद अख़्तर

घोड़ी पे होके सवार चला है दूल्हा यार

घोड़ी पे हो के सवार चला है दूल्हा यार
कमरिया में बाँधे तलवार
अकड़ता है छैला मिली है ऐसी लैला
कि जोड़ी है नहले पे दहला
घोड़ी पे हो के ...

कल तक बेचारा हम सा कँवारा
फिरता था गली-गली मारा-मारा
देखी एक छोकरी फूलों की टोकरी
बोला दिल थाम के मैं हारा-हारा
यार को मुबारक हो मुहब्बत की बाज़ी
मियाँ बीवी राज़ी तो क्या करेगा काज़ी
सदा फूले-फले दोनों का प्यार
घोड़ी पे हो के ...

दुल्हन की धुन है कैसा मगन है
होगा मिलन देखो अभी-अभी
शादी की मस्ती लगती है सस्ती
पड़ती है महँगी भी कभी-कभी
ये बात मत भूलना प्यार की बहारें
नन्हें-मुन्नों की लगा देंगी क़तारें
तब उतरेगा जा के ख़ुमार
घोड़ी पे हो के ...

रचनाकार: राजिन्द्र कृष्ण

चले हैं बाराती बन ठन के

चलें हैं बाराती बन ठन के
खुशियों से घुंघरू भी खनके
लेके जायेंगे दुल्हन, पूरा करेंगे वचन
डर डर के नहीं रे, तन तन के

अरे देखो देखो यार मेरा दूल्हा बना है
सर पे उमंगों का सेहरा बंधा है
मस्तियों का जाने कैसा जादू चला है
बिन पिए देखो नशा चढ़ने लगा है
होके घोड़ी पे सवार, बड़ा जचता है यार
सब नाचते हैं यार, बचपन के
चलें हैं बाराती बन ठन के...

बड़े ही जिगरवाले यार के बाराती
जो भी हैं कंवारे वही ढूँढ लेंगे साथी
लड़की की सारी ही सहेलियां हैं प्यारी
उन में से चुन लेना तुम बारी बारी
यही गाये शहनाई, खूब जोड़ी ये बनाई
उस रब ने गुलाब, चुन चुन के
चले हैं बाराती बन ठन के...

जिगरवाला

छोटे छोटे भाइयों

छोटे छोटे भाइयों के बड़े भैया, आज बनेंगे किसी के सैंया
ढोल नगाड़े बजे शहनाइयां, झूम के आईं मंगल घड़ियां
छोटे छोटे भाइयों ...

भाभी के संग होली में, रंग गुलाल उड़ाएंगे
आएगी जब जब दीवाली, मिलकर दीप जलाएंगे
चुनरी की कर देगी छैया, आएगी बन के पुरवइया
छोटे छोटे भाइयों ...

झिलमिल हो गई हैं अखियाँ, याद आईं बचपन की घड़ियां
नए सफ़र में लग जाएंगी, प्यार की इनको हथकड़ियां
जचते हैं देखो कैसे बड़े भैया, राम जी ब्याहने चले सीता मैया
छोटे छोटे भाइयों ...
रचनाकार: देव कोहली

बाबुल जो तुमने सिखाया

बाबुल जो तुमने सिखाया, जो तुमसे पाया
सजन घर ले चली, सजन घर मैं चली

यादों के लेकर साये, चली घर पराये, तुम्हारी लाड़ली
कैसे भूल पाऊँगी मैं बाबा, सुनी जो तुमसे कहानियाँ
छोड़ चली आँगन में मइया, बचपन की निशानियाँ
सुन मेरी प्यारी बहना, सजाये रहना, ये बाबुल की गली
सजन घर मैं चली ...

बन गया परदेस घर जन्म का, मिली है दुनिया मुझे नयी
नाम जो पिया से मैं ने जोड़ा, नये रिश्तों से बँध गयी
मेरे ससुर जी पिता हैं, पति देवता हैं, देवर छवि कृष्ण की
सजन घर मैं चली ...

रचनाकार: रविंद्र रावल
हम आपके हैं कौन

मेरी बन्नो की आएगी बारात

मेरी बन्नो की आएगी बारात, कि ढोल बजाओ जी
मेरी लाडो की आएगी बारात, कि ढोल बजाओ जी
आज नाचूंगी मैं सारी रात, कि ढोल बजाओ जी
मेरी बन्नो की आएगी बारात ...

सजना के घर तू जाएगी, याद हमें तेरी आएगी
जा के पिया के देस में ना, हमको भुलाना
आँख बाबुल तेरी क्यों भर आई
बेटीयाँ तो होती हैं पराई,
अब रहेगी ये सइयां जी के साथ, कि ढोल बजाओ जी,
मेरी बन्नो की आएगी बारात ...

गज़रा खिला है बालों पे, सुर्खी लगी है गालों पे
बिंदिया चमकती है माथे पे, नैनों में कज़रा
सज़ा है तन पे, गहना
लगे क्या खूब तू, बहना
खिली होठों पे, लाली
सजे कानों में, बाली
लगी मेंहदी दुल्हनिया के हाथ, कि ढोल बजाओ जी
मेरी बन्नो की आएगी बारात ...

ले लूँ बलाएं तेरी सभी, दे दूँ तुझे मैं अपनी खुशी
माँग दुआ मैं रब से यही, तू खुश रहे,
कोई चाहत रहे ना अधूरी
तेरी सारी तमन्ना हो पूरी
मैंने कहदी मेरे दिल की बात
मेरी बन्नो की आएगी बारात ..


आज मेरे यार की शादी है

अमीर से होती हैं, गरीब से होती हैं
दूर से होती हैं, क़रीब से होती हैं
मगर जहाँ भी होती हैं, ऐ मेरे दोस्त
शादियाँ तो नसीब से होती हैं

आज मेरे यार की शादी है
यार की शादी है, मेरे दिलदार की शादी है
लगता है जैसे सारे संसार की शादी है
आज मेरे यार की शादी है...

वक़्त है खूबसूरत, बड़ा शुभ लगन मुहूरत
देखो क्या खूब सजी है, दुल्हे की भोली सूरत
ख़ुशी से झूमे है मन, मिला सजनी को साजन
कैसे संजोग मिले हैं, चोली से बँध गया दामन
एक मासूम कली से मेरे गुलज़ार की शादी है
आज मेरे यार की शादी है...

ओ सुन मरे दिल जानी, तेरी भी ये जवानी
शुरु अब होने लगी है, नयी तेरी जिंदगानी
ख़ुशी से क्यों इतराए, आज तू हमें नचाये
वक़्त वो आने वाला, दुल्हनिया तुझे नचाये
किसी के सपनों के सोलह-सिंगार की शादी है
आज मेरे यार की शादी है...

सारे तारे तोड़ लाऊँ, तेरे सेहरे को सजाऊँ
फूल राहों में बिछाऊँ मैं प्यार के
आज लूँगा मै बलाएं, दूँगा दिल से दुआएं
डाल गले में ये बाँहें अब यार के
एक चमन से देखो आज बहार की शादी है

आज मेरे यार की शादी है...
आदमी सड़क का

जब तक पूरे न हो फेरे सात

जब तक पूरे न हों फेरे सात
तब तक दुल्हिन नहीं दुल्हा की
तब तक बबुनी नहीं बबुआ की

अबही तो बबुआ पहली भँवर पड़ी है
अभी तो पहुना दिल्ली दूर खड़ी है
पहली भँवर पड़ी है,दिल्ली दूर खड़ी है
करनी होगी तपस्या सारी रात
सात फेरे सात जन्मों का साथ...

जैसे जैसे भँवर पड़े मन अंगना को छोड़े
एक एक भाँवर नाता अन्जानों से जोड़े
घर अंगना को छोड़े, नाता अन्जानों से जोड़े
सुख की बदरी आंसू की बरसात
सात फेरे सात जन्मों का साथ...

सात फेरे धरो तब हाँ भरो सात वचन की
ऐसे कन्या कैसे अर्पण कर दे तन की मन की
उठो उठो बबुनी देखो ध्रुव तारा
ध्रुव तारे से हो अमर सुहाग तिहारा
देखो ध्रुव तारा, अमर सुहाग तिहारा
सातों फेरे सातों जन्मों का साथ...

रचनाकार: रविंद्र जैन
नदिया के पार

सोमवार, 14 मार्च 2011

देवी

बूढ़ों में जो एक तरह की बच्चों की-सी बेशर्मी आ जाती है वह इस वक्त भी तुलिया में न आई थी, यद्यपि उसके सिर के बाल चांदी हो गये थे। और गाल लटक कर दाढ़ों के नीचे आ गये थे। वह खुद भी निश्चित रूप से अपनी उम्र न बता सकती थी, लेकिन लोगों का अनुमान था कि वह सौ की सीमा को पार कर चुकी है। और अभी तक चलती तो अंचल से सिर दांककर, आंखें नीची किये हुए, मानो नवेली बहू है। थी तो चमारिन, पर क्या मजाल कि किसी घर का पकवान देखकर उसका जी ललचाया। गांव में ऊंची जातों के बहुत-से घर थे। तुलिया का सभी जगह आना-जाना था। सारा गांव उसकी इज्जत करता था और गृहिणियां तो उसे श्रद्धा की आंखों से देखती थीं। उसे आग्रह के साथ अपने घर बुलातीं, उसके सिर में तेल डालतीं, मांग में सेंदूर भरती, कोई अच्छी चीज पकाई होती, जैसे हलवा या खीर या पकौड़ियां, तो उसे खिलाना चाहतीं, लेकिन बुढ़िया को जीभ से सम्मान कहीं प्यारा था। कभी न खाती। उसके आगे-पीछे कोई न था। उसके टोले के लोग कुछ तो गांव छोड़कर भाग गये थे, कुछ प्लेग और मलेरिया की भेंट हो गये थे और अब थोड़े-से खंडहर मानो उनकी याद में नंगे सिर खड़े छाती-सी पीट रहे थे। केवल तुलिया की मंड़ैया ही जिन्दा बच रही थी, और यद्यपि तुलिया जीवन-यात्रा की उस सीमा के निकट पहुंच चुकी थी, जहा आदमी धर्म और समाज के सारे बन्धनों से मुक्त हो जाता हैं और अब श्रेष्ठ प्राणियों को भी उससे उसकी जात के कारण कोई भेद न था, सभी उसे अपने घर में आश्रय देने को तैयार थे, पर मान-प्रिय बुढ़िया क्यों किसी का एहसान ले, क्यों अपने मालिक की इज्जत में बट्टा लगाये, जिसकी उसने सौ बरस पहले केवल एक बार सूरत देखी थी। हां, केवल एक बार!

तुलिया की जब सगाई हुई तो वह केवल पांच साल की थी और उसका पति अठारह साल का बलिष्ठ युवक था। विवाह करके वह कमाने पूरब चला गया। सोचा, अभी इस लड़की के जवान होने में दस-बारह साल की देर है। इतने दिनों में क्यों न कुछ धन कमा लूं और फिर निश्चिन्त होकर खेती-बारी करूं। लेकिन तुलिया जवान भी हुई, बूढ़ी भी हो गई, वह लौटकर घर न आया। पचास साल तक उसके खत हर तीसरे महीने आते रहे। खत के साथ जवाब के लिए एक पता लिखा हुआ लिफाफा भी होता था और तीस रुपये का मनीआर्डर। खत में वह बराबर अपनी विवशता, पराधीनता और दुर्भाग्य का रोना रोता था—क्या करूं तूला, मन में तो बड़ी अभिलाषा है कि अपनी मंड़ैया को आबाद कर देता और तुम्हारे साथ सुख से रहता, पर सब कूछ नसीब के हाथ है, अपना कोई बस नहीं। जब भगवान लावेंगे तब आऊंगा। तुम धीरज रखना, मेरे जीते जी तुम्हें कोई कष्ट न होगा। तुम्हारी बांह पकड़ी है तो मरते दम तक निबाह करूंगा। जब आंखें बन्द हो जाएंगी तब क्या होगा, कौन जाने? प्राय: सभी पत्रों में थोड़े-से-फेर-फार के साथ यही शब्द और यही भाव होते थे। हां, जवानी के पत्रों में विरह की जो ज्वाला होती थी, उसकी जगह अब निराशा की राख ही रह गई थी। लेकिन तुलिया के लिए सभी पत्र एक-से प्यारे थे, मानो उसके हृदय के अंग हों। उसने एक खत भी कभी न फाड़ा था—ऐसे शगुन के पत्र कहीं फाड़े जाते हैं—उनका एक छोटा-सा पोथा जमा हो गया था। उनके कागज का रंग उड़ गया था, स्याही भी उड़ गई थी, लेकिन तुलिया के लिए वे अभी उतने ही सजीव, उतने ही सतृष्ण, उतने ही व्याकुल थे। सब के सब उसकी पेटारी में लाल डोरे से बंधे हुए, उसके दीर्घ जीवन से संचित सोहाग की भांति, रखे हुए थे। इन पत्रों को पाकर तुलिया गद्गद हो जाती। उसके पांव जमीन पर न पड़ते, उन्हें बार-बार पढ़वाती और बार-बार रोती। उस दिन वह अवश्य केशों में तेल डालती, सिन्दूर से मांग भरवाती, रंगीन साड़ी पहनती, अपनी पुरखिनों के चरन छूती और आशीर्वाद लेती। उसका सोहाग जाग उठता था। गांव की बिरहिनियों के लिए पत्र पत्र नहीं, जो पढ़कर फेंक दिया जाता है, अपने प्यारे परदेसी के प्राण हैं, देह से मूल्यवान। उनमें देह की कठोरता नहीं, कलुषता नहीं, आत्मा की आकुलता और अनुराग है। तुलिया पति के पत्रों ही को शायद पति समझती थी। पति का कोई दूसरा रूप उसने कहां देखा था?

रमणियां हंसी से पूछती—क्यों बुआ, तुम्हें फूफा की कुछ याद आती है—तुमने उनको देखा तो होगा? और तुलिया के झुरिंयों से भरे हुए मुखमण्डल पर यौवन चमक उठता, आंखों में लाली आ जाती। पुलककर कहती—याद क्यों नहीं आती बेटा, उनकी सूरत तो आज भी मेरी आंखें के समाने हैं बड़ी-बड़ी आंखें, लाल-लाल ऊंचा माथा, चौड़ी छाती, गठी हुई देह, ऐसा तो अब यहां कोई पट्ठा ही नहीं है। मोतियों के-से दांत थे बेटा। लाल-लाल कुरता पहने हुए थे। जब ब्याह हो गया तो मैंने उनसे कहा, मेरे लिए बहुत-से गहने बनवाओगे न, नहीं मैं तुम्हारे घर नहीं रहूंगी। लड़कपन था बेटा, सरम-लिहाज कुछ थोड़ा ही था। मेरी बात सुनकर वह बड़े जोर से ठट्ठा मारकर हंसे और मुझे अपने कंधे पर बैठाकर बोले—मैं तुझे गहनों से लाद दूंगा, तुलिया, कितने गहने पहनेगी। मैं परदेस कमाने जाता हूं, वहां से रुपये भेजूंगा, तू बहुत-से गहने बनवाना। जब वहां से आऊंगा तो अपने साथ भी सन्दूक-भर गहने लाऊंगा। मेरा डोला हुआ था बेटा, मां-बाप की ऐसी हैसियत कहां थी कि उन्हें बारात के साथ अपने घर बुलातें उन्हीं के घर मेरी उनसे सगाई हुई और एक ही दिन में मुझे वह कुछ ऐसे भाये कि जब वह चलने लगे तो मैं उनके गले लिपट कर रोती थी और कहती थी कि मुझे भी अपने साथ ले चलो, मैं तुम्हारा खाना पकाऊंगी, तुम्हारी खाट बिछाऊंगी, तुम्हारी धेती छांटूगी। वहां उन्हीं के उमर के दो-तीन लड़के और बैठे हुए थे। उन्हीं के सामने वह मुस्करा कर मेरे कान में बोले—और मेरे साथ सोयेगी नहीं? बस, मैं उनका गला छोड़कर अलग खड़ी हो गई और उनके ऊपर एक कंकड़ फेककर बोली—मुझे गाली दोगे तो कहे देती हूं, हां!

और यह जीवन-कथा नित्य के सुमिरन और जाप से जीवन-मन्त्र बन गयी थी। उस समय कोई उसका चेहरा देखता! खिला पड़ता था। घूंघट निकालकर भाव बताकर, मुंह फेरकर हंसती हुई, मानो उसके जीवन में दुख जैसी कोई चीज है ही नहीं। वह अपने जीवन की इस पुण्य स्मृति का वर्णन करती, अपने अन्तस्तल के इस प्रकाश को देर्शाती जो सौ बरसों से उसके जीवन-पथ को कांटों और गढ़ों से बचाता आता था। कैसी अनन्त अभिलाषा था, जिसे जीवन-सत्यों ने जरा भी धूमिल न कर पाया था।

2

वह दिन भी थे, जब तुलिया जवान थी, सुंदर थी और पतंगों को उसके रूप-दीपक पर मंछराने का नशा सवार था। उनके अनुराग और उन्माद तथा समर्पण की कथाएं जब वह कांपते हुए स्वरों और सजल नेत्रों से कहती तो शायद उन शहींदों की आत्माएं स्वर्ग में आनन्द से नाच उठती होंगी, क्योंकि जीते जी उन्हें जो कुछ न मिला वही अब तुलिया उन पर दानों हाथों से निछावर कर रही थी। उसकी उठती हुई जवानी थी। जिधर से निकल जाती युवक समाज कलेजे पर हाथ रखकर रह जाता। तब बंसीसिंह नाम का एक ठाकुर था, बड़ा छैला, बड़ा रसिया, गांव का सबसे मनचला जवान, जिसकी तान रात के सन्नाटे में कोस-भर से सुनायी पड़ती थी। दिन में सैकड़ों बार तुलिया के घर के चक्कर लगाता। तालाब के किनारे, खेत में, खलिहान में, कुंए पर, जहां वह जाती, परछाईं की तरह उसके पीछे लगा रहता। कभी दूध लेकर उसके घर आता, कभी घी लेकर। कहता, तुलिया, मैं तुझसे कुछ नहीं चाहता, बस जो कुछ मैं तुझे भेंट किया करूं, वह ले लिया कर। तू मुझसे नहीं बोलना चाहती मत बोल, मेरा मुंह नहीं देखना चाहती, मत देख लेकिन मेरे चढ़ावों को ठुकरा मत। बस, मैं इसी से सन्तुष्ठ हो जाऊंगा। तुलिया ऐसी भोली न थी, जानती थी यह उंगली पकड़ने की बातें हैं, लेकिन न जाने कैसे वह एक दिन उसके धोखे में आ गयी—नहीं, धोखे में नहीं आयी—उसकी जवानी पर उसे दया आ गयी। एक दिन वह पके हुए कलमी आमों की एक टोकरी लाया! तुलिया ने कभी कलमी आम न खाये थे। टोकरी उससे ले ली। फिर तो आये दिन आम की डलियां आने लगीं। एक दिन जब तुलिया टोकरी लेकर घर में जाने लगी तो बंसी ने धीरे से उसका हाथ पकड़कर अपने सीने पर रख लिया और चट उसके पैरों पर गिर पड़ा। फिर बोला—तुलिया, अगार अब भी तुझे मुझ पर दया नहीं आती तो आज मुझे मार डाल। तेरे हाथों से मर जाऊं, बस यही साध है।

तुलिया न टोकरी पटक दी, अपने पांव छुड़ाकर एक पग पीछे हट गयी ओर रोषभरी आंखों से ताकती हुई बोली—अच्छा ठाकुर, अब यहां से चले जाव, नहीं तो या तो तुम न रहूंगी। तुम्हारे आमों में आग लगे, और तुमको क्या कहूं! मेरा आदमी काले कोसों मेरे नाम पर बैठा हुआ है इसीलिए कि मैं यहां उसके साथ कपट करूं! वह मर्द है, चार पेसे कमाता है, क्या वह दूसरी न रख सकता था? क्या औरतों की संसार में कमी है? लेकिन वह मेरे नाम पर चाहे न हो। पढ़ोगे उसकी चिट्ठियां जो मेरे नाम भेजता है? आप चाहे जिस दशा में हो, मैं कौन यहां बेठी देखती हूं, लेकिन मेरे पास बराबर रुपये भेजता है। इसीलिए कि मैं यहां दूसरों से विहार करूं? जब तक मुझको अपनी और अपने को मेरा समझता रहेगा, तुलिया उसी की रहेगी, मन से भी, करम से भी। जब उससेमेरा ब्याह हुआ तब मैं पांच साल की अल्हड़ छोकरी थी। उसने मेरे साथ कौन-सा सुख उठाया? बांह पकड़ने की लाज ही तो निभा रहा है! जब वह मर्द होकर प्रीत निभाता है तो मैं औरत होकर उसके साथ दगा करूं!

