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मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

पंचवटी पृष्ठ ७

कह सकते हो तुम कि चन्द्र का, कौन दोष जो ठगा चकोर?

किन्तु कलाधर ने डाला है, किरण-जाल क्यों उसकी ओर?

दीप्ति दिखाता यदि न दीप तो, जलता कैसे कूद पतंग?

वाद्य-मुग्ध करके ही फिर क्या, व्याध पकड़ता नहीं कुरंग?


लेकर इतना रूप कहो तुम, दीख पड़े क्यों मुझे छली?

चले प्रभात वात फिर भी क्या, खिले न कोमल-कमल कली?"

कहने लगे सुलक्षण लक्ष्मण-"हे विलक्षणे, ठहरो तुम;

पवनाधीन पताका-सी यों, जिधर-तिधर मत फहरो तुम।


जिसकी रूप-स्तुति करती हो, तुम आवेग युक्त इतनी,

उसके शील और कुल की भी, अवगति है तुमको कितनी?"

उत्तर देती हुई कामिनी, बोली अंग शिथिल करके-

"हे नर, यह क्या पूछ रहे हो, अब तुम हाय! हृदय हरके?


अपना ही कुल-शील प्रेम में, पड़कर नहीं देखतीं हम,

प्रेम-पात्र का क्या देखेंगी, प्रिय हैं जिसे लेखतीं हम?

रात बीतने पर है अब तो, मीठे बोल बोल दो तुम;

प्रेमातिथि है खड़ा द्वार पर, हृदय-कपाट खोल दो तुम।"


"हा नारी! किस भ्रम में है तू, प्रेम नहीं यह तो है मोह;

आत्मा का विश्वास नहीं यह, है तेरे मन का विद्रोह!

विष से भरी वासना है यह, सुधा-पूर्ण वह प्रीति नहीं;

रीति नहीं, अनरीति और यह, अति अनीति है, नीति नहीं॥


आत्म-वंचना करती है तू, किस प्रतीति के धोखे से;

झाँक न झंझा के झोंके में, झुककर खुले झरोखे से!

शान्ति नहीं देगी तुझको यह, मृगतृष्णा करती है क्रान्ति,

सावधान हो मैं पर नर हूँ, छोड़ भावना की यह भ्रान्ति॥"


इसी समय पौ फटी पूर्व में, पलटा प्रकृति-पटी का रंग।

किरण-कण्टकों से श्यामाम्बर फटा, दिवा के दमके अंग।

कुछ कुछ अरुण, सुनहली कुछ कुछ, प्राची की अब भूषा थी,

पंचवटी की कुटी खोलकर, खड़ी स्वयं क्या ऊषा थी!


अहा! अम्बरस्था ऊषा भी, इतनी शुचि सस्फूर्ति न थी,

अवनी की ऊषा सजीव थी, अम्बर की-सी मूर्ति न थी।

वह मुख देख, पाण्डु-सा पड़कर, गया चन्द्र पश्चिम की ओर;

लक्ष्मण के मुँह पर भी लज्जा, लेने लगी अपूर्व हिलोर॥


चौंक पड़ी प्रमदा भी सहसा, देख सामने सीता को,

कुमुद्वती-सी दबी देख वह, उस पद्मिनी पुनीता को।

एक बार ऊषा की आभा, देखी उसने अम्बर में,

एक बार सीता की शोभा, देखी बिगताडम्बर में।


एक बार अपने अंगो की, ओर दृष्टि उसने डाली,

उलझ गई वह किन्तु,--बीच में, थी विभूषणों की जाली।

एक बार फिर वैदेही के, देखे अंग अदूषण वे,

सनक्षत्र अरुणोदय ऐसे-रखते थे शुभ भूषण वे॥

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