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मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

पंचवटी पृष्ठ ४

यदि बाधाएँ हुईं हमें तो, उन बाधाओं के ही साथ,

जिससे बाधा-बोध न हो, वह सहनशक्ति भी आई हाथ।

जब बाधाएँ न भी रहेंगी, तब भी शक्ति रहेगी यह,

पुर में जाने पर भी वन की, स्मृति अनुरक्ति रहेगी यह॥


नहीं जानती हाय! हमारी, माताएँ आमोद-प्रमोद,

मिली हमें है कितनी कोमल, कितनी बड़ी प्रकृति की गोद।

इसी खेल को कहते हैं क्या, विद्वज्जन जीवन-संग्राम?

तो इसमें सुनाम कर लेना, है कितना साधारण काम!


"बेचारी उर्मिला हमारे, लिए व्यर्थ रोती होगी,

क्या जाने वह, हम सब वन में, होंगे इतने सुख-भोगी।"

मग्न हुए सौमित्रि चित्र-सम, नेत्र निमीलित एक निमेष,

फिर आँखें खोलें तो यह क्या, अनुपम रूप, अलौकिक वेश!


चकाचौंध-सी लगी देखकर, प्रखर ज्योति की वह ज्वाला,

निस्संकोच, खड़ी थी सम्मुख, एक हास्यवदनी बाला!

रत्नाभरण भरे अंगो में, ऐसे सुन्दर लगते थे--

ज्यों प्रफुल्ल बल्ली पर सौ सौ, जुगनूँ जगमग जगते थे!


थी अत्यन्त अतृप्त वासना, दीर्घ दृगों से झलक