यह कहकर वह भीतर गयी और पत्रों की पिटारी लाकर ठाकुर के सामने पटक दी। मगर ठाकुर की आंखों का तार बंधा हुआ था, ओठ बिचके जा रहे थे। ऐसा जान पड़ता था कि भूमि में धंसा जा रहा है।

एक क्षण के बाद उसने हाथ जोड़कर कहा—मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया तुलिया। मैंने तुझे पहचाना न था। अब इसकी यही सजा है कि इसी क्षण मुझे मार डाल। ऐसे पापी का उद्वार का यही एक मार्ग है।

तुलिया को उस पर दया नहीं आयी। वह समझती थी कि यह अभी तक शरारत किये जाता है। झल्लाकर बोली—मरने को जी चाहता है तो मर जाव। क्या संसार में कुए-तालाब नहीं, या तुम्हारे पास तलवार-कटार नहीं है। मैं किसी को क्यों मारूं?

ठाकुर ने हताश आंखों से देखा।

“तो यही तेरा हुक्म है?”

‘मेरा हुक्म क्यों होने लगा? मरने वाले किसी से हुक्म नहीं मांगते।’

ठाकुर चला गया और दूसरे दिन उसकी लाश नदी में तैरती हुई मिली। लोगों ने समझा तड़के नहाने आया होगा, पांव फिसल गया होगा। महीनों तक गांव में इसकी चर्चा रही, पर तुलिया ने जबान तक न खोली, उधर का आना-जाना बन्द कर दिया।

बंसीसिंह के मरते ही छोटे भाई ने जायदाद पर कब्जा कर लिया और उसकी स्त्री और बालक को सताने लगा। देवरानी ताने देती, देवर ऐब लगाता। आखिरं अनाथ विधवा एक दिन जिन्दगी से तंग आकर घर से निकल पड़ी। गांव में सोता पड़ गया था। तुलिया भोजन करके हाथ में लालटेन लिये गाय को रोटी खिलाने निकली थी। प्रकाश में उसने ठकुराइन को दबे पांव जाते देखा। सिसकती और अंचल से आंसु पोंछती जाती थी। तीन साल का बालक गोद में था।

तुलिया ने पूछा—इतनी रात गये कहां जाती हो ठकुराइन? सुनो, बात क्या है, तुम तो रो रही हो।

ठकुराइन घर से जा तो रही थी, पर उसे खुद न मालूम था कहां। तुलिया की ओर एक बार भीत नेत्रों से देखकर बिना कुछ जवाब दिये आगे बढ़ी। जवाब कैसे देती? गले में तो आंसू भरे हुए थे और इस समय न जाने क्यों और उमड़ आये थे।

तुलिया सामने आकर बोली—जब तक तुम बता न दोगी, मैं एक पग भी आगे न जाने दूंगी।

ठकुराइन खड़ी हो गयी और आंसू-भरी आंखों से क्रोध में भरकर बोली—तू क्या करेगी पूछकर? तुझसे मतलब?

‘मुझसे कोई मतलब ही नहीं? क्या मैं तुम्हारे गांव में नहीं रहती? गांव वाले एक-दूसरे के दुख-दर्द में साथ न देंगे तो कौन देगा?’

‘इस जमाने में कौन किसका साथ देता है तुलिया? जब अपने घरवालों ने ही साथ नहीं दिया और तेरे भैया के मरते ही मेरे खून के प्यासे हो गये, तो फिर मैं और किससे आशा रखूं? तुझसे मेरे घर का हाल कुछ छिपा है? वहां मेरे लिए अब जगह नहीं है। जिस देवर-देवरानी के लिए मैं प्राण देती थी, वही अब मेरे दुश्मन हैं। चाहते हैं कि यह एक रोटी खाय और अनाथों की तरह पड़ी रहे। मैं रखेली नहीं हूं उढ़री हूं, ब्याहता हूं, दस गांव के बीच में ब्याह के आयी हूं। अपनी रत्ती-भी जायदाद न छोडूंगी ओर अपना राधा लेकर रहूंगी।’

‘तेरे भैया’, ये दो शब्द तुलिया को इतने प्यारे लगे कि उसने ठकुराइन को गले लगा लिया ओर उसका हाथ पकड़कर बोली—तो बहिन, मेरे घर में चलकर रहो। और कोई साथ दे या न दे, तुलिया मरते दम तक तुम्हारा साथ देगी। मेरा घर तुम्हारे लायक नहीं है, लेकिन घर में और कुछ नहीं शान्ति तो है और मैं कितनी ही नीच हूं, तुम्हारी बहिन तो हूं।

ठकुराइन ने तुलिया के चेहरे पर अपनी विस्मय-भरी आंखें जमा दीं।

‘ऐसा न हो मेरे पीछे मेरा देवर तुम्हारा भी दुश्मन हो जाय।’

‘मैं दुश्मनों से नहीं डरती, नहीं इस टोले में अकेली न रहती।’

‘लेकिन मैं तो नहीं चाहती कि मेरे कारन तुझ पर आफत आवे।’

‘तो उनसे कहने ही कौन जाता है, और किसे मालूम होगा कि अन्दर तुम हो।’

ठकुराइन को ढाढ़स बंधा। सकुचाती हुई तुलिया के साथ अन्दर आयी। उसका हृदय भारी था। जो एक विशाल पक्के की स्वामिनी थी, आज इस झोपड़ी में पड़ी हुई है।

घर में एक ही खाट थी, ठकुराइन बच्चे के साथ उस पर सोती। तुलिया जमीन पर पड़ रहती। एक ही कम्बल था, ठकुराइन उसको ओढ़ती, तुलिया टाट का टुकड़ा ओढ़कर रात काटती। मेहमान का क्या सत्कार करे, कैसे रक्खे, यही सोचा करती। ठकुराइन के जुठे बरतन मांजना, कपड़े छांटना, उसके बच्चे को खिलाना ये सारे काम वह इतने उमंग से करती, मानो देवी की उपासना कर रही हो। ठकुराइन इस विपत्ति में भी ठकुराइन थी, गर्विणी, विलासप्रिय, कल्पनाहीन। इस तरह रहती थी मानो उसी का घर है और तुलिया पर इस तरह रोब जमाती थी मानो वह उसकी लौंडी है। लेकिन तुलिया अपने अभागे प्रेमी के साथ प्रीति की रीति का निबाह कर रही थी, उसका मन कभी न मैला होता, माथे पर कभी न बल पड़ता।

एक दिन ठकुराइन ने कहा—तुला, तुम बच्चे को देखती रहना, मैं दो-चार दिन के लिए जरा बाहर जाऊंगी। इस तरह तो यहां जिन्दगी-भर तुम्हारी रोटीयां तोड़ती रहूंगी, पर दिल की आग कैसे ठण्डी होगी? इस बेहया को इसकी जाल कहां कि उसकी भावज कहां चली गयी। वह तो दिल में खुश होगा कि अच्छा हुआ उसके मार्ग का कांटा हट गया। ज्यों ही पता चला कि मैं अपने मैके नहीं गयी, कहीं और पड़ी हूं, वह तुरन्त मुझे बदनाम कर देगा और तब सारा समाज उसी का साथ देगा। अब मुझे कुछ अपनी फिक्र करनी चाहिए।

तुलिया ने पूछा—कहां जाना चाहती हो बहिन? कोई हर्ज न हो तो मैं भी साथ चलूं। अकेली कहां जाओगी?

‘उस सांप को कुचलने के लिए कोई लाठी खोजूंगी।’

तुलिया इसका आशक न समझ सकी। उसके मुख की ओर ताकने लगी।

ठकुराइन ने निर्लज्ज्ता के साथ कहा—तू इतनी मोटी-सी बात भी नहीं समझी! साफ-साफ ही सुनना चाहती है? अनाथ स्त्री के पास अपनी रक्षा का अपने रूप के सिवा दूसरा कौन अस्त्र है? अब उसी अस्त्र से काम लूंगी। जानती है, इस रूप के क्या दाम होंगे? इस भेड़िये का सिर। इस परगने का हाकिम जो कोई भी हो उसी पर मेरा जादू चलेगा। और ऐसा कौन मर्द है जो किसी युवती के जादू से बच सके, चाहे वह ऋषि ही क्यों न हो। धर्म जाता है जाय, मुझ परवाह नहीं। मैं यह नहीं देख सकती कि मैं बन-बन की पत्तियां तोडूं और वह शोहदा मूंछों पर ताव देकर राज करे।

तुलिया को मालूम हुआ कि इस अभिमानिनी के हृदय पर किनी गहरी चोट हैं इस व्यथा को शान्त करने के लिए वह जान ही पर नहीं खेल रही है, धर्म पर खेल रही है जिसे वह प्राणों से भी प्रिय समझती है। बंसीसिंह की वह प्रार्थी मूर्ति उसकी आंखों के समाने आ खड़ी हुई। वह बलिष्ठ था, अपनी फौलादी शक्ति से वह बड़ी आसानी के साथ तुलिया पर बल प्रयोग कर सकता था, ओर उस रात के सन्नाटे में उस आनाथा की रक्षा करने वाला ही कौन बैठा हुआ था। पर उसकी सतीत्व-भरी भर्त्सना ने बंसीसिंह को किस तरह मोहित कर लिया, जैसे कोई काला भयंकर नाग महुअर का सुरीला राग सुनकर मस्त हो गया हो। उसी सच्चे सूरमा की कुली-मर्यादा आज संकट में है। क्या तुलिया उस मार्यादा को लुटने देगी और कुछ न करेगी? नहीं-नहीं! अगर बंसीसिंह ने उसके सत् को अपने प्राणों से प्रिय समझा तो वह भी उसकी आबरू को अपने धर्म से बचायेगी।

उसने ठकुराइन को तसल्ली देते हुए कहा—अभी तुम कहीं मत जाओ बहिन पहले मुझे अपनी शक्ति आजमा लेने दो। मेरी आबरू चली भी गयी तो कौन हंसेगा। तुम्हारी आबरू के पीछे तो एक कुल की आबरू है।

ठकुराइन ने मुस्कराकर उसको देखा। बोली—तू यह कला क्या जाने तुलिया?

‘कौन-सी कला?’

‘यही मर्दों को उल्लू बनाने की।’

‘मैं नारी हूं?’

‘लेकिन पुरुषों का चरित्र तो नहीं जानती?’

‘यह तो हम-तुम दोनों मां के पेट से सीखकर आयी हैं।’

‘कुछ बता तो क्या करेगी?’

‘वही जो तुम करने जा रही हो। तुम परगने के हाकिम पर अपना जादू डालना चाहती हो, मैं तुम्हारे देवर पर ज़ाला फेंकूगी।’

‘बड़ा घाघ है तुलिया।’

‘यही तो देखना है।’

3

तुलिया ने बाकी रात कार्यक्रम और उसका विधान सोचने में काटी। कुशल सुनापति की भांति उसने धावे और मार-काट की एक योजना-सी मन में बना ली। उसे अपनी विजय का विश्वास था। शुत्रु निश्शंक था, इस धावे की उसे जरा भी खबर न थी।

बंसीसिंह का छोटा भाई गिरधर कंधे पर छ: फीट का मोटा लट्ठ रखे अकड़ता चला आता था कि तुलिया ने पुकारा—ठाकुर, तनिक यह घास का गट्ठा उठाकर मेरे सिर पर रख दो। मुझसे नहीं उठता।

दोपहर हो गया था। मजदूर खेतों में लौटकर आ चुके थे। बगूले उठने लगे थे। तुलिया एक पेड़ के नीचे घास का गट्ठा रखे खड़ी थी। उसके माथे से पसीने की धार बह रही थी।

ठाकुन ने चौंककर तुलिया की ओर देखां उसी वक्त तुलिया का अंचल खिसक गया और नीचे की लाल चोली झलक पड़ी। उसने झट अंचल सम्हाल लिया, पर उतावली में जूड़े में गुंथी हुई फूलों की बेनी बिजली की तरह आंखें में कौंद गयी। गिरधर का मन चंचली हो उठा। आंखों में हल्का-सा नशा पैदा हुआ और चेहरे पर हल्की-सी सुर्खी और हल्की-सी मुस्कराहट। नस-नस में संगीत-सा गूंज उठा।

उसने तुलिया को हजारों बार देखा था, प्यासी आंखों, ललचायी आंखों से, मगर तुलिया अपने रूप और सत् के घमण्ड में उसकी तरह कभी आंखें तक न उठाती थी। उसकी मुद्रा और ढंग में कुछ ऐसी रुखाई, कुछ ऐसी निठुरता होती थी कि ठाकुर के सारे हौसले पस्त हो जाते थे, सारा शौक ठण्डा पड़ जाता था। आकाश में उड़ने वाले पंछी पर उसके जाल और दाने का क्या असर हो सकता था? मगर आज वह पंछी सामने वाली डाली पर आ बैठा था और ऐसा जान पड़ता था कि भूखा है। फिर वह क्यों न दाना और जाल लेकर दौड़े।

उसने मस्त होकर कहा—मैं पहुंचाये देता हूं तुलिया, तू क्यों सिर पर उठायेगी।

‘और कोई देख ले तो यही कहे कि ठाकुर को क्या हो गया है?’

‘मुझे कुत्तों के भूंकने की परवा नहीं है।’

‘लेकिन मुझे तो है।’

ठाकुर ने न माना। गट्ठा सिर पर उठा लिया और इस तरह आकाश में पांव रखता चला मानो तीनों लोक का खजाना लूटे लिये जाता है।

4

एक महिना गुजर गया। तुलिया ने ठाकुर पर मोहिनी डाल दी थी और अब उसे मछली की तरह खेला रही थी। कभी बंसी ढीली कर देती, कभी कड़ी। ठाकुर शिकार करने चला था, खुद जाल में फंस गया। अपना ईसान और धर्म और प्रतिष्ठा सब कुछ होम करके वह देवी का वरदान न पा सकता था। तुलिया आज भी उससे उनती ही दूर थी जितनी पहले।

एक दिन वह तुलिया से बोला—इस तरह कब तक जलायेगी तुलिया? चल कहीं भाग चलें।

तुलिया ने फंदे को और कसा—हां, और क्या। जब तुम मुंह फेर लो तो कहीं की न रहूं। दीन से भी जाऊं, दुनिया से भी!

ठाकुर ने शिकायत के स्वर में कहा—अब भी तुझे मुझ पर विश्वास नहीं आता?

‘भौंरे फूल का रस लेकर उड़ जाते हैं।’

‘और पतंगे जलकर राख नहीं हो जाते?’

‘पतियाऊं कैसे?’

‘मैंने तेरा कोई हुक्म टाला है?’

‘तुम समझते होगे कि तुलिया को एक रंगीन साड़ी और दो-एक छोटे-मोटे गहने देकर फंसा लूंगा। मैं ऐसी भोली नहीं हूं।’

तुलिया ने ठाकुर के दिल की बात भांप ली थी। ठाकुर हैरत में आकर उसका मुंह ताकने लगा।

तुलिया ने फिर कहा—आदमी अपना घर छोड़ता है तो पहले कहीं बैठने का ठिकाना कर लेता है।

ठाकुर प्रसन्न होकर बोला—तो तू चलकर मेरे घर में मालकिन बनकर रह। मैं तुझसे कितनी बार कह चुका।

तुलिया आंखें मटकाकर बोली—आज मालकिन बनकर रहूं कल लौंडी बनकर भी न रहने पाऊं, क्यों?

‘तो जिस तरह तेरा मन भरे वह कर। मैं तो तेरा गुलाम हूं।’

‘बचन देते हो?’

‘हां, देता हूं। एक बार नहीं, सौ बार, हजार बार।’

‘फिर तो न जाओगे?’

‘वचन देकर फिर जाना नामर्दों का काम है।’

‘तो अपनी आधी जमीन-जायदाद मेरे नाम लिख दो।’

ठाकुर अपने घर की एक कोठरी, दस-पांच बीघे खेत, गहने-कपड़े तो उसके चरणों पर चढ़ा देने को तैयार था, लेकिन आधी जायदाद उसके नाम लिख देने का साहस उसमें न था। कल को तुलिया उससे किसी बात पर नाराज हो जाय, तो उसे आधी जायदाद से हाथ धोना पड़े। ऐसी औरत का क्या एतबार! उसे गुमान तक न था कि तुलिया उसके प्रेम की इतनी कड़ी परीक्षा लेगी। उसे तुलिया पर क्रोध आया। यह चमार की बिटिया जरा सुन्दर क्या हो गयी है कि समझती है, मैं अप्सरा हूं। उसी मुहब्बत केवल उसके रूप का मोह थी। वह मुहब्बत, जो अपने को मिटा देती है और मिट जाना ही अपने जीवन की सफलता समझती है, उसमें न थी।

उसने माथे पर बल लाकर कहा—मैं न जानता था, तुझे मेरी जमीन-जायदा से प्रेम है तुलिया, मुझसे नहीं!

तुलिया ने छूटते ही जवाब दिया—तो क्या मैं न जानती थी कि तुम्हें मेरे रूप और जवानी ही से प्रेम है, मुझसे नहीं?

‘तू प्रेम को बाजार का सौदा समझती है?’

‘हां, समझती हूं। तुम्हारे लिए प्रेम चार दिन की चांदनी होगी, मेरे लिए तो अंधेरा पाख हो जायगा। मैं जब अपना सब कुछ तुम्हें दे रही हूं तो उसके बदले में सब कुछ लेना भी चाहती हूं। तुम्हें अगर मुझसे प्रेम होता तो तुम आधी क्या पूरी जायदाद मेरे नाम लिख देते। मैं जायदाद क्या सिर पर उठा ले जाऊंगी? लेकिन तुम्हारी नीयत मालू हो गयी। अच्छा ही हुआ। भगवान न करे कि ऐसा कोई समय आवे, लेकिन दिन किसी के बराबर नहीं जाते, अगर ऐसा कोई समय आया कि तुमको मेरे सामने हाथ पसारना पड़ा तो तुलिया दिखा देगी कि औरत का दिल कितना उदार हो सकता है।’

तुलिया झल्लायी हुई वहां से चली गयी, पर निराश न थी, न बेदिल। जो कुछ हुआ वह उसके सोचे हुए विधान का एक अंग था। इसके आगे क्या होने वाला है इसके बारे में भी उसे कोई सन्देह न था।

5

ठाकुर ने जायदाद तो बचा ली थी, पर बड़े मंहगे दामो। उसके दिल का इत्मीनान गायब हो गया था। जिन्दगी में जैसे कुछ रह ही न गया हो। जायदाद आंखों के समाने थी, तुलिया दिल के अन्दर। तुलिया जब रोज समाने आकर अपनी तिर्छी चितवनों से उसके हृदय में बाण चलाती थी, तब वह ठोस सत्य थी। अब जो तुलिया उसके हृदय में बैठी हुई थी, वह स्वप्न थी जो सत्य से कहीं ज्यादा मादक है, विदरक है।

कभी-कभी तुलिया स्वप्न की एक झलक-सी नजर आ जाती, और स्वप्न ही की भांति विलीन भी हो जाती। गिरधर उससे अपने दिल का दर्द कहने का अवसर ढूंढ़ता रहता लेकिन तुलिया उसके साये से भी परहेज करती। गिरधर को अब अनुभव हो रहा था कि उसके जीवन को सूखी बनाने के लिए उसकी जायदाद जितनी जरूरी है, उससे कहीं ज्यादा जरूरी तुलिया है। उसे अब अपनी कृपणता पर क्रोध आता। जायदाद क्या तुलिया के नाम रही, क्या उसके नाम। इस जरा-सी बात में क्या रक्खा है। तुलिया तो इसलिए अपने नाम लिखा रही थी कि कहीं मैं उसके साथ बेवफाई कर जाऊं तो वह अनाथ न हो जाय। जब मैं उसका बिना कौड़ी का गुलाम हूं तो बेवफाई कैसी? मैं उसके साथ बेवफाई करूंगा, जिसकी एक निगाह के लिए, एक शब्द के लिए तरसता रहता हूं। कहीं उससे एक बार एकान्त में भेंट हो जाती तो उससे कह देता—तूला, मेरे पास जो कुछ है, वह सब तुम्हारा है। कहो बखशिशनामा लिख हूं, कहो बयनामा लिख दूं। मुझसे जो अपराध हुआ उसके लिए नादिम हूं। जायदाद से मनुष्य को जो एक संस्कार-गत प्रेम है, उसी ने मेरे मुंह से वह शब्द निकलवाये। यही रिवाजी लोभ मेरे और तुम्हारे बीच में आकर खड़ा हो गया। पर अब मैंने जाना कि दुनिया में वही चीज सबसे कीमती है जिससे जीवन में आनन्द और अनुराग पैदा हो। अगर दरिद्रता और वैराग्य में आनन्द मिले तो वही सबसे प्रिय वस्तु है, जिस पर आदमी जमीन और मिल्कियत सब कुछ होम कर देगा। आज भी लाखों माई के लाल हैं, जो संसार के सुखों पर लात मारकर जंगलों और पहाड़ों की सैर करने में मस्त हैं। और उस वक्त मैं इतनी मोटी-सी बात न समझा। हाय रे दुर्भाग्य!

6

एक दिन ठाकुर के पास तुलिया ने पैगाम भेजा—मैं बीमार हूं, आकर देख जाव, कौन जाने बचूं कि न बचूं।

इधर कई दिन से ठाकुर ने तुलिया को न देखा था। कई बार उसके द्वार के चक्कर भी लगाए, पर वह न दीख पड़ी। अब जो यह संदेशा मिला तो वह जैसे पहाड़ से नीचे गिर पड़ा। रात के दस बजे होंगे। पूरी बात भी न सुनी और दौड़ा। छाती धड़क रही थी और सिर उड़ा जाता था, तुलिया बीमार है! क्या होगा भगवान्! तुम मुझे क्यों नहीं बीमार कर देते? मैं तो उसके बदले मरने को भी तैयार हूं। दोनों ओर के काले-काले वृक्ष मौत के दूतों की तरह दौड़े चले आते थे। रह-रहकर उसके प्राणों से एक ध्वनि निकलती थी, हसरत और दर्द में डूबी हुई—तुलिया बीमार है!

उसकी तुलिया ने उसे बुलाया है। उस कृतघ्नी, अधम, नीच, हत्यारे को बुलाया है कि आकर मुझे देख जाओ, कौन जाने बचूं कि न बचूं। तू अगर न बचेगी तुलिया तो मैं भी न बचूंगा, हाय, न बचूंगा!! दीवार से सिर फोड़कर मर जाऊंगा। फिर मेरी और तेरी चिता एक साथ बनेगी, दोनों के जनाजे एक साथ निकलेंगे।

उसने कदम और तेज किए। आज वह अपना सब कुछ तुलिया के कदमों पर रख देगा। तुलिया उसे बेवफा समझती है। आज वह दिखाएगा, वफा किसे कहते हैं। जीवन में अगर उसने वफा न की तो मरने के बाद करेगा। इस चार दिन की जिन्दगी में जो कुछ न कर सका वह अनन्त युगों तक करता रहेगा। उसका प्रेम कहानी बनकर घर-घर फैल जाएगा।

मन में शंका हुई, तुम अपने प्राणों का मोह छोड़ सकोगे? उसने जोर से छाती पीटी ओर चिल्ला उठा—प्राणों का मोह किसके लिए? और प्राण भी तो वही है, जो बीमार है। देखूं मौत कैसे प्राण ले जाती है, और देह को छोड़ देती है।

उसने धड़कते हुए दिल और थरथराते हुए पांवों से तुलिया के घर में कदम रक्खा। तुलिया अपनी खाट पर एक चादर ओढ़े सिमटी पड़ी थी, और लालटेन के अन्धे प्रकाश में उसका पीला मुख मानो मौत की गोद में विश्राम कर रहा था।

उसने उसके चरणों पर सिर रख दिया और आंसुओं में डूबी हुई आवाज से बोला—तूला, यह अभाग तुम्हारे चरणों पर पड़ा हुआ है। क्या आंखें न खोलेगी?

तुलिया ने आंखें खोल दीं और उसकी ओर करुण दृष्टि डालकर कराहती हुई बोली—तुम हो गिरधर सिंह, तुम आ गए? अब मैं आराम से मरूंगी। तुम्हें एक बार देखने के लिए जी बहुत बेचैन था। मेरा कहा-सुना माफ कर देना और मेरे लिए रोना मत। इस मिट्टी की देह में क्या रक्खा है गिरधर! वह तो मिट्टी में मिल जाएगी। लेकिन मैं कभी तुम्हारा साथ न छोडूंगी। परछाईं की तरह नित्य तुम्हारे साथ रहूंगी। तुम मुझे देख न सकोगे, मेरी बातें सुन न सकोगे, लेकिन तुलिया आठों पहर सोते-जागते तुम्हारे साथ रहेगी। मेरे लिए अपने को बदनाम मत करना गिरधर! कभी किसी के सामने मेरा नाम जबान पर न लाना। हां, एक बार मेरी चिता पर पानी के छींटे मार देना। इससे मेरे हृदय की ज्वाला शान्त हो जायगी।

गिरघर फूट-फूटकर रो रहा था। हाथ में कटार होती तो इस वक्त जिगर में मार लेता और उसके सामने तड़पकर मर जाता।

जरा दम लेकर तुलिया ने फिर कहा—मैं बचूंगी नहीं गिरधर, तुमसे एक बिनती करती हूं, मानोगी?

गिरधर ने छाती ठोककर कहा—मेरी लाश भी तेरे साथ ही निकलेगी तुलिया। अब जीकर क्या करूंगा और जिऊं भी तो कैसे? तू मेरा प्राण हे तुलिया।

उसे ऐसा मालूम हुआ तुलिया मुस्कराई।

‘नहीं-नहीं, ऐसी नादानी मत करना। तुम्हारे बाल-बच्चे हैं, उनका पालन करना। अगर तुम्हें मुझसे सच्चा प्रेम है, तो ऐसा कोई काम मत करना जिससे किसी को इस प्रेम की गन्ध भी मिले। अपनी तुलिया को मरने के पीछे बदनाम मत करना।

गिरधर ने रोकर कहा—जैसी तेरी इच्छा।

‘मेरी तुमसे एक बिनती है।’

‘अब तो जिऊंगी ही इसीलिए कि तेरा हुक्म पूरा करूं, यही मेरे जीवन का ध्येय होगा।’

‘मेरी यही विनती है कि अपनी भाभी को उसी मान-मार्यादा के साथ रखना जैसे वह बंसीसिंह के सामने रहती थी। उसका आधा उसको दे देना।

‘लेकिन भाभी तो तीन महीने से अपने मैके में है, और कह गई है कि अब कभी न आऊंगी।’

‘यह तुमने बुरा किया है गिरधर, बहुत बुरा किया है। अब मेरी समझ में आया कि क्यों मुझे बुर-बुरे सपने आ रहे थे। अगर चाहते हो कि मैं अच्छी हो जाऊं, तो जितनी जल्दी हो सके, लिखा-पढ़ी करके कागज-पत्तर मेरे पास रख दो। तुम्हारी यह बददियानती ही मेरी जान का गाहक हो रही है। अब मुझे मालूम हुआ कि बंसीसिंह क्यों मुझे बार-बार सपना देते थे। मुझे और कोई रोग नहीं है। बंसीसिंह ही मुझे सता रहे हैं। बस, अभी जाओ। देर की तो मुझे जीता न पाओगे। तुम्हारी बेइन्साफी का दंड बंसीसिंह मुझे दे रहे हैं।’

गिरधर ने दबी जबान से कहा—लेकिन रात को कैसे लिखा-पढ़ी होगी तूली। स्टाम्प कहां मिलेगा? लिखेगा कौन? गवाह कहां हैं?

‘कल सांझ तक भी तुमने लिखा-पढ़ी कर ली तो मेरी जान बच जाएगी, गिरधर। मुझे बंसीसिंह लगे हुए हैं, वही मुझे सता रहे हैं, इसीलिए कि वह जानते हैं तुम्हें मुझसे प्रेम है। मैं तुम्हारे ही प्रेम के कारन मारी जा रही हूं। अगर तुमने देर की तो तुलिया को जीता न पाओगे।’

‘मैं अभी जाता हूं तुलिया। तेरा हुक्म सिर और आंखों पर। अगर तूने पहले ही यह बात मुझसे कह दी होती तो क्यों यह हालत होती? लेकिन कहीं ऐसा न हो, मैं तुझे देख न सकूं और मन की लालसा मन में ही रह जाय।’

‘नहीं-नहीं, मैं कल सांझ तक नहीं मरूंगी, विश्वास रक्खो।’

गिरधर उसी छन वहां से निकला और रातों-रात पच्चीस कोस की मंजिल काट दी। दिन निकलते-निकलते सदर पहुंचा, वकीलों से सलाह-मशविरा किया, स्टाम्प लिया, भावज के नाम आधी जायदाद लिखी, रजिस्ट्री कराई, और चिराग जलते-जलते हैरान-परीशान, थका-मांदा, बेदाना-पानी, आशा और दुराशा से कांपता हुआ आकर तुलिया के सामने खड़ा हो गया। रात के दस बज गए थे। उस ववत न रेलें थीं, न लारियां, बेचारे को पचास कोस की कठिन यात्रा करनी पड़ी। ऐसा थक गया था कि एक-एक पग पहाड़ मालूम होता था। पर भय था कि कहीं देर तो अनर्थ हो जाएगा।

तुलिया ने प्रसन्न मन से पूछा—तुम आ गए गिरधर? काम कर आए?

गिरधर ने कागज उसके सामने रख दिया और बोला—हां तूला, कर आया, मगर अब भी तुम अच्छी न हुई तो तुम्हारे साथ मेरी जान भी जायगी। दुनिया चाहे हंसे, चाहे रोये, मुझे परवाह नहीं है। कसम ले लो, जो एक घूंट पानी भी पिया हो।

तुलिया उठ बैठी और कागज को अपने सिरहाने रखकर बोली—अब मैं बहुत अच्छी हूं। सबेरे तक बिलकुल अच्छी हो जाऊंगीं तुमने मेरे साथ जो नेकी की है, वह मरते दम तक न भूलूंगी। लेकिन अभी-अभी मुझे जरा नींद आ गई थी। मैंने सपना देखा कि बंसीसिंह मेरे सिरहाने खड़े हैं और मुझसे कह रहे हैं, तुलिया, तू ब्याहता है, तेरा आदमी हजार कोस पर बैठा तेरे नाम की माला जप रहा है। चाहता तो दूसरी कर लेता, लेकिन तेरे नाम पर बैठा हुआ है और जन्म-भर बैठा रहेगा। अगर तूने उससे दगा की तो मैं तेरा दुश्मन हो जाऊंगा, और फिर जान लेकर ही छोडूंगा। अपना भला चाहती है तो अपने सत् पर रह। तूने उससे कपट किया, उसी दिन मैं तेरी सांसत कर डालूंगा। बस, यह कहकर वह लाल-लाल आंखों से मुझे तरेरते हुए चले गए।

गिरधर ने एक छन तुलिया के चेहरे की तरफ देखा, जिस पर इस समय एक दैवी तेज विराज रहा था, एकाएक जैसे उसकी आंखों के सामने से पर्दा हट गया और सारी साजिश समझ में आ गई। उसने सच्ची श्रद्धा से तुलिया के चरणों को चूमा और बोला—समझ गया तुलिया, तू देवी है।

-‘चांद’, अप्रैल १९३५बूढ़ों में जो एक तरह की बच्चों की-सी बेशर्मी आ जाती है वह इस वक्त भी तुलिया में न आई थी, यद्यपि उसके सिर के बाल चांदी हो गये थे। और गाल लटक कर दाढ़ों के नीचे आ गये थे। वह खुद भी निश्चित रूप से अपनी उम्र न बता सकती थी, लेकिन लोगों का अनुमान था कि वह सौ की सीमा को पार कर चुकी है। और अभी तक चलती तो अंचल से सिर दांककर, आंखें नीची किये हुए, मानो नवेली बहू है। थी तो चमारिन, पर क्या मजाल कि किसी घर का पकवान देखकर उसका जी ललचाया। गांव में ऊंची जातों के बहुत-से घर थे। तुलिया का सभी जगह आना-जाना था। सारा गांव उसकी इज्जत करता था और गृहिणियां तो उसे श्रद्धा की आंखों से देखती थीं। उसे आग्रह के साथ अपने घर बुलातीं, उसके सिर में तेल डालतीं, मांग में सेंदूर भरती, कोई अच्छी चीज पकाई होती, जैसे हलवा या खीर या पकौड़ियां, तो उसे खिलाना चाहतीं, लेकिन बुढ़िया को जीभ से सम्मान कहीं प्यारा था। कभी न खाती। उसके आगे-पीछे कोई न था। उसके टोले के लोग कुछ तो गांव छोड़कर भाग गये थे, कुछ प्लेग और मलेरिया की भेंट हो गये थे और अब थोड़े-से खंडहर मानो उनकी याद में नंगे सिर खड़े छाती-सी पीट रहे थे। केवल तुलिया की मंड़ैया ही जिन्दा बच रही थी, और यद्यपि तुलिया जीवन-यात्रा की उस सीमा के निकट पहुंच चुकी थी, जहा आदमी धर्म और समाज के सारे बन्धनों से मुक्त हो जाता हैं और अब श्रेष्ठ प्राणियों को भी उससे उसकी जात के कारण कोई भेद न था, सभी उसे अपने घर में आश्रय देने को तैयार थे, पर मान-प्रिय बुढ़िया क्यों किसी का एहसान ले, क्यों अपने मालिक की इज्जत में बट्टा लगाये, जिसकी उसने सौ बरस पहले केवल एक बार सूरत देखी थी। हां, केवल एक बार!

तुलिया की जब सगाई हुई तो वह केवल पांच साल की थी और उसका पति अठारह साल का बलिष्ठ युवक था। विवाह करके वह कमाने पूरब चला गया। सोचा, अभी इस लड़की के जवान होने में दस-बारह साल की देर है। इतने दिनों में क्यों न कुछ धन कमा लूं और फिर निश्चिन्त होकर खेती-बारी करूं। लेकिन तुलिया जवान भी हुई, बूढ़ी भी हो गई, वह लौटकर घर न आया। पचास साल तक उसके खत हर तीसरे महीने आते रहे। खत के साथ जवाब के लिए एक पता लिखा हुआ लिफाफा भी होता था और तीस रुपये का मनीआर्डर। खत में वह बराबर अपनी विवशता, पराधीनता और दुर्भाग्य का रोना रोता था—क्या करूं तूला, मन में तो बड़ी अभिलाषा है कि अपनी मंड़ैया को आबाद कर देता और तुम्हारे साथ सुख से रहता, पर सब कूछ नसीब के हाथ है, अपना कोई बस नहीं। जब भगवान लावेंगे तब आऊंगा। तुम धीरज रखना, मेरे जीते जी तुम्हें कोई कष्ट न होगा। तुम्हारी बांह पकड़ी है तो मरते दम तक निबाह करूंगा। जब आंखें बन्द हो जाएंगी तब क्या होगा, कौन जाने? प्राय: सभी पत्रों में थोड़े-से-फेर-फार के साथ यही शब्द और यही भाव होते थे। हां, जवानी के पत्रों में विरह की जो ज्वाला होती थी, उसकी जगह अब निराशा की राख ही रह गई थी। लेकिन तुलिया के लिए सभी पत्र एक-से प्यारे थे, मानो उसके हृदय के अंग हों। उसने एक खत भी कभी न फाड़ा था—ऐसे शगुन के पत्र कहीं फाड़े जाते हैं—उनका एक छोटा-सा पोथा जमा हो गया था। उनके कागज का रंग उड़ गया था, स्याही भी उड़ गई थी, लेकिन तुलिया के लिए वे अभी उतने ही सजीव, उतने ही सतृष्ण, उतने ही व्याकुल थे। सब के सब उसकी पेटारी में लाल डोरे से बंधे हुए, उसके दीर्घ जीवन से संचित सोहाग की भांति, रखे हुए थे। इन पत्रों को पाकर तुलिया गद्गद हो जाती। उसके पांव जमीन पर न पड़ते, उन्हें बार-बार पढ़वाती और बार-बार रोती। उस दिन वह अवश्य केशों में तेल डालती, सिन्दूर से मांग भरवाती, रंगीन साड़ी पहनती, अपनी पुरखिनों के चरन छूती और आशीर्वाद लेती। उसका सोहाग जाग उठता था। गांव की बिरहिनियों के लिए पत्र पत्र नहीं, जो पढ़कर फेंक दिया जाता है, अपने प्यारे परदेसी के प्राण हैं, देह से मूल्यवान। उनमें देह की कठोरता नहीं, कलुषता नहीं, आत्मा की आकुलता और अनुराग है। तुलिया पति के पत्रों ही को शायद पति समझती थी। पति का कोई दूसरा रूप उसने कहां देखा था?

रमणियां हंसी से पूछती—क्यों बुआ, तुम्हें फूफा की कुछ याद आती है—तुमने उनको देखा तो होगा? और तुलिया के झुरिंयों से भरे हुए मुखमण्डल पर यौवन चमक उठता, आंखों में लाली आ जाती। पुलककर कहती—याद क्यों नहीं आती बेटा, उनकी सूरत तो आज भी मेरी आंखें के समाने हैं बड़ी-बड़ी आंखें, लाल-लाल ऊंचा माथा, चौड़ी छाती, गठी हुई देह, ऐसा तो अब यहां कोई पट्ठा ही नहीं है। मोतियों के-से दांत थे बेटा। लाल-लाल कुरता पहने हुए थे। जब ब्याह हो गया तो मैंने उनसे कहा, मेरे लिए बहुत-से गहने बनवाओगे न, नहीं मैं तुम्हारे घर नहीं रहूंगी। लड़कपन था बेटा, सरम-लिहाज कुछ थोड़ा ही था। मेरी बात सुनकर वह बड़े जोर से ठट्ठा मारकर हंसे और मुझे अपने कंधे पर बैठाकर बोले—मैं तुझे गहनों से लाद दूंगा, तुलिया, कितने गहने पहनेगी। मैं परदेस कमाने जाता हूं, वहां से रुपये भेजूंगा, तू बहुत-से गहने बनवाना। जब वहां से आऊंगा तो अपने साथ भी सन्दूक-भर गहने लाऊंगा। मेरा डोला हुआ था बेटा, मां-बाप की ऐसी हैसियत कहां थी कि उन्हें बारात के साथ अपने घर बुलातें उन्हीं के घर मेरी उनसे सगाई हुई और एक ही दिन में मुझे वह कुछ ऐसे भाये कि जब वह चलने लगे तो मैं उनके गले लिपट कर रोती थी और कहती थी कि मुझे भी अपने साथ ले चलो, मैं तुम्हारा खाना पकाऊंगी, तुम्हारी खाट बिछाऊंगी, तुम्हारी धेती छांटूगी। वहां उन्हीं के उमर के दो-तीन लड़के और बैठे हुए थे। उन्हीं के सामने वह मुस्करा कर मेरे कान में बोले—और मेरे साथ सोयेगी नहीं? बस, मैं उनका गला छोड़कर अलग खड़ी हो गई और उनके ऊपर एक कंकड़ फेककर बोली—मुझे गाली दोगे तो कहे देती हूं, हां!

और यह जीवन-कथा नित्य के सुमिरन और जाप से जीवन-मन्त्र बन गयी थी। उस समय कोई उसका चेहरा देखता! खिला पड़ता था। घूंघट निकालकर भाव बताकर, मुंह फेरकर हंसती हुई, मानो उसके जीवन में दुख जैसी कोई चीज है ही नहीं। वह अपने जीवन की इस पुण्य स्मृति का वर्णन करती, अपने अन्तस्तल के इस प्रकाश को देर्शाती जो सौ बरसों से उसके जीवन-पथ को कांटों और गढ़ों से बचाता आता था। कैसी अनन्त अभिलाषा था, जिसे जीवन-सत्यों ने जरा भी धूमिल न कर पाया था।

2

वह दिन भी थे, जब तुलिया जवान थी, सुंदर थी और पतंगों को उसके रूप-दीपक पर मंछराने का नशा सवार था। उनके अनुराग और उन्माद तथा समर्पण की कथाएं जब वह कांपते हुए स्वरों और सजल नेत्रों से कहती तो शायद उन शहींदों की आत्माएं स्वर्ग में आनन्द से नाच उठती होंगी, क्योंकि जीते जी उन्हें जो कुछ न मिला वही अब तुलिया उन पर दानों हाथों से निछावर कर रही थी। उसकी उठती हुई जवानी थी। जिधर से निकल जाती युवक समाज कलेजे पर हाथ रखकर रह जाता। तब बंसीसिंह नाम का एक ठाकुर था, बड़ा छैला, बड़ा रसिया, गांव का सबसे मनचला जवान, जिसकी तान रात के सन्नाटे में कोस-भर से सुनायी पड़ती थी। दिन में सैकड़ों बार तुलिया के घर के चक्कर लगाता। तालाब के किनारे, खेत में, खलिहान में, कुंए पर, जहां वह जाती, परछाईं की तरह उसके पीछे लगा रहता। कभी दूध लेकर उसके घर आता, कभी घी लेकर। कहता, तुलिया, मैं तुझसे कुछ नहीं चाहता, बस जो कुछ मैं तुझे भेंट किया करूं, वह ले लिया कर। तू मुझसे नहीं बोलना चाहती मत बोल, मेरा मुंह नहीं देखना चाहती, मत देख लेकिन मेरे चढ़ावों को ठुकरा मत। बस, मैं इसी से सन्तुष्ठ हो जाऊंगा। तुलिया ऐसी भोली न थी, जानती थी यह उंगली पकड़ने की बातें हैं, लेकिन न जाने कैसे वह एक दिन उसके धोखे में आ गयी—नहीं, धोखे में नहीं आयी—उसकी जवानी पर उसे दया आ गयी। एक दिन वह पके हुए कलमी आमों की एक टोकरी लाया! तुलिया ने कभी कलमी आम न खाये थे। टोकरी उससे ले ली। फिर तो आये दिन आम की डलियां आने लगीं। एक दिन जब तुलिया टोकरी लेकर घर में जाने लगी तो बंसी ने धीरे से उसका हाथ पकड़कर अपने सीने पर रख लिया और चट उसके पैरों पर गिर पड़ा। फिर बोला—तुलिया, अगार अब भी तुझे मुझ पर दया नहीं आती तो आज मुझे मार डाल। तेरे हाथों से मर जाऊं, बस यही साध है।

तुलिया न टोकरी पटक दी, अपने पांव छुड़ाकर एक पग पीछे हट गयी ओर रोषभरी आंखों से ताकती हुई बोली—अच्छा ठाकुर, अब यहां से चले जाव, नहीं तो या तो तुम न रहूंगी। तुम्हारे आमों में आग लगे, और तुमको क्या कहूं! मेरा आदमी काले कोसों मेरे नाम पर बैठा हुआ है इसीलिए कि मैं यहां उसके साथ कपट करूं! वह मर्द है, चार पेसे कमाता है, क्या वह दूसरी न रख सकता था? क्या औरतों की संसार में कमी है? लेकिन वह मेरे नाम पर चाहे न हो। पढ़ोगे उसकी चिट्ठियां जो मेरे नाम भेजता है? आप चाहे जिस दशा में हो, मैं कौन यहां बेठी देखती हूं, लेकिन मेरे पास बराबर रुपये भेजता है। इसीलिए कि मैं यहां दूसरों से विहार करूं? जब तक मुझको अपनी और अपने को मेरा समझता रहेगा, तुलिया उसी की रहेगी, मन से भी, करम से भी। जब उससेमेरा ब्याह हुआ तब मैं पांच साल की अल्हड़ छोकरी थी। उसने मेरे साथ कौन-सा सुख उठाया? बांह पकड़ने की लाज ही तो निभा रहा है! जब वह मर्द होकर प्रीत निभाता है तो मैं औरत होकर उसके साथ दगा करूं!

यह कहकर वह भीतर गयी और पत्रों की पिटारी लाकर ठाकुर के सामने पटक दी। मगर ठाकुर की आंखों का तार बंधा हुआ था, ओठ बिचके जा रहे थे। ऐसा जान पड़ता था कि भूमि में धंसा जा रहा है।

एक क्षण के बाद उसने हाथ जोड़कर कहा—मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया तुलिया। मैंने तुझे पहचाना न था। अब इसकी यही सजा है कि इसी क्षण मुझे मार डाल। ऐसे पापी का उद्वार का यही एक मार्ग है।

तुलिया को उस पर दया नहीं आयी। वह समझती थी कि यह अभी तक शरारत किये जाता है। झल्लाकर बोली—मरने को जी चाहता है तो मर जाव। क्या संसार में कुए-तालाब नहीं, या तुम्हारे पास तलवार-कटार नहीं है। मैं किसी को क्यों मारूं?

ठाकुर ने हताश आंखों से देखा।

“तो यही तेरा हुक्म है?”

‘मेरा हुक्म क्यों होने लगा? मरने वाले किसी से हुक्म नहीं मांगते।’

ठाकुर चला गया और दूसरे दिन उसकी लाश नदी में तैरती हुई मिली। लोगों ने समझा तड़के नहाने आया होगा, पांव फिसल गया होगा। महीनों तक गांव में इसकी चर्चा रही, पर तुलिया ने जबान तक न खोली, उधर का आना-जाना बन्द कर दिया।

बंसीसिंह के मरते ही छोटे भाई ने जायदाद पर कब्जा कर लिया और उसकी स्त्री और बालक को सताने लगा। देवरानी ताने देती, देवर ऐब लगाता। आखिरं अनाथ विधवा एक दिन जिन्दगी से तंग आकर घर से निकल पड़ी। गांव में सोता पड़ गया था। तुलिया भोजन करके हाथ में लालटेन लिये गाय को रोटी खिलाने निकली थी। प्रकाश में उसने ठकुराइन को दबे पांव जाते देखा। सिसकती और अंचल से आंसु पोंछती जाती थी। तीन साल का बालक गोद में था।

तुलिया ने पूछा—इतनी रात गये कहां जाती हो ठकुराइन? सुनो, बात क्या है, तुम तो रो रही हो।

ठकुराइन घर से जा तो रही थी, पर उसे खुद न मालूम था कहां। तुलिया की ओर एक बार भीत नेत्रों से देखकर बिना कुछ जवाब दिये आगे बढ़ी। जवाब कैसे देती? गले में तो आंसू भरे हुए थे और इस समय न जाने क्यों और उमड़ आये थे।

तुलिया सामने आकर बोली—जब तक तुम बता न दोगी, मैं एक पग भी आगे न जाने दूंगी।

ठकुराइन खड़ी हो गयी और आंसू-भरी आंखों से क्रोध में भरकर बोली—तू क्या करेगी पूछकर? तुझसे मतलब?

‘मुझसे कोई मतलब ही नहीं? क्या मैं तुम्हारे गांव में नहीं रहती? गांव वाले एक-दूसरे के दुख-दर्द में साथ न देंगे तो कौन देगा?’

‘इस जमाने में कौन किसका साथ देता है तुलिया? जब अपने घरवालों ने ही साथ नहीं दिया और तेरे भैया के मरते ही मेरे खून के प्यासे हो गये, तो फिर मैं और किससे आशा रखूं? तुझसे मेरे घर का हाल कुछ छिपा है? वहां मेरे लिए अब जगह नहीं है। जिस देवर-देवरानी के लिए मैं प्राण देती थी, वही अब मेरे दुश्मन हैं। चाहते हैं कि यह एक रोटी खाय और अनाथों की तरह पड़ी रहे। मैं रखेली नहीं हूं उढ़री हूं, ब्याहता हूं, दस गांव के बीच में ब्याह के आयी हूं। अपनी रत्ती-भी जायदाद न छोडूंगी ओर अपना राधा लेकर रहूंगी।’

‘तेरे भैया’, ये दो शब्द तुलिया को इतने प्यारे लगे कि उसने ठकुराइन को गले लगा लिया ओर उसका हाथ पकड़कर बोली—तो बहिन, मेरे घर में चलकर रहो। और कोई साथ दे या न दे, तुलिया मरते दम तक तुम्हारा साथ देगी। मेरा घर तुम्हारे लायक नहीं है, लेकिन घर में और कुछ नहीं शान्ति तो है और मैं कितनी ही नीच हूं, तुम्हारी बहिन तो हूं।

ठकुराइन ने तुलिया के चेहरे पर अपनी विस्मय-भरी आंखें जमा दीं।

‘ऐसा न हो मेरे पीछे मेरा देवर तुम्हारा भी दुश्मन हो जाय।’

‘मैं दुश्मनों से नहीं डरती, नहीं इस टोले में अकेली न रहती।’

‘लेकिन मैं तो नहीं चाहती कि मेरे कारन तुझ पर आफत आवे।’

‘तो उनसे कहने ही कौन जाता है, और किसे मालूम होगा कि अन्दर तुम हो।’

ठकुराइन को ढाढ़स बंधा। सकुचाती हुई तुलिया के साथ अन्दर आयी। उसका हृदय भारी था। जो एक विशाल पक्के की स्वामिनी थी, आज इस झोपड़ी में पड़ी हुई है।

घर में एक ही खाट थी, ठकुराइन बच्चे के साथ उस पर सोती। तुलिया जमीन पर पड़ रहती। एक ही कम्बल था, ठकुराइन उसको ओढ़ती, तुलिया टाट का टुकड़ा ओढ़कर रात काटती। मेहमान का क्या सत्कार करे, कैसे रक्खे, यही सोचा करती। ठकुराइन के जुठे बरतन मांजना, कपड़े छांटना, उसके बच्चे को खिलाना ये सारे काम वह इतने उमंग से करती, मानो देवी की उपासना कर रही हो। ठकुराइन इस विपत्ति में भी ठकुराइन थी, गर्विणी, विलासप्रिय, कल्पनाहीन। इस तरह रहती थी मानो उसी का घर है और तुलिया पर इस तरह रोब जमाती थी मानो वह उसकी लौंडी है। लेकिन तुलिया अपने अभागे प्रेमी के साथ प्रीति की रीति का निबाह कर रही थी, उसका मन कभी न मैला होता, माथे पर कभी न बल पड़ता।

एक दिन ठकुराइन ने कहा—तुला, तुम बच्चे को देखती रहना, मैं दो-चार दिन के लिए जरा बाहर जाऊंगी। इस तरह तो यहां जिन्दगी-भर तुम्हारी रोटीयां तोड़ती रहूंगी, पर दिल की आग कैसे ठण्डी होगी? इस बेहया को इसकी जाल कहां कि उसकी भावज कहां चली गयी। वह तो दिल में खुश होगा कि अच्छा हुआ उसके मार्ग का कांटा हट गया। ज्यों ही पता चला कि मैं अपने मैके नहीं गयी, कहीं और पड़ी हूं, वह तुरन्त मुझे बदनाम कर देगा और तब सारा समाज उसी का साथ देगा। अब मुझे कुछ अपनी फिक्र करनी चाहिए।

तुलिया ने पूछा—कहां जाना चाहती हो बहिन? कोई हर्ज न हो तो मैं भी साथ चलूं। अकेली कहां जाओगी?

‘उस सांप को कुचलने के लिए कोई लाठी खोजूंगी।’

तुलिया इसका आशक न समझ सकी। उसके मुख की ओर ताकने लगी।

ठकुराइन ने निर्लज्ज्ता के साथ कहा—तू इतनी मोटी-सी बात भी नहीं समझी! साफ-साफ ही सुनना चाहती है? अनाथ स्त्री के पास अपनी रक्षा का अपने रूप के सिवा दूसरा कौन अस्त्र है? अब उसी अस्त्र से काम लूंगी। जानती है, इस रूप के क्या दाम होंगे? इस भेड़िये का सिर। इस परगने का हाकिम जो कोई भी हो उसी पर मेरा जादू चलेगा। और ऐसा कौन मर्द है जो किसी युवती के जादू से बच सके, चाहे वह ऋषि ही क्यों न हो। धर्म जाता है जाय, मुझ परवाह नहीं। मैं यह नहीं देख सकती कि मैं बन-बन की पत्तियां तोडूं और वह शोहदा मूंछों पर ताव देकर राज करे।

तुलिया को मालूम हुआ कि इस अभिमानिनी के हृदय पर किनी गहरी चोट हैं इस व्यथा को शान्त करने के लिए वह जान ही पर नहीं खेल रही है, धर्म पर खेल रही है जिसे वह प्राणों से भी प्रिय समझती है। बंसीसिंह की वह प्रार्थी मूर्ति उसकी आंखों के समाने आ खड़ी हुई। वह बलिष्ठ था, अपनी फौलादी शक्ति से वह बड़ी आसानी के साथ तुलिया पर बल प्रयोग कर सकता था, ओर उस रात के सन्नाटे में उस आनाथा की रक्षा करने वाला ही कौन बैठा हुआ था। पर उसकी सतीत्व-भरी भर्त्सना ने बंसीसिंह को किस तरह मोहित कर लिया, जैसे कोई काला भयंकर नाग महुअर का सुरीला राग सुनकर मस्त हो गया हो। उसी सच्चे सूरमा की कुली-मर्यादा आज संकट में है। क्या तुलिया उस मार्यादा को लुटने देगी और कुछ न करेगी? नहीं-नहीं! अगर बंसीसिंह ने उसके सत् को अपने प्राणों से प्रिय समझा तो वह भी उसकी आबरू को अपने धर्म से बचायेगी।

उसने ठकुराइन को तसल्ली देते हुए कहा—अभी तुम कहीं मत जाओ बहिन पहले मुझे अपनी शक्ति आजमा लेने दो। मेरी आबरू चली भी गयी तो कौन हंसेगा। तुम्हारी आबरू के पीछे तो एक कुल की आबरू है।

ठकुराइन ने मुस्कराकर उसको देखा। बोली—तू यह कला क्या जाने तुलिया?

‘कौन-सी कला?’

‘यही मर्दों को उल्लू बनाने की।’

‘मैं नारी हूं?’

‘लेकिन पुरुषों का चरित्र तो नहीं जानती?’

‘यह तो हम-तुम दोनों मां के पेट से सीखकर आयी हैं।’

‘कुछ बता तो क्या करेगी?’

‘वही जो तुम करने जा रही हो। तुम परगने के हाकिम पर अपना जादू डालना चाहती हो, मैं तुम्हारे देवर पर ज़ाला फेंकूगी।’

‘बड़ा घाघ है तुलिया।’

‘यही तो देखना है।’

3

तुलिया ने बाकी रात कार्यक्रम और उसका विधान सोचने में काटी। कुशल सुनापति की भांति उसने धावे और मार-काट की एक योजना-सी मन में बना ली। उसे अपनी विजय का विश्वास था। शुत्रु निश्शंक था, इस धावे की उसे जरा भी खबर न थी।

बंसीसिंह का छोटा भाई गिरधर कंधे पर छ: फीट का मोटा लट्ठ रखे अकड़ता चला आता था कि तुलिया ने पुकारा—ठाकुर, तनिक यह घास का गट्ठा उठाकर मेरे सिर पर रख दो। मुझसे नहीं उठता।

दोपहर हो गया था। मजदूर खेतों में लौटकर आ चुके थे। बगूले उठने लगे थे। तुलिया एक पेड़ के नीचे घास का गट्ठा रखे खड़ी थी। उसके माथे से पसीने की धार बह रही थी।

ठाकुन ने चौंककर तुलिया की ओर देखां उसी वक्त तुलिया का अंचल खिसक गया और नीचे की लाल चोली झलक पड़ी। उसने झट अंचल सम्हाल लिया, पर उतावली में जूड़े में गुंथी हुई फूलों की बेनी बिजली की तरह आंखें में कौंद गयी। गिरधर का मन चंचली हो उठा। आंखों में हल्का-सा नशा पैदा हुआ और चेहरे पर हल्की-सी सुर्खी और हल्की-सी मुस्कराहट। नस-नस में संगीत-सा गूंज उठा।

उसने तुलिया को हजारों बार देखा था, प्यासी आंखों, ललचायी आंखों से, मगर तुलिया अपने रूप और सत् के घमण्ड में उसकी तरह कभी आंखें तक न उठाती थी। उसकी मुद्रा और ढंग में कुछ ऐसी रुखाई, कुछ ऐसी निठुरता होती थी कि ठाकुर के सारे हौसले पस्त हो जाते थे, सारा शौक ठण्डा पड़ जाता था। आकाश में उड़ने वाले पंछी पर उसके जाल और दाने का क्या असर हो सकता था? मगर आज वह पंछी सामने वाली डाली पर आ बैठा था और ऐसा जान पड़ता था कि भूखा है। फिर वह क्यों न दाना और जाल लेकर दौड़े।

उसने मस्त होकर कहा—मैं पहुंचाये देता हूं तुलिया, तू क्यों सिर पर उठायेगी।

‘और कोई देख ले तो यही कहे कि ठाकुर को क्या हो गया है?’

‘मुझे कुत्तों के भूंकने की परवा नहीं है।’

‘लेकिन मुझे तो है।’

ठाकुर ने न माना। गट्ठा सिर पर उठा लिया और इस तरह आकाश में पांव रखता चला मानो तीनों लोक का खजाना लूटे लिये जाता है।

4

एक महिना गुजर गया। तुलिया ने ठाकुर पर मोहिनी डाल दी थी और अब उसे मछली की तरह खेला रही थी। कभी बंसी ढीली कर देती, कभी कड़ी। ठाकुर शिकार करने चला था, खुद जाल में फंस गया। अपना ईसान और धर्म और प्रतिष्ठा सब कुछ होम करके वह देवी का वरदान न पा सकता था। तुलिया आज भी उससे उनती ही दूर थी जितनी पहले।

एक दिन वह तुलिया से बोला—इस तरह कब तक जलायेगी तुलिया? चल कहीं भाग चलें।

तुलिया ने फंदे को और कसा—हां, और क्या। जब तुम मुंह फेर लो तो कहीं की न रहूं। दीन से भी जाऊं, दुनिया से भी!

ठाकुर ने शिकायत के स्वर में कहा—अब भी तुझे मुझ पर विश्वास नहीं आता?

‘भौंरे फूल का रस लेकर उड़ जाते हैं।’

‘और पतंगे जलकर राख नहीं हो जाते?’

‘पतियाऊं कैसे?’

‘मैंने तेरा कोई हुक्म टाला है?’

‘तुम समझते होगे कि तुलिया को एक रंगीन साड़ी और दो-एक छोटे-मोटे गहने देकर फंसा लूंगा। मैं ऐसी भोली नहीं हूं।’

तुलिया ने ठाकुर के दिल की बात भांप ली थी। ठाकुर हैरत में आकर उसका मुंह ताकने लगा।

तुलिया ने फिर कहा—आदमी अपना घर छोड़ता है तो पहले कहीं बैठने का ठिकाना कर लेता है।

ठाकुर प्रसन्न होकर बोला—तो तू चलकर मेरे घर में मालकिन बनकर रह। मैं तुझसे कितनी बार कह चुका।

तुलिया आंखें मटकाकर बोली—आज मालकिन बनकर रहूं कल लौंडी बनकर भी न रहने पाऊं, क्यों?

‘तो जिस तरह तेरा मन भरे वह कर। मैं तो तेरा गुलाम हूं।’

‘बचन देते हो?’

‘हां, देता हूं। एक बार नहीं, सौ बार, हजार बार।’

‘फिर तो न जाओगे?’

‘वचन देकर फिर जाना नामर्दों का काम है।’

‘तो अपनी आधी जमीन-जायदाद मेरे नाम लिख दो।’

ठाकुर अपने घर की एक कोठरी, दस-पांच बीघे खेत, गहने-कपड़े तो उसके चरणों पर चढ़ा देने को तैयार था, लेकिन आधी जायदाद उसके नाम लिख देने का साहस उसमें न था। कल को तुलिया उससे किसी बात पर नाराज हो जाय, तो उसे आधी जायदाद से हाथ धोना पड़े। ऐसी औरत का क्या एतबार! उसे गुमान तक न था कि तुलिया उसके प्रेम की इतनी कड़ी परीक्षा लेगी। उसे तुलिया पर क्रोध आया। यह चमार की बिटिया जरा सुन्दर क्या हो गयी है कि समझती है, मैं अप्सरा हूं। उसी मुहब्बत केवल उसके रूप का मोह थी। वह मुहब्बत, जो अपने को मिटा देती है और मिट जाना ही अपने जीवन की सफलता समझती है, उसमें न थी।

उसने माथे पर बल लाकर कहा—मैं न जानता था, तुझे मेरी जमीन-जायदा से प्रेम है तुलिया, मुझसे नहीं!

तुलिया ने छूटते ही जवाब दिया—तो क्या मैं न जानती थी कि तुम्हें मेरे रूप और जवानी ही से प्रेम है, मुझसे नहीं?

‘तू प्रेम को बाजार का सौदा समझती है?’

‘हां, समझती हूं। तुम्हारे लिए प्रेम चार दिन की चांदनी होगी, मेरे लिए तो अंधेरा पाख हो जायगा। मैं जब अपना सब कुछ तुम्हें दे रही हूं तो उसके बदले में सब कुछ लेना भी चाहती हूं। तुम्हें अगर मुझसे प्रेम होता तो तुम आधी क्या पूरी जायदाद मेरे नाम लिख देते। मैं जायदाद क्या सिर पर उठा ले जाऊंगी? लेकिन तुम्हारी नीयत मालू हो गयी। अच्छा ही हुआ। भगवान न करे कि ऐसा कोई समय आवे, लेकिन दिन किसी के बराबर नहीं जाते, अगर ऐसा कोई समय आया कि तुमको मेरे सामने हाथ पसारना पड़ा तो तुलिया दिखा देगी कि औरत का दिल कितना उदार हो सकता है।’

तुलिया झल्लायी हुई वहां से चली गयी, पर निराश न थी, न बेदिल। जो कुछ हुआ वह उसके सोचे हुए विधान का एक अंग था। इसके आगे क्या होने वाला है इसके बारे में भी उसे कोई सन्देह न था।

5

ठाकुर ने जायदाद तो बचा ली थी, पर बड़े मंहगे दामो। उसके दिल का इत्मीनान गायब हो गया था। जिन्दगी में जैसे कुछ रह ही न गया हो। जायदाद आंखों के समाने थी, तुलिया दिल के अन्दर। तुलिया जब रोज समाने आकर अपनी तिर्छी चितवनों से उसके हृदय में बाण चलाती थी, तब वह ठोस सत्य थी। अब जो तुलिया उसके हृदय में बैठी हुई थी, वह स्वप्न थी जो सत्य से कहीं ज्यादा मादक है, विदरक है।

कभी-कभी तुलिया स्वप्न की एक झलक-सी नजर आ जाती, और स्वप्न ही की भांति विलीन भी हो जाती। गिरधर उससे अपने दिल का दर्द कहने का अवसर ढूंढ़ता रहता लेकिन तुलिया उसके साये से भी परहेज करती। गिरधर को अब अनुभव हो रहा था कि उसके जीवन को सूखी बनाने के लिए उसकी जायदाद जितनी जरूरी है, उससे कहीं ज्यादा जरूरी तुलिया है। उसे अब अपनी कृपणता पर क्रोध आता। जायदाद क्या तुलिया के नाम रही, क्या उसके नाम। इस जरा-सी बात में क्या रक्खा है। तुलिया तो इसलिए अपने नाम लिखा रही थी कि कहीं मैं उसके साथ बेवफाई कर जाऊं तो वह अनाथ न हो जाय। जब मैं उसका बिना कौड़ी का गुलाम हूं तो बेवफाई कैसी? मैं उसके साथ बेवफाई करूंगा, जिसकी एक निगाह के लिए, एक शब्द के लिए तरसता रहता हूं। कहीं उससे एक बार एकान्त में भेंट हो जाती तो उससे कह देता—तूला, मेरे पास जो कुछ है, वह सब तुम्हारा है। कहो बखशिशनामा लिख हूं, कहो बयनामा लिख दूं। मुझसे जो अपराध हुआ उसके लिए नादिम हूं। जायदाद से मनुष्य को जो एक संस्कार-गत प्रेम है, उसी ने मेरे मुंह से वह शब्द निकलवाये। यही रिवाजी लोभ मेरे और तुम्हारे बीच में आकर खड़ा हो गया। पर अब मैंने जाना कि दुनिया में वही चीज सबसे कीमती है जिससे जीवन में आनन्द और अनुराग पैदा हो। अगर दरिद्रता और वैराग्य में आनन्द मिले तो वही सबसे प्रिय वस्तु है, जिस पर आदमी जमीन और मिल्कियत सब कुछ होम कर देगा। आज भी लाखों माई के लाल हैं, जो संसार के सुखों पर लात मारकर जंगलों और पहाड़ों की सैर करने में मस्त हैं। और उस वक्त मैं इतनी मोटी-सी बात न समझा। हाय रे दुर्भाग्य!

6

एक दिन ठाकुर के पास तुलिया ने पैगाम भेजा—मैं बीमार हूं, आकर देख जाव, कौन जाने बचूं कि न बचूं।

इधर कई दिन से ठाकुर ने तुलिया को न देखा था। कई बार उसके द्वार के चक्कर भी लगाए, पर वह न दीख पड़ी। अब जो यह संदेशा मिला तो वह जैसे पहाड़ से नीचे गिर पड़ा। रात के दस बजे होंगे। पूरी बात भी न सुनी और दौड़ा। छाती धड़क रही थी और सिर उड़ा जाता था, तुलिया बीमार है! क्या होगा भगवान्! तुम मुझे क्यों नहीं बीमार कर देते? मैं तो उसके बदले मरने को भी तैयार हूं। दोनों ओर के काले-काले वृक्ष मौत के दूतों की तरह दौड़े चले आते थे। रह-रहकर उसके प्राणों से एक ध्वनि निकलती थी, हसरत और दर्द में डूबी हुई—तुलिया बीमार है!

उसकी तुलिया ने उसे बुलाया है। उस कृतघ्नी, अधम, नीच, हत्यारे को बुलाया है कि आकर मुझे देख जाओ, कौन जाने बचूं कि न बचूं। तू अगर न बचेगी तुलिया तो मैं भी न बचूंगा, हाय, न बचूंगा!! दीवार से सिर फोड़कर मर जाऊंगा। फिर मेरी और तेरी चिता एक साथ बनेगी, दोनों के जनाजे एक साथ निकलेंगे।

उसने कदम और तेज किए। आज वह अपना सब कुछ तुलिया के कदमों पर रख देगा। तुलिया उसे बेवफा समझती है। आज वह दिखाएगा, वफा किसे कहते हैं। जीवन में अगर उसने वफा न की तो मरने के बाद करेगा। इस चार दिन की जिन्दगी में जो कुछ न कर सका वह अनन्त युगों तक करता रहेगा। उसका प्रेम कहानी बनकर घर-घर फैल जाएगा।

मन में शंका हुई, तुम अपने प्राणों का मोह छोड़ सकोगे? उसने जोर से छाती पीटी ओर चिल्ला उठा—प्राणों का मोह किसके लिए? और प्राण भी तो वही है, जो बीमार है। देखूं मौत कैसे प्राण ले जाती है, और देह को छोड़ देती है।

उसने धड़कते हुए दिल और थरथराते हुए पांवों से तुलिया के घर में कदम रक्खा। तुलिया अपनी खाट पर एक चादर ओढ़े सिमटी पड़ी थी, और लालटेन के अन्धे प्रकाश में उसका पीला मुख मानो मौत की गोद में विश्राम कर रहा था।

उसने उसके चरणों पर सिर रख दिया और आंसुओं में डूबी हुई आवाज से बोला—तूला, यह अभाग तुम्हारे चरणों पर पड़ा हुआ है। क्या आंखें न खोलेगी?

तुलिया ने आंखें खोल दीं और उसकी ओर करुण दृष्टि डालकर कराहती हुई बोली—तुम हो गिरधर सिंह, तुम आ गए? अब मैं आराम से मरूंगी। तुम्हें एक बार देखने के लिए जी बहुत बेचैन था। मेरा कहा-सुना माफ कर देना और मेरे लिए रोना मत। इस मिट्टी की देह में क्या रक्खा है गिरधर! वह तो मिट्टी में मिल जाएगी। लेकिन मैं कभी तुम्हारा साथ न छोडूंगी। परछाईं की तरह नित्य तुम्हारे साथ रहूंगी। तुम मुझे देख न सकोगे, मेरी बातें सुन न सकोगे, लेकिन तुलिया आठों पहर सोते-जागते तुम्हारे साथ रहेगी। मेरे लिए अपने को बदनाम मत करना गिरधर! कभी किसी के सामने मेरा नाम जबान पर न लाना। हां, एक बार मेरी चिता पर पानी के छींटे मार देना। इससे मेरे हृदय की ज्वाला शान्त हो जायगी।

गिरघर फूट-फूटकर रो रहा था। हाथ में कटार होती तो इस वक्त जिगर में मार लेता और उसके सामने तड़पकर मर जाता।

जरा दम लेकर तुलिया ने फिर कहा—मैं बचूंगी नहीं गिरधर, तुमसे एक बिनती करती हूं, मानोगी?

गिरधर ने छाती ठोककर कहा—मेरी लाश भी तेरे साथ ही निकलेगी तुलिया। अब जीकर क्या करूंगा और जिऊं भी तो कैसे? तू मेरा प्राण हे तुलिया।

उसे ऐसा मालूम हुआ तुलिया मुस्कराई।

‘नहीं-नहीं, ऐसी नादानी मत करना। तुम्हारे बाल-बच्चे हैं, उनका पालन करना। अगर तुम्हें मुझसे सच्चा प्रेम है, तो ऐसा कोई काम मत करना जिससे किसी को इस प्रेम की गन्ध भी मिले। अपनी तुलिया को मरने के पीछे बदनाम मत करना।

गिरधर ने रोकर कहा—जैसी तेरी इच्छा।

‘मेरी तुमसे एक बिनती है।’

‘अब तो जिऊंगी ही इसीलिए कि तेरा हुक्म पूरा करूं, यही मेरे जीवन का ध्येय होगा।’

‘मेरी यही विनती है कि अपनी भाभी को उसी मान-मार्यादा के साथ रखना जैसे वह बंसीसिंह के सामने रहती थी। उसका आधा उसको दे देना।

‘लेकिन भाभी तो तीन महीने से अपने मैके में है, और कह गई है कि अब कभी न आऊंगी।’

‘यह तुमने बुरा किया है गिरधर, बहुत बुरा किया है। अब मेरी समझ में आया कि क्यों मुझे बुर-बुरे सपने आ रहे थे। अगर चाहते हो कि मैं अच्छी हो जाऊं, तो जितनी जल्दी हो सके, लिखा-पढ़ी करके कागज-पत्तर मेरे पास रख दो। तुम्हारी यह बददियानती ही मेरी जान का गाहक हो रही है। अब मुझे मालूम हुआ कि बंसीसिंह क्यों मुझे बार-बार सपना देते थे। मुझे और कोई रोग नहीं है। बंसीसिंह ही मुझे सता रहे हैं। बस, अभी जाओ। देर की तो मुझे जीता न पाओगे। तुम्हारी बेइन्साफी का दंड बंसीसिंह मुझे दे रहे हैं।’

गिरधर ने दबी जबान से कहा—लेकिन रात को कैसे लिखा-पढ़ी होगी तूली। स्टाम्प कहां मिलेगा? लिखेगा कौन? गवाह कहां हैं?

‘कल सांझ तक भी तुमने लिखा-पढ़ी कर ली तो मेरी जान बच जाएगी, गिरधर। मुझे बंसीसिंह लगे हुए हैं, वही मुझे सता रहे हैं, इसीलिए कि वह जानते हैं तुम्हें मुझसे प्रेम है। मैं तुम्हारे ही प्रेम के कारन मारी जा रही हूं। अगर तुमने देर की तो तुलिया को जीता न पाओगे।’

‘मैं अभी जाता हूं तुलिया। तेरा हुक्म सिर और आंखों पर। अगर तूने पहले ही यह बात मुझसे कह दी होती तो क्यों यह हालत होती? लेकिन कहीं ऐसा न हो, मैं तुझे देख न सकूं और मन की लालसा मन में ही रह जाय।’

‘नहीं-नहीं, मैं कल सांझ तक नहीं मरूंगी, विश्वास रक्खो।’

गिरधर उसी छन वहां से निकला और रातों-रात पच्चीस कोस की मंजिल काट दी। दिन निकलते-निकलते सदर पहुंचा, वकीलों से सलाह-मशविरा किया, स्टाम्प लिया, भावज के नाम आधी जायदाद लिखी, रजिस्ट्री कराई, और चिराग जलते-जलते हैरान-परीशान, थका-मांदा, बेदाना-पानी, आशा और दुराशा से कांपता हुआ आकर तुलिया के सामने खड़ा हो गया। रात के दस बज गए थे। उस ववत न रेलें थीं, न लारियां, बेचारे को पचास कोस की कठिन यात्रा करनी पड़ी। ऐसा थक गया था कि एक-एक पग पहाड़ मालूम होता था। पर भय था कि कहीं देर तो अनर्थ हो जाएगा।

तुलिया ने प्रसन्न मन से पूछा—तुम आ गए गिरधर? काम कर आए?

गिरधर ने कागज उसके सामने रख दिया और बोला—हां तूला, कर आया, मगर अब भी तुम अच्छी न हुई तो तुम्हारे साथ मेरी जान भी जायगी। दुनिया चाहे हंसे, चाहे रोये, मुझे परवाह नहीं है। कसम ले लो, जो एक घूंट पानी भी पिया हो।

तुलिया उठ बैठी और कागज को अपने सिरहाने रखकर बोली—अब मैं बहुत अच्छी हूं। सबेरे तक बिलकुल अच्छी हो जाऊंगीं तुमने मेरे साथ जो नेकी की है, वह मरते दम तक न भूलूंगी। लेकिन अभी-अभी मुझे जरा नींद आ गई थी। मैंने सपना देखा कि बंसीसिंह मेरे सिरहाने खड़े हैं और मुझसे कह रहे हैं, तुलिया, तू ब्याहता है, तेरा आदमी हजार कोस पर बैठा तेरे नाम की माला जप रहा है। चाहता तो दूसरी कर लेता, लेकिन तेरे नाम पर बैठा हुआ है और जन्म-भर बैठा रहेगा। अगर तूने उससे दगा की तो मैं तेरा दुश्मन हो जाऊंगा, और फिर जान लेकर ही छोडूंगा। अपना भला चाहती है तो अपने सत् पर रह। तूने उससे कपट किया, उसी दिन मैं तेरी सांसत कर डालूंगा। बस, यह कहकर वह लाल-लाल आंखों से मुझे तरेरते हुए चले गए।

गिरधर ने एक छन तुलिया के चेहरे की तरफ देखा, जिस पर इस समय एक दैवी तेज विराज रहा था, एकाएक जैसे उसकी आंखों के सामने से पर्दा हट गया और सारी साजिश समझ में आ गई। उसने सच्ची श्रद्धा से तुलिया के चरणों को चूमा और बोला—समझ गया तुलिया, तू देवी है।

सैलानी बन्दर

जीवनदास नाम का एक गरीब मदारी अपने बन्दर मन्नू को नचाकर अपनी जीविका चलाया करता था। वह और उसकी स्त्री बुधिया दोनों मन्नू का बहुत प्यार करते थे। उनके कोई सन्तान न थी, मन्नू ही उनके स्नेह और प्रेम का पात्र था दोनों उसे अपने साथ खिलाते और अपने साथ सुलाते थे: उनकी दृष्टि में मन्नू से अधिक प्रिय वस्तु न थी। जीवनदास उसके लिए एक गेंद लाया था। मन्नू आंगन में गेंद खेला करता था। उसके भोजन करने को एक मिट्टी का प्याला था, ओढ़ने को कम्बल का एक टुकड़ा, सोने को एक बोरिया, और उचके के लिए छप्पर में एक रस्सी। मन्नू इन वस्तुओं पर जान देता था। जब तक उसके प्याले में कोई चीज न रख दी जाय वह भोजन न करता था। अपना टाट और कम्बल का टुकड़ा उसे शाल और गद्दे से भी प्यारा था। उसके दिन बड़े सुख से बीतते थे। वह प्रात:काल रोटियां खाकर मदारी के साथ तमाशा करने जाता था। वह नकलें करने मे इतना निपुण था कि दर्शकवृन्द तमाशा देखकर मुग्ध हो जाते थे। लकड़ी हाथ में लेकर वृद्धों की भांति चलता, आसन मारकर पूजा करता, तिलक-मुद्रा लगाता, फिर पोथी बगल में दबाकर पाठ करने चलता। ढोल बजाकर गाने की नकल इतनी मनोहर थी कि इर्शक लोट-पोट हो जाते थे। तमाशा खतम हो जाने पर वा सबको सलामा करते था, लोगों के पैर पकड़कर पैसे वसूल करता था। मन्नू का कटोर पैसों से भर जाता था। इसके उपरान्त कोई मन्नू को एक अमरुद खिला देता, काई उसके सामने मिठाई फेंक देता। लड़कों को तो उसे देखने से जी ही न मारत था। वे अपने-अपने घर से दौड़-दौड़कर रोटियां लाते और उसे खिलाते थे। मुहल्ले के लोगों के लिए भी मन्नू मनोरंजन की एक सामग्री थी। जब वह घर पर रहता तो एक न एक आदमी आकर उससे खेलता रहाता। खोंचेवाले फेरी करते हुए उसे कुछ न कुछ दे देते थे। जो बिना दिए निकल जाने की चेष्टा करता उससे भी मन्नू पैर पकड़ कर वसूल कर लिया था, क्योंकि घर पर वह खुला रहता था मन्नू को अगा चिढ़ थी तो कुत्तों से। उसके मारे उधर से कोई कुत्ता न निकलने पाता था और कोई आ जाता, तो मन्नू उसे अवश्य ही दो-चार कनेठियां और झॉँपड़ लगाता था। उसके सर्वप्रिया होने का यह एक और कारण था। दिन को कभी-कभी बुधिया धूप में लेट जाती, तो मन्नू उसके सिर की जुएं निकालता और वह उसे गाना सुनाती। वह जहां कहीं जाती थी वहीं मन्नू उसके पीछे-पीछे जाता था। माता और पुत्र में भी इससे अधिक प्रेम न हो सकता था।

2

एक दिन मन्नू के जी में आया कि चलकर कहीं फल खाना चाहिए। फल खाने को मिलते तो थे पर वृक्षों पर चढ़कर डालियों पर उचकने, कुछ खाने और कुछ गिराने में कुछ और ही मजा था। बन्दर विनोदशील होते ही हैं, और मन्नू में इसकी मात्रा कुछ अधिक थी भी। कभी पकड़-धकड़ और मारपीट की नौबत न आई थी। पेड़ों पर चढ़कर फल खाना उसके स्वाभाविक जान पड़ता था। यह न जानता था कि वहां प्राकृति वस्तुओं पर भी न किसी की छाप लगी हुई है, जल, वायु प्रकाश पर भी लोगों ने अधिकार जमा रक्खा है, फिर बाग-बगीचों का तो कहना ही क्या। दोपहर को जब जीवनदास तमाशा दिखाकर लौटा, तो मन्नू लंबा हुआ। वह यो भी मुहल्ले में चला जाया करता था, इसलिए किसी को संदेह न हुआ कि वह कहीं चला गया। उधर वह घूमता-घामता खपरैलौं पर उछलता-कूदता एक बगीचे में जा पहुंचा। देखा तो फलों से पेड़ लदे हुए हैं। आंवलो, कटहल, लीची, आम, पपीते वगैरह लटकते देखकर उसका चित्त प्रसन्न हो गया। मानो वे वक्षृ उसे अपनी ओर बुला रहे थे कि खाओ, जहां तक खाया जाय, यहां किसी रोक-टोक नहीं है। तुरन्त एक छलांग मारकर चहारदीवारी पर चढ़ गया। दूसरी छलांग में पेड़ों पर जा पहुंचा, कुछ आम खाये, कुछ लीचियां खाई। खुशी हो-होकर गुठलिया इधर-उधर फेंकना शुरु किया। फिर सबसे ऊंची डाल पर जा पहुंचा और डालियों को हिलाने लगा। पके आम जमीन पर बिछ गए। खड़खड़ाहट हुई तो माली दोपहर की नींद से चौंका और मन्नू को देखते ही उसे पत्थरों से मारने लगा। पर या तो पत्थर उसके पास तक पहुंचते ही न थे या वह सिर और शरीर हिलाकर पत्थरों को बचा जाता था। बीच-बीच में बांगबान को दांत निकालकर डराता भी था। कभी मुंह बनाकर उसे काटने की धमकी भी देता था। माली बुदरघुड़कियों से डरकर भागता था, और फिर पत्थर लेकर आ जाता था। यह कौतुक देखकर मुहल्ले के बालक जमा हो गए, और शोर मचाने लगे—

ओ बंदरवा लोयलाय, बाल उखाडू टोयटाय।
ओ बंदर तेरा मुंह है लाल, पिचके-पिचके तेरे गाल।
मगर गई नानी बंदर की,
टूटी टांग मुछन्दर की।

मन्नू को इस शोर-गुल में बड़ा आनन्द आ रहा था। वह आधे फल खा-खाकर नीचे गिरता था और लड़के लपक-लपकक चुन लेते और तालियां बजा-बजाकर कहते थे—

बंदर मामू और,
कहा तुम्हारा ठौर।

माली ने जब देखा कि यह विप्लव शांत होने में नहीं आता, तो जाकर अपने स्वामी को खबर दी। वह हजरत पुलिस विभाग के कर्मचारी थे। सुनते ही जामे से बाहर हो गए। बंदर की इतनी मजाल कि मेरे बगीचे में आकर ऊधम मचावे। बंगले का किराया मैं देता हूं, कुछ बंदर नहीं देता। यहां कितने ही असहोयोगियों को लदवा दिया, अखबरवाले मेरे नाम से कांपते हैं, बंदर की क्या हस्ती है! तुरन्त बन्दूक उठाई, और बगीचे में आ पहुचें। देखों मन्नू एक पेड़ को जोर-जोर से हिला रहा था। लाल हो गए, और उसी तरफ बन्दू तानी। बन्दूक देखते ही मन्नू के होश उड़ गए। उस पर आज तक किसी ने बन्दूक नहीं तानी थी। पर उसने बन्दूक की आवाज सुनी थी, चिड़ियों को मारे जाते देखा था और न देखा होता तो भी बन्दूक से उसे स्वाभाविक भय होता। पशु बुद्धि अपने शत्रुओं से स्वत: सशंक हो जाती है। मन्नू के पांव मानों सुन्न हो गए। व उछालाकर किसी दूसरे वृक्ष पर भी न जा सका। उसी डाल पर दुबकर बैठ गया। साहब को उसकी यह कला पसन्द आई, दया आ गई। माली को भेजा, जाकर बन्दर को पकड़ ला। माली दिल में तो डरा, पर साहब के गुस्से को जानता था, चुपके से वृक्ष पर चढ़ गया और हजरत बंदर को एक रस्सी में बांध लाया। मन्नू साहब को बरामदे में एक खम्मभे से बांध दिया गया। उसकी स्वच्छन्दता का अन्त हो गया संध्या तक वहीं पड़ा हुआ करुण स्वर में कूं-कूं करता रहा। सांझ हो गई तो एक नौकर उसके सामने एक मुट्ठी चने डाल गया। अब मन्नू को अपनी स्थिति के परिवर्तन का ज्ञान हुअ। न कम्बल, न टाट, जमीन पर पड़ा बिसूर रहा था, चने उसने छुए भी नहीं। पछता रहा था कि कहां से फल खाने निकला। मदारी का प्रेम याद आया। बेचारा मुझे खोजता फिरता होगा। मदारिन प्याले में रोटी और दूध लिए मुझे मन्नू-मन्नू पुकार रही होगी। हा विपत्ति! तूने मुझे कहां लाकर छोड़ा। रात-भर वह जागता और बार-बार खम्भे के चक्कर लगाता रहा। साहब का कुत्ता टामी बार-बार डराता और भूंकता था। मन्नू को उस पर ऐसा क्रोध आता था कि पाऊं तो मारे चपतों के चौंधिया दूं, पर कुत्ता निकट न आता, दूर ही से गरजकर रह जाता था।

रात गुजारी, तो साहब ने आकर मन्नू को दो-तीन ठोकरे जमायीं। सुअर! रात-भर चिल्ला-चिल्लाकर नींद हराम कर दी। आंख तक न लगी! बचा, आज भी तुमने गुल मचाया, तो गोली मार दूंगा। यह कहकर वह तो चले गए, अब नटखट लड़कों की बारी आई। कुछ घर के और कुछ बाहर के लड़के जमा हो गए। कोई मन्नू को मुंह चिढ़ाता, कोई उस पर पत्थर फेंकता और कोई उसको मिठाई दिखाकर ललचाता था। कोई उसका रक्षक न था, किसी को उस पर दया न आती थी। आत्मरक्षा की जितनी क्रियाएं उसे मालूम थीं, सब करके हार गया। प्रणाम किया, पूजा-पाठ किया लेकिन इसक उपहार यही मिला कि लड़कों ने उसे और भी दिक करनर शुरु किया। आज किसी ने उसके सामने चने भी न डाले और यदि डाले भी तो वह खा न सकता। शोक ने भोजन की इच्छा न रक्खी थी।

संध्या समय मदारी पता लगाता हुआ साहब के घर पहुंचा। मन्नू उस देखते ही ऐसा अधीर हुआ, मानो जंजीर तोड़ डालेगा, खंभे को गिरा देगा। मदारी ने जाकर मन्नू को गले से लगा लिया और साहब से बोला—‘हुजूर, भूल-चूक तो आदमी से भी हो जाती है, यह तो पशु है! मुझे चाहे जो सजा दीजिए पर इसे छोड़ दीजिए। सरकार, यही मेरी राटियों का सहारा है। इसके बिना हम दो प्राणी भूखों मर जाएंगे। इसे हमने लड़के की तरह पाला हैं, जब से यह भागा है, मदारिन ने दाना-पानी छोड़ दिया है। इतनी दया किजिए सरकार, आपका आकबाल सदा रोशन रहे, इससे भी बड़ा ओहदा मिले, कलम चाक हो, मुद्दई बेबाक हो। आप हैं सपूत, सदा रहें मजूबत। आपके बैरी को दाबे भूत।’ मगर साहब ने दया का पाठ न पढ़ा था। घुड़ककर बोले-चुप रह पाजी, टें-टें करके दिमाग चाट गया। बचा बन्दर छोड़कर बाग का सत्यानाश कर डाला, अब खुशामद करने चले हो। जाकर देखो तो, इसने कितने फल खराब कर दिये। अगर इसे ले जाना चाहता है तो दस रुपया लाकर मेरी नजर कर नहीं तो चुपके से अपनी राह पकड़। यह तो यहीं बंधे-बंधे मर जाएगा, या कोई इतने दाम देकर ले जाएगा।
मदारी निराश होकर चला गया। दस रुपये कहां से लाता? बुधिया से जाकर हाल कहा। बुधिया को अपनी तरस पैदा करने की शक्ति पर ज्यादा भरोसा था। बोली—‘बस, ली तुम्हारी करतूत! जाकर लाठी-सी मारी होगी। हाकिमों से बड़े दांव-पेंच की बातें की जाती हैं, तब कहीं जाकर वे पसीजते है। चलो मेरे साथ, देखों छुड़ा लती हूं कि नहीं।’ यह कहकर उसने मन्नू का सब सामान एक गठरी में बांधा और मदारी के साथ साहब के पास आई, मन्नू अब की इतने जोर से उछला कि खंभा हिल उठा, बुधिया ने कहा—‘सरकार, हम आपके द्वार पर भीख मांगने आये हैं, यह बन्दर हमको दान दे दीजिए।’

साहब—हम दान देना पाप समझते है।

मदारिन—हम देस-देस घूमते हैं। आपका जस गावेंगे।

साहब—हमें जस की चाह या परवाह नहीं है।

मदारिन—भगवान् आपको इसका फल देंगे।

साहब—मैं नहीं जानता भगवान् कौन बला है।

मदारिन—महाराज, क्षमा की बड़ी महिमा है।

साहब—हमारे यहां सबसे बड़ी महिमा दण्ड की है।

मदारिन—हुजूर, आप हाकिम हैं। हाकिमों का काम है, न्याय कराना। फलों के पीछे दो आदमियों की जान न लीजिए। न्याय ही से हाकिम की बड़ाई होती है।

साहब—हमारी बड़ाई क्षमा और न्याय से नहीं है और न न्याय करना हमारा काम है, हमारा काम है मौज करना।

बुधिया की एक भी युक्ति इस अहंकार-मूर्ति के सामने न चली। अन्त को निराश होकर वह बोली—हुजूर इतना हुक्म तो दे दें कि ये चीजें बंदर के पास रखा दूं। इन पर यह जान देता है।

साहब-मेरे यहां कूड़ा-कड़कट रखने की जगह नहीं है। आखिर बुधिया हताश होकर चली गई।

3

टामी ने देखा, मन्नू कुछ बालता नहीं तो, शेर हो गया, भूंकता-भूंकता मन्नू के पास चला आया। मन्नू ने लपककर उसके दोनों कान पकड़ लिए और इतने तमाचे लगाये कि उसे छठी का दूध याद आ गया। उसकी चिल्लाहट सुनकर साहब कमरे से बाहर निकल आए और मन्नू के कई ठोकरें लगाई। नौकरों को आज्ञा दी कि इस बदमाश को तीन दिन तक कुछ खाने को मत दो।

संयोग से उसी दिन एक सर्कस कंपनी का मैनेजर साहब से तमाशा करने की आज्ञा लेने आया। उसने मन्नू को बंधे, रोनी सूरत बनाये बैठे देखा, तो पास आकर उसे पुचकारा। मन्नू उछलकर उसकी टांगों से लिपट गया, और उसे सलाम करने लगा। मैनेजर समझ गया कि यह पालतू जानवर है। उसे अपने तमाशे के लिए बन्दर की जरुरत थी। साहब से बातचीत की, उसका उचित मूल्य दिया, और अपने साथ ले गया। किन्तु मन्नू को शीघ्र ही विदित हो गया कि यहां मैं और भी बुरा फंसा। मैनेजर ने उसे बन्दरों के रखवाले को सौंप दिया। रखवाला निष्ठुर और क्रूर प्रकृति का प्राणी था। उसके अधीन और भी कई बन्दर थे। सभी उसके हाथों कष्ट भोग रहे थे। वह उनके भोजन की सामग्री खुद खा जाता था। अन्य बंदरों ने मन्नू का सहर्ष स्वागत नहीं किया। उसके आने से उनमें बड़ा कोलाहाल मचा। अगर रखवाले ने उसे अलग न कर दिया होता तो वे सब उसे नोचकर खा जाते। मन्नू को अब नई विद्या सीखनी पड़ी। पैरगाड़ी पर चढ़ना, दौड़ते घोड़े की पीठ पर दो टांगो से खड़े हो जाना, पतली रस्सी पर चलना इत्यादि बड़ी ही कष्टप्रद साधनाएं थी। मन्नू को ये सब कौशल सीखने में बहुत मार खानी पड़ती। जरा भी चूकता तो पीठ पर डंडा पड़ जाता। उससे अधिक कष्ट की बात यह थी कि उसे दिन-भर एक कठघरे में बंद रक्खा जाता था, जिसमें कोई उसे देख न ले। मदारी के यहां तमाशा ही दिखाना पड़ता था किन्तु उस तमाशे और इस तमाशे में बड़ा अन्तर था। कहां वे मदारी की मीठी-मीठी बातें, उसका दुलारा और प्यार और कहां यह कारावास और ठंडो की मार! ये काम सीखने में उसे इसलिए और भी देर लगती थी कि वह अभी तक जीवनदास के पास भाग जाने के विचार को भूला न था। नित्य इसकी ताक में रहता कि मौका पाऊं और लिक जाऊं, लेकिन वहां जानवरों पर बड़ी कड़ी निगाह रक्खी जाती थी। बाहर की हवा तक न मिलती थी, भागने की तो बात क्या! काम लेने वाले सब थे मगर भोजन की खबर लेने वाला कोई भी न था। साहब की कैद से तो मन्नू जल्द ही छूट गया था, लेकिन इस कैद में तीन महीने बीत गये। शरीर घुल गया, नित्य चिन्ता घेरे रहती थी, पर भागने का कोई ठीक-ठिकाने न था। जी चाहे या न चाहे, उसे काम अवश्य करना पड़ता था। स्वामी को पैसों से काम था, वह जिये चाहे मरे।

संयोगवश एक दिन सर्कस के पंडाल में आग लग गई, सर्कस के नौकर—चाकर सब जुआरी थे। दिन-भर जुआ खेलते, शराब पीते और लड़ाई-झगड़ा करते थे। इन्हीं झंझटों में एकएक गैस की नली फट गई। हाहाकार मच गया। दर्शक वृन्द जान लेकर भागे। कंपनी के कर्माचारी अपनी चीजें निकालने लगे। पशुओं की किसी का खबर न रही। सर्कस में बड़े-बड़े भयंकर जीव-जन्तु तमायशा करते थे। दो शेर, कई चीते, एक हाथी,एक रीछ था। कुत्तों घोड़ों तथा बन्दरों की संख्या तो इससे कहीं अधिक थी। कंपनी धन कमाने के लिए अपने नौकरों की जान को कोई चीज नहीं समझती थी। ये सब क सब जीव इस समय तमाशे के लिए खोले गये थे। आग लगते ही वे चिल्ला-चिल्लाकर भागे। मन्नू भी भागा खड़ा हुआ। पीछे फिरकर भी न देखा कि पंडाल जला या बचा।

मन्नू कूदता-फांदता सीधे घर पहुंचा जहां, जीवनदास रहता था, लेकिन द्वारा बन्द था। खरपैल पर चढ़कर वह घर में घुस गया, मगर किसी आदमी का चिन्ह नहीं मिला। वह स्थन, जहां वह सोता था, और जिसे बुधिया गोबर से लीपकर साफ रक्खा करती थी, अब घास-पात से ढका हुआ था, वह लकड़ी जिस पर चढ़कर कूदा करता था, दीमकों ने खा ली थी। मुहल्लेवाले उसे देखते ही पहचान गए। शोर मच गया—मन्नू आया, मन्नू आया।

मन्नू उस दिन से राज संध्या के समय उसी घर में आ जाता, और अपने पुराने स्थान पर लेट रहता। वह दिन-भर मुहल्ले में घूमा करता था, कोई कुछ दे देता, तो खा लेता था, मगर किसी की कोई चीज नहीं छूता था। उसे अब भी आशा थी कि मेरा स्वामी यहां मुझसे अवश्य मिलेगा। रातों को उसके कराहने की करूण ध्वनि सुनाई देती थी। उसकी दीनता पर देखनेवालों की आंखों से आंसू निकल पड़े थे।

इस प्रकार कई महीने बीत गये। एक दिन मन्नू गली में बैठा हुआ था, इतने में लड़कों का शोर सुनाई दिया। उसने देखा, एक बुढ़िया नंगे बदन, एक चीथड़ा कमर में लपेटे सिर के बाल छिटकाए, भूतनियों की तरह चली आ रही है, और कई लड़के उसक पीछे पत्थर फेंकते पगली नानी! पगली नानी! की हांक लगाते, तालियां बजाते चले जा रहे हैं। वह रह-रहकर रुक जाती है और लड़को से कहती है—‘मैं पगली नानी नहीं हूं, मूझे पगली क्यों कहते हो? आखिर बुढ़िया जमीन पर बैठ गई, और बोली—‘बताओ, मुझे पगली क्यों कहते हो?’ उसे लड़को पर लेशमात्र भी क्रोध न आता था। वह न रोती थी, न हंसती। पत्थर लग भी जाता चुप हो जाती थी।

एक लड़के ने कहा-तू कपड़े क्यों नहीं पहनती? तू पागल नहीं तो और क्या है?

बुढ़िया—कपड़े मे जाड़े में सर्दी से बचने के लिए पहने जाते है। आजकल तो गर्मी है।

लड़का—तुझे शर्म नहीं आती?

बुढ़िया—शर्म किसे कहते हैं बेटा, इतने साधू-सन्यासी-नंगे रहते हैं, उनको पत्थर से क्यों नहीं मारते?

लड़का—वे तो मर्द हैं।

बुढ़िया—क्या शर्म औरतों ही के लिए है, मर्दों को शर्म नहीं आनी चाहिए?

लड़का—तुझे जो कोई जो कुछ दे देता है, उसे तू खा लेती है। तू पागल नहीं तो और क्या है?

बुढ़िया—इसमें पागलपन की क्या बात है बेटा? भूख लगती है, पेट भर लेती हूं।

लड़का—तुझे कुछ विचार नहीं है? किसी के हाथ की चीज खाते घिन नहीं आती?

बुढ़िया—घिन किसे कहते है बेटा, मैं भूल गई।

लड़का—सभी को घिन आती है, क्या बता दूं, घिन किसे कहते है।

दूसरा लड़का—तू पैसे क्यों हाथ से फेंक देती है? कोई कपड़े देता है तो क्यों छोड़कर चल देती है? पगली नहीं तो क्या है?

बुढ़िया—पैसे, कपड़े लेकर क्या करुं बेटा?

लड़का—और लोग क्या करते हैं? पैसे-रुपये का लालच सभी को होता है।

बुढ़िया—लालच किसे कहते हैं बेटा, मैं भूल गई।

लड़का—इसी से तुझे पगली नानी कहते है। तुझे न लोभ है, घिन है, न विचार है, न लाज है। ऐसों ही को पागल कहते हैं।

बुढ़िया—तो यही कहो, मैं पगली हूं।

लड़का—तुझे क्रोध क्यों नहीं आता?

बुढ़िया—क्या जाने बेटा। मुझे तो क्रोध नहीं आता। क्या किसी को क्रोध भी आता है? मैं तो भूल गई।

कई लड़कों ने इस पर ‘पगली, पगली’ का शोर मचाया और बुढ़िया उसी तरह शांत भाव से आगे चली। जब वह निकट आई तो मन्नू उसे पहचान गया। यह तो मेरी बुधिया है। वह दौड़कर उसके पैरों से लिपट गया। बुढ़िया ने चौंककर मन्नू को देखा, पहचान गई। उसने उसे छाती से लगा।

4

मन्नू को गोद में लेते ही बुधिया का अनुभव हुआ कि मैं नग्न हूं। मारे शर्म के वह खड़ी न रह सकी। बैठकर एक लड़के से बोली—बेटा, मुझे कुछ पहनने को दोगे?

लड़का—तुझे तो लाज ही नहीं आती न?

बुढ़िया—नहीं बेटा, अब तो आ रही है। मुझे न जान क्या हो गया था।

लड़को ने फिर ‘पगली, पगली’ का शोर मचाया। तो उसने पत्थर फेंककर लड़को को मारना शुरु किया। उनके पीछे दौड़ी।

एक लड़के ने पूछा—अभी तो तुझे क्रोध नहीं आता था। अब क्यों आ रहा है?

बुढ़िया—क्या जाने क्यों, अब क्रोध आ रहा है। फिर किसी ने पगली काहा तो बन्दर से कटवा दूंगी।

एक लड़का दौड़कर एक फटा हुआ कपड़ा ले आया। बुधिया ने वह कपड़ा पहन लिया। बाल समेट लिये। उसके मुख पर जो एक अमानुष आभा थी, उसकी जगह चिन्ता का पीलापन दिखाई देने लगा। वह रो-रोकर मन्नू से कहने लगी—बेटा, तुम कहां चले गए थे। इतने दिन हो गए हमारी सुध न ली। तुम्हारी मदारी तुम्हारे ही वियोग में परलोक सिधारा, मैं भिक्षा मांगकर अपना पेट पालने लगी, घर-द्वारर तहस-नहस हो गया। तुम थे तो खाने की, पहनने की, गहने की, घर की इच्छा थी, तुम्हारे जाते सब इच्छाएं लुप्त हो गई। अकेली भूख तो सताती थी, पर संसार में और किसी की चिन्ता न थी। तुम्हारा मदारी मरा, पर आंखें में आंसम न आए। वह खाट पर पड़ा कराहता था और मेरा कलेजा ऐसा पत्थर का हो गया था कि उसकी दवा-दारु की कौन कहे, उसके पास खड़ी तक न होती थी। सोचती थी—यह मेरा कौन है। अब आज वे सब बातें और अपनी वह दशा याद आती है, तो यही कहना पड़ता है कि मैं सचमुच पगली हो गई थी, और लड़कों का मुझे पगली नानी कहकर चिढ़ाना ठीक ही था।

यह कहकर बुधिया मन्नू को लिये हुए शहर के बाहर एक बाग में गई, जहां वह एक पेड़ के नीचे रहती थी। वहां थोड़ी-सी पुआल हुई थी। इसके सिवा मनुष्य के बसेरे का और कोई चिन्ह न था।

आज से मन्नू बुधिया के पास रहने लगा। वह सबरे घर से निकल जाता और नकले करके, भीख मांगकर बुधिया के खने-भर को नाज या रोटियां ले आता था। पुत्र भी अगर होता तो वह इतने प्रेम स माता की सेवा न करता। उसकी नकलों से खुश होकर लोग उसे पैसे भी देते थे। उस पैसों से बुधिया खाने की चीजें बाजार से लाती थी।

लोग बुधिया के प्रति बंदर का वह प्रेम देखकर चकित हो जाते और कहते थे कि यह बंदर नहीं, कोई देवता है।

स्वांग

राजपूत खानदान में पैदा हो जाने ही से कोई सूरमा नहीं हो जाता और न नाम के पीछे ‘सिंह’ की दुम लगा देने ही से बहादुरी आती है। गजेन्द्र सिंह के पुरखे किस जमाने में राजपूत थे इसमें सन्देह की गुंजाइश नहीं। लेकिन इधर तीन पुश्तों से तो नाम के सिवा उनमें रापूती के कोई लक्षण न थे। गजेन्द्र सिंह के दादा वकील थे और जिरह या बहस में कभी-कभी रापूती का प्रदर्शन कर जाते थे। बाप ने कपड़े की दुकान खालकर इस प्रदर्शन की भी गुंजाइश न रखी।और गजेन्द्र सिंह ने तो लूटीया ही डूबो दी। डील-डौल में भी फर्क आता गया। भूपेन्द्र सिंह का सीना लम्बा-चौड़ा था नरेन्द्र सिंह का पेट लम्बा-चौड़ा था, लेकिन गजेन्द्र सिंह का कुछ भी लम्बा-चौड़ा न था। वह हलके-फुल्के, गोरे-चिट्टे, ऐनाकबजा, नाजुक बदन, फैशनेबुल बाबू थे। उन्हें पढ़ने-लिखने से दिलचस्पी थी।
मगर राजपूत कैसा ही हो उसकी शादी तो राजपूत खानदान ही में होगी। गजेन्द्र सिंह की शादी जिस खानदान में हुई थी, उस खानदान में राजपूती जौहर बिलकुल फना न हुआ था। उनके ससुर पेंशन सूबेदार थे। साले शिकारी और कुश्तीबाज। शादी हुए दो साल हो गए थे, लेकिन अभी तक एक बार भी ससुराल न आ सका। इम्ताहानों से फुरसत ही न मिलती थी। लेकिन अब पढ़ाई खतम हो चुकी थी, नौकरी की तलाश थी। इसलिये अबकी होली के मौके पर ससुराल से बुलावा आया तो उसने कोई हील-हुज्जत न की। सूबेदार की बड़े-बड़े अफसरों से जान-पहचान थी, फौजी अफसरों की हुक्कम कितनी कद्र और कितनी इज्जत करते हैं, यह उसे खूब मालूम था। समझा मुमकिन है, सूबेदार साहब की सिफारिश से नायब तहसीलदारी में नामजद हो जाय। इधर श्यामदुलारी से भी साल-भर से मुलाकात नहीं हुई थी। एक निशाने से दो शिकार हो रहे थे। नया रेशमी कोट बनवाया और होली के एक दिन पहले ससुराल जा पहुंचा। अपने गराण्डील सालों के सामने बच्चा-सा मालूम होता था।
तीसरे पहर का वक्त था, गजेन्द्र सिंह अपने सालों से विद्यार्थी काल के कारनामें बयान कर रहा था। फूटबाल में किस तरह एक देव जैसे लम्बे-तड़ंगे गोरे को पटखनी दी, हाकी मैच मे किस तरह अकेले गोल कर लिया, कि इतने में सूबेदार साहब देव की तरह आकर खड़े हो गए और बड़े लड़के से बोले—अरे सुनों, तुम यहां बैठे क्या कर रहे हो। बाबू जी शहर से आये है, इन्हें लजे जाकर जरा जंगल की सैर करा लाओ। कुछ शिकार-विकार खिलाओ। यहा ठंठर-वेठर तो है नहीं, इनका जी घबराता होगा। वक्त भी अच्छा है, शाम तक लौट आओगे।
शिकार का नाम सुनते ही गजेन्द्र सिंह की नानी मर गई। बेचारे ने उम्र-भर कभी शिकार न खेला था। यह देहाती उजड़ लौंडे उसे न जाने कहां-कहां दौड़ाएंगे, कहीं किसी जानवर का सामन हा गया तो कहीं के न रहे। कौन जाने हिरन ही चोट कर बैठे। हिरन भी तो भागने की राह न पाकर कभी-कभी पलट पड़ता है। कहीं भेड़िया निकल आये तो काम ही तमाम कर दे। बोले—मेरा तो इस वक्त शिकार खेलने को जी नहीं चाहता, बहुत थक गया हूं।
सूबेदार साहब ने फरमाया—तुम घोड़े पर सवार हो लेना। यही तो देहात की बहार है। चुन्नू, जाकर बन्दूक ला, मैं भी चलूंग। कई दिन से बाहर नहीं निकला। मेरा राइफल भी लेते आना।
चुन्नू और मुन्नू खूश-खूश बन्दूक लेने दौड़े, इधर गजेन्द्र की जान सूखने लगी। पछता रहा था कि नाहक इन लौडों के साथ गप-शप करने लगा। जानता कि यह बला सिर पर आने वाली है, तो आते ही फौरन बीमार बानकर चारपाई पर पड़ रहाता। अब तो कोई हीला भी नहीं कर सकता। सबसे बड़ी मुसीबत घोड़े की सवारी। देहाती घोड़े यो ही थान पर बंधे-बंधे टर्रे हो जाते हैं और आसन का कच्चा सवार देखकर तो वह और भी शेखियां करने लगते हैं। कहीं अलफ हो गया मुझे लेकर किसी नाले की तरफ बेतहाशा भागा तो खैरियत नहीं।
दोनों सालों बन्दूके लेकर आ पहुंचे। घोड़ा भ खिंचकर आ गया। सूबेदार साहब शिकुरी कपड़े पहन कर तैयार हो गए। अब गजेन्द्र के लिए कोई हीला न रहा। उसने घोड़े की तरफ कनाखियों से देखा—बार-बार जमीन पर पैर पटकता था,हिनहिनाता था, उठी हुई गर्दन, लाला आंखें, कनौतियां खड़ी, बोटी-बोटी फड़क रही थी। उसकी तरफ देखते हुए डर लगता था। गजेन्द्र दिल में सहम उठा मगर बहादूरी दिखाने के लिए घोड़े के पास जाकर उसके गर्दन पर इस तरह थपकियां दीं कि जैसे पक्का शहसवार हैं, और बोला—जानवर तो जानदार है मगर मुनासिब नहीं मालूम होता कि आप लोगो तो पैदल चले और मैं घोड़े पर बैठूं। ऐसा कुछ थका नहीं। मैं भी पैदल ही चलूगां, इसका मुझे अभ्यास है।
सूबेदार ने कहा-बेटा, जंगल दूर है, थक जाओगे। बड़ा सीधा जानवर हैं, बच्चा भी सवार हो सकता है।
गजेन्द्र ने कहा-जी नहीं, मुझे भी यो ही चलने दीजिए। गप-शप करते हुए चलेंगे। सवारी में वह लुफ्त कहां आप बुजर्ग हैं, सवार हो जायं।
चारों आदमी पैदल चले। लोगों पर गजेन्द्र की इस नम्रता का बहुत अच्छा असर हुआ। सम्यता और सदाचार तो शहरवाले ही जानते हैं। तिस पर इल्म की बरक।
थोड़ी दूर के बाद पथरीला रास्ता मिला। एक तरफ हरा-भरा मैदान दूसरी तरफ पहाड़ का सिलसिला। दोनों ही तरफ बबूल, करील, करौंद और ढाक के जंगल थे। सूबेदार साहब अपनी-फौजी जिन्दगी के पिटे हुए किस्से कहतेग चले आते थे। गजेन्द्र तेज चलने की कोशिश कर रहा था। लेकिन बार-बार पिछड़ जाता था। और उसे दो-चार कदम दौड़कर उनके बराबर होना पड़ता था। पसीने से तर हांफता हुआ, अपनी बेवकूफ पर पछताता चला जाता था। यहां आने की जरुरत ही क्या थी, श्यामदुलारी महीने-दो-महीने में जाती ही। मुझे इस वक्त कुत्तें की तरह दौड़ते आने की क्या जरुरत थी। अभी से यह हाल है। शिकार नजर आ गया तो मालूम नहीं क्या आफत आएगी। मील-दो-मील की दौड़ तो उनपके लिए मामूली बात है मगर यहां तो कचूमर ही निकल जायगा। शायद बेहोश होकर गिर पडूं। पैर अभी से मन-मन-भर के हो रहे थे।
यकायक रास्ते में सेमल का एक पेड़ नजर आया। नीचे-लाल-लांल फूल बिछे हुए थे, ऊपर सारा पेड़ गुलनार हो राह था। गजेन्द्र वहीं खड़ा हो गया और उस पेड़ को मस्ताना निगाहों से देखने लगा।
चुन्नू ने पूछा-क्या है जीजा जी, रुक कैसे गये?
गजेन्द्र सिंह ने मुग्ध भाव से कहा—कुछ नहीं, इस पेड़ का आर्कषक सौन्दर्य देखकर दिल बाग-बाग हुआ जा रहा है। अहा, क्या बहार है, क्या रौनक है, क्या शान है कि जैसे जंगल की देवी ने गोधीलि के आकाश को लज्जित करने के लिए केसरिया जोड़ा पहन लिया हो या ऋषियों की पवित्र आत्माएं अपनी शाश्वत यात्रा में यहा आराम कर रही हों, या प्रकृति का मधुर संगीत मूर्तिमान होकर दुनिया पर मोहिन मन्त्र डाल रहा हो आप लोग शिकार खेलने जाइए, मुझे इस अमृत से तृप्त होने दीजिए।
दोनों नौजवान आश्चर्य से गजेन्द्र का मुंह ताकने लगे। उनकी समझ ही में न आया कि यह महाश्य कह क्या रहे हैं। देहात के रहनेवाले जंगलों में घूमनेवाले, सेमल उनके लिए कोई अनोखी चीज न थी। उसे रोज देखते थे, कितनी ही बार उस पर चढ़े, थे उसके नीचे दौड़े थे, उसके फूलों की गेंद बनाकर खेले थे, उन पर यह मस्ती कभी न छाई थी, सौंदर्य का उपभोग करना बेचारे क्या जाने।
सूबेदार साहब आगे बढ़ गये थे। इन लोगों को ठहरा हुआ देखकर लौट ओये और बोले—क्यों बेटा ठहर क्यों गये?
गजेन्द्र ने हाथ जोड़कर कहा-आप लोग मुझे माफ कीजिए, मैं शिकार खेलने न जा सकूंगा। फूलों की यह बहार देखकर मुझ पर मस्ती-सी छा गई हैं, मेरी आत्मा स्वर्ग के संगीत का मजा ले रही है। अहा, यह मेरा ही दिल जो फूल बनकर चमक रहा है। मुझ में भी वही लाली है, वहीं सौंदर्य है, वही रस है। मेरे ह्दय पर केवल अज्ञानता का पर्दा पड़ा हुआ है। किसका शिकार करें? जंगल के मासूम जानवारों का? हमीं तो जानवर हैं, हमीं तो चिड़ियां हैं, यह हमारी ही कल्पनाओं का दर्पण है जिसमें भौतिक संसार की झलक दिखाई पड़ रही है। क्या अपना ही खून करें? नहीं, आप लोग शिकार करन जांय, मुझे इस मस्ती और बहार में डूबकर इसका आन्नद उठाने दें। बल्कि मैं तो प्रार्थना करुगां कि आप भी शिकार से दूर रहें। जिन्दगी खुशियों का खजाना हैं उसका खून न कीजिए। प्रकृति के दृश्यों से अपने मानस-चक्षुओं को तृप्त कीजिए। प्रकृति के एक-एक कण में, एक-एक फूल में, एक-एक पत्ती में इसी आन्नद की किरणों चकम रही हैं। खून करके आन्नद के इस अक्षय स्रोत को अपवित्र न कीजिए।
इस दर्शनिक भाषण ने सभी को प्रभावित कर दिया। सूबेदार ने चुन्नू से धीमे से कहा—उम्र तो कुछ नहीं है लेकिन कितना ज्ञान भरा हुआ है। चुन्नू ने भी अपनी श्रृद्धा को व्यक्त किया—विद्या से ही आत्मा जाग जाती है, शिकार खेलना है बुरा।
सूबेदार साहब ने ज्ञानियों की तरह कहा—हां, बुरा तो है, चलो लौट चलें। जब हरेक चीज में उसी का प्रकाश है, तो शिकार कौन और शिकार कौन अब कभी शिकार न खेलूंगा।
फिर वह गजेन्द्र से बोले-भइया, तुम्हारे उपदेश ने हमारी आंखें खोल दीं। कसम खाते हैं, अब कभी शिकार न खेलेगे।
गजेन्द्र पर मस्ती छाई हुई थी, उसी नशे की हालत में बोला-ईश्वर को लाख-लाख धन्यवाद है कि उसने आप लोगों को यह सदबुद्धि दी। मुझे खुद शिकार का कितना शौक था, बतला नहीं सकता। अनगिनत जंगली सूअर, हिरन, तुंदुए, नीलगायें, मगर मारे होंगे, एक बार चीते को मार डाला। मगर आज ज्ञान की मदिरा का वह नश हुआ कि दुनिया का कहीं अस्तित्त्व ही नहीं रहा।


हो
ली जलाने का मुर्हूत नौ बजे रात को था। आठ ही बजे से गांव के औरत-मर्द, बूढ़े-बच्चे गाते-बजाते कबींरे उड़ाते होली की तरफ चले। सूबेदार साहब भी बाल-बच्चों को लिए मेहमान के साथ होली जलाने चले।
गजेन्द्र ने अभी तक किसी बड़े गांव की होली न देखी थी। उसके शहर में तो हर मुहल्ले में लकड़ी के मोटे-मोटे दो चार कुन्दे जला दिये जाते थे, जो कई-कई दिन तक जलते रहते थे। यहां की होली एक लम्बे-चौड़े मैदान में किसी पहाड़ की ऊंची चोटी की तरह आसमान से बातें कर रही थी। ज्यों ही पंडित जी ने मंत्र पढ़कर नये साल का स्वागत किया, आतिशबाजी छूटने लगी। छोटे-बड़े सभी पटाखे, छछूंदरे, हवाइयां छोड़ने लगे। गजेन्द्र के सिर पर से कई छछूंदर सनसनाती हुई निकल गईं। हरेक पटाखे पर बेचार दो-दो चार-चार कदम पीछे हट जाता था और दिल में इस उजड़ देहातियां को कोसता था। यह क्या बेहूदगी है, बारुद कहीं कपड़े में लग जाय, कोई और दुर्घटना हो जाय तो सारी शरारत निकल जाए। रोज ही तो ऐसी वारदातों होती रहती है, मगर इन गंवारों क्या खबर। यहां दादा न जो कुछ किया वही करेंगे। चाहे उसमें कुछ तुक हो या न हो
अचानक नजदीक से एक बमगोल के छूटने की गगनभेदी आवज हुई कि जैसे बिजली कड़की हो। गजेन्द्र सिंह चौंककर कोई दो फीट ऊंचे उछल गए। अपनी जिन्दगी में वह शायद कभी इतना न कूदे थे। दिल धक-धक करने लगा, गोया तोप के निशाने के सामने खड़े हों। फौरन दोनों कान उंगलियों से बन्द कर लिए और दस कदम और पीछे हट गए।
चुन्नू ने कहा—जीजाजी, आप क्या छोड़ेंगे, क्या लाऊं?
मुन्नू बाला-हवाइयां छोड़िए जीजाजी, बहुत अच्छी है। आसमान में निकल जाती हैं।
चुन्नू-हवाइयां बच्चे छोड़ते हैं कि यह छोड़ेगे? आप बमगोला छोड़िए भाई साहब।
गजेन्द्र—भाई, मुझे इन चीजों का शौक नहीं। मुझे तो ताज्जुब हो रहा है बूढ़े भी कितनी दिलचस्पी से आतिशबाजी छुड़ा रहे हैं।
मुन्नू-दो-चार महाताबियां तो जरुर छोड़िए।
गजेन्द्र को महताबियां निरापद जान पड़ी। उनकी लाल, हरी सुनहरी चमक के साचमने उनके गोरे चेहरे और खूबसूरत बालों और रेशमी कुर्तें की मोहकता कितनी बढ़ जायगी। कोई खतरे की बात भी नहीं। मजे से हाथ में लिए खड़े हैं, गुल टप-टप नीचे गिर रहा है ओर सबकी निगाहें उनकी तरफ लगी हुई हैं उनकी दर्शनिक बुद्धि भी आत्मप्रदर्शन की लालसासे मुक्त न थी। फौरन महताबी ले ली, उदासीनता की एक अजब शान के साथ। मगर पहली ही महताबी छोड़ना शुरु की थी कि दुसरा बमगोला छूटा। आसमान कांप उठा। गजेन्द्र को ऐसा मालूम हुआ कि जैसे कान के पर्दे फट गये या सिर पर कोई हथौड़ा-गिर पड़ा। महताबी हाथ से छूटकर गिर पड़ी और छाती धड़कने लगी। अभी इस धामके से सम्हलने ने पाये थे कि दूसरा धामाक हुआ। जैसे आसमान फट पड़ा। सारे वायुमण्डल में कम्पन-सा आ गया, चिड़िया घोंसलों से निकल निकल शोर मचाती हुई भागी, जानवर रस्सियां तुड़ा-तुड़ाकर भागे और गजेन्द्र भी सिर पर पांव रखकर भागे, सरपट, और सीधे घर पर आकर दम लिया। चुन्नू और मुन्नू दोनों घबड़ा गए। सूबेदार साहब के होश उड़ गए। तीनों आदमी बगटुट दौड़े हुए गजेन्द्र के पीछे चले। दूसरों ने जो उन्हें भागते देखा तो समझे शायद कोई वारदात हो गई। सबके सब उनके पीछे हो लिए। गांव में एक प्रतिष्ठित अतिथि का आना मामूली बात न थी। सब एक-दूसरे से पूछ रहे थे—मेहमान को हो क्या गया? माजरा क्या हैं? क्यों यह लोग दौड़े जा रहे हैं।
एक पल में सैकड़ों आदमी सूबेदार साहब के दरवाजे पर हाल-चाल पूछने लिए जमा हो गए। गांव का दामाद कुरुप होने पर भी दर्शनीय और बदहाल होते हुए भी सबका प्रिय होता है।
सूबेदार ने सहमी हुई आवाज में पूछा-तुम वहां से क्यों भाग आए, भइया।
गजेन्द्र को क्या मालूम था कि उसके चले आने से यह तहलका मच जाएगा। मगर उसके हाजिर दिमाग ने जवाब सोच लिया था और जवाब भी ऐसा कि गांव वालों पर उसकी अलौकिक दृष्टि की धाक जमा दे।
बोला—कोई खास बात न थी, दिल में कुछ ऐसा ही आया कि यहां से भाग जाना चाहिए।
‘नहीं, कोई बाता जरुर थी।’
‘आप पूछकर क्या करेंगे? मैं उसे जाहिर करके आपके आन्नद में विध्न ’नहीं डालना चाहता।’
‘जब तक बतला न दोगे बेटा, हमें तसल्ली नहीं होगी। सारा गांव घबराया हुआ है।’
गजेन्द्र ने फिर सूफियों का-सा चेहरा बनाया, आंखें बन्द कर लीं, जम्हाइयां लीं और आसमान की तरफ देखकर- बोले –बात यह है कि ज्यों ही मैंने महताबी हाथ में ली, मुझे मालूम हुआ जैसे किसी ने उसे मेरे हाथ से छीनकर फेंक दिया। मैंने कभी आतिशबाजियां नहीं छोड़ी, हमेशा उनको बुरा—भला कहता रहा हूं। आज मैंने वह काम किया जो मेरी अन्तरात्मा के खिलाफ था। बस गजब ही तो हो गया। मुझे ऐसा मालूम हुआ जैसे मेरी आत्मा मुझे धिक्कार रही है। शर्म से मेरी गर्दन झुक गई और मैं इसी हालत में वहां से भागा। अब आप लोग मुझे माफ करें मैं आपको जशन में शरीक न हो सकूंगा।
सूबेदारा साहब ने इस तरह गर्दन हिलाई कि जैसे उनके सिवा वहां कोई इस अध्यात्मा का रहस्य नहीं समझ सकता। उनकी आंखें कह रही थीं—आती हैं तुम लोगों की समझ में यह बातें? तुम भला क्या समझोगे, हम भी कुछ-कुछ ही समझते हैं।
होली तो नियत समय जलाई गई थी मगर आतिशबाजीयां नदी में डाल दी गईं। शरीर लड़को ने कुछ इसलिए छिपाकर रख लीं कि गजेन्द्र चले जाएंगे तो मजे से छुड़ाएंगे।
श्यामदुलारी ने एकान्त में कहा—तुम तो वहां से खूब भागो
गजेन्द्र अकड़ कर बोले-भागता क्यों, भागने की तो कोई बात न थी।
‘मेरी तो जान निकल गई कि न मालूम क्या हो गया। तुम्हारे ही साथ मैं भी दौड़ी आई। टोकीर-भर आतिशबाजी पानी में फेंक दी गई।’
‘यह तो रुपये को आग में फूकना है।’
‘यह तो रुपये को आग में फूंकना हैं।’
‘होली में भी न छोड़े तो कब छोड़े। त्यौहार इसीलिए तो आते हैं।’
‘त्यौहार में गाओ-बजाओ, अच्छी-अच्छी चीजें पकाओ-खाओ, खैरात करो, या-दोस्तों से मिलों, सबसे मुहब्बत से पेश आओ, बारुद उड़ने का नाम त्यौहार नहीं है।’
रात को बारह बज गये थे। किसी ने दरवाजे पर धक्का मारा, गजेन्द्र ने चौंककर पूछा—यह धक्का किसने मारा?
श्यामा ने लापरवाही से कहा-बिल्ली-बिल्ली होगी।
कई आदमियों के फट-फट करने की आवाजें आईं, फिर किवाड़ पर धक्का पड़ा। गजेन्द्र को कंपकंपी छूट गई, लालटेन लेकर दराज से झांक तो चेहरे का रंग उड़ गया—चार-पांच आदमी कुर्ते पहने, पगड़ियां बाधे, दाढ़ियां लगाये, कंधे पर बन्दूकें रखे, किवाड़ को तोड़ डालने की जबर्दस्त कोशिश में लगे हुए थे। गजेन्द्र कान लगाकर बातें सुनने लगा—
‘दोनों सो गये हैं, किवाड़ तोड़ डालो, माल अलमारी में है।’
‘और अगर दोनों जाग गए?’
‘औरत क्या कर सकती हैं, मर्द का चारपाई से बांध देंगे।’
‘सुनते है गजेन्द्र सिंह कोई बड़ा पहलवान हैं।’
‘कैसा ही पहलवान हो, चार हथियारबन्द आदमियों के सामने क्या कर सकता है।’
गजेन्द्र के कोटो तो बदन में खून नहीं शयामदुलारी से बोले-यह डाकू मालूम होते हैं। अब क्या होगा, मेरे तो हाथ-पांव कांप रहे है
चोर-चोर पुकारो, जाग हो जाएगी, आप भाग जाएगे। नहीं मैं चिलाती हूं। चोर का दिल आधा।’
‘ना-ना, कहीं ऐसा गजब न करना। इन सबों के पास बन्दूके हैं। गांव में इतना सन्नाटा क्यों हैं? घर के आदमी क्या हुए?’
‘भइया और मुन्नू दादा खलिहान में सोने गए हैं, काक दरवाजें पर पड़े होंगे, उनके कानों पर तोप छूटे तब भी न जागेंगे।’
‘इस कमरे में कोई दूसरी खिड़की भी तो नहीं है कि बाहर आवाज पहुंचे। मकान है या कैदखाने’
‘मै तो चिल्लाती हूं।’
‘अरे नहीं भाई, क्यों जान देने पर तुली हो। मैं तो सोचता हूं, हम दोनों चुपचाप लेट जाएं और आंखें बन्द कर लें। बदमाशों को जो कुछ ले जाना हो ले जांए, जान तो बचे। देखों किवाड़ हिल रहे हैं। कहीं टूट न जाएं। हे ईश्वर, कहां जाएं, इस मुसीबत में तुम्हारा ही भरोससा है। क्या जानता था कि यह आफत आने वाली हैं, नही आता ही क्यों? बसा चुप्पी ही साध लो। अगर हिलाएं-विलाएं तो भी सांस मत लेना।’
‘मुझसे तो चुप्पी साधकर पड़ा न रहा जाएगा।’
‘जेवर उतारकर रख क्यों नहीं देती, शैतान जेवर ही तो लेंगे।’
‘जेवर तो न उतारुंगी चाहे कुछ ही क्यों न हो जाय।’
‘क्यों जान देने पर तुली हुई हो?’
खुशी से तो जेवर न उतारुंगी, जबर्दस्त ओर बात हैं’
खामोशी, सुनो सब क्या बातें कर रहे हैं।’
बाहर से आवाज आई—किवाड़ खोल दो नहीं तो हम किवाड़ तोड़ कर अन्दर आ जाएंगे।
गजेन्द्र श्यामदुलीरी की मिन्नत की—मेरी मानो श्यामा, जेवर उतारकर रख दो, मैं वादा करता हूं बहूत जल्दी नये जेवर बनवा दूंगा।
बाहर से आवाज आई-क्यों, आई! बस एक मिनट की मुहलत और देते हैं, अगर किवाड़ न खोले तो खैरियत नहीं।
गजेन्द्र ने श्यामदुलारी से पूछा—खोल दूं?
‘हा, बुला लो तुम्हारे भाई-बन्द हैं? वह दरवाजे को बाहर से ढकेलते हैं, तुम अन्दर से बाहर को ठेली।’
‘और जो दरवाजा मेरे ऊपर गिर पड़े? पांच-पांच जवान हैं!’
‘वह कोने में लाठी रखी है, लेकर खड़े हो जाओ।’
‘तुम पागल हो गई हो।’
‘चुन्नी दादा होते तो पांचों का गिरते।’
‘मैं लट्टाबाज नहीं हूं।’
‘तो आओ मुंह ढांपकर लेट जाओं, मैं उन सबों से समझ लूंगी।’
‘तुम्हें तो और समझकर छोड़ देंगे, माथे मेरे जाएगी।’
‘मैं तो चिल्लाती हूं।’
‘तुम मेरी जान लेकर छोड़ोगी!
‘मुझसे तो अब सब्र नहीं होता, मैं किवाड़ खोल देती हूं।’
उसने दरवाजा खोल दिया। पांचों चोर में भड़भड़कर घुस आए। एक ने अपने साथी से कहा—मैं इस लौंडे को पकड़े हुए हूं तुम औरत के सारे गहने उतार लो।
दूसरा बोला-इसने तो आंखों बन्द कर लीं। अरे, तुम आंखें क्यों नहीं खोलती जी?
तीसरा-यार, औरत तो हसीन है!
चौथा—सुनती है ओ मेहरिया, जेवर दे दे नहीं गला घोंट दूंगा।
गजेन्द्र दिल में बिगड़ रहे थे, यह चुड़ैल जेवर क्यों नही उतार देती।
श्यामादुलीरी ने कहा—गला घोंट दो, चाहे गोली मार दो जेवर न उतारूंगी।
पहला—इस उठा ले चलो। यों न मानेगी, मन्दिर खाली है।
दूसरा—बस, यही मुनासिब है, क्यों रे छोकरी, हामारे साथ चलेगी?
श्यामदुलारी—तुम्हारे मुहं में कालिख लगा दूंगी।
तीसरा—न चलेगी तो इस लौंडे को ले जाकर बेच डालेंगे।
श्यामा—एक-एक के हथकड़ी लगवा दूंगा।
चौथा—क्यों इतना बिगड़ती है महारानी, जरा हमारे साथ चली क्यो नहीं चलती। क्या हम इस लौंडें से भी गये-गुजरे है। क्या रा जाएगा, अगर हम तुझे जबर्दस्ती उठा ले जाएंगे। यों सीधी तरह नहीं मानती हो। तुम जैसी हसीन औरत पर जुल्म करने को जी नहीं चाहता।
पांचवां—या तो सारे जेवर उतारकर दे दो या हमारे साथ चालो।
श्यामदुलारी—काका आ आएंगे तो एक-एक की खाल उधेड़ डालेंगे।
पहला—यह यों न मानेगी,ख् इस लौंडें को उठा ले चलो। तब आप ही पैरों पड़ेगी।
दो आदमियों ने एक चादर से गजेन्द्र के हाथ-पांव बांधे। गजेन्द्र मुर्दे की तरह पड़े हुए थे, सांस तक न आती थी, दिल में झुंझला रहे थे—हाय कितनी बेवफा औरत है, जेवर न देगी चाहे यह सब मुझे जान से मार डालें। अच्छा, जिन्दा बचूंगा तो देखूंगा। बात तक तो पूछं नहीं।
डाकूओं ने गजेन्द्र को उठा लिया और लेकर आंगन में जा पहुंचे तो श्यामदुलारी दरवाजे पर खड़ी होकर बोली—इन्हें छोड़ दो तो मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूं।
पहला—पहले ही क्यों न राजी हो गई थी। चलेगी न?
श्यामदुलारी—चलूंगी। कहती तो हूं
तीसरा—अच्छा तो चल। हम इसे इसे छोड़ देते है।
दोनों चोरों पे गजेन्द्र को लाकर चारपाई पर लिटा दिया और श्यामदुलारी को लेकर चले दिए। कमरे में सन्नटा छा गया। गजेन्द्र ने डरते-डरते आंखें खोलीं, कोई नजर ल आया। उठकर दरवाजे से झांका। सहन में भी कोई न था। तीर की तरह निकलकर सदर दरवाजे पर आए लेकिन बाहर निकलने का हौसला न हुआ। चाहा कि सूबेदार साहब को जगाएं, मुंह से आवाज न निकली।
उसी वक्त कहकहे की आवाज आई। पांच औरतें चुहल करती हुई श्यामदुलारी के कमरे में आईं। गजेन्द्र का वहां पता न था।
एक—कहां चले गए?
श्यामदुलारी—बाहर चले गए होगें।
दूसरी—बहुत शर्मिन्दा होंगे।
तीसरी—डरके मारे उनकी सांस तक बन्द हो गई थी।
गजेन्द्र ने बोलचाल सुनी तो जान में जान आई। समझे शायद घर में जाग हो गईं। लपककर कमरे के दरवाजें पर आए और बोले—जरा देखिए श्यमा कहां हैं, मेरी तो नींद ही न खुली। जल्द किसी को दौड़ाइए।
यकायक उन्हीं औरतों के बीच में श्यामा को खड़क हंसते देखकर हैरत में आ गए।
पांचों सहेलियों ने हंसना और तालियां पीटना शुरु कर दिया।
एक ने कहा—वाह जीजा जी, देख ली आपकी बहादुरी।
श्यामदुलारी—तुम सब की सब शैतानी हो।
तीसीर—बीवी तो चारों के साथ चली गईं और आपने सांस तक न ली!
गजेन्द्र समझ गए, बड़ा धोखा खाया। मगर जबान के शेर फौरन बिगड़ी बात बना ली, बाले—तो क्या करता, तुम्हारा स्वांग बिगाड़ देता! मैं भी इस तमाशे का मजा ले रहा था। अगर सबों को पकड़कर मूंछे उखाड़ लेता तो तुम कितन शर्मिन्दा होतीं। मैं इतना बेहरहम नहीं हूं।
सब की गजेन्द्र का मुंह देखती रह गईं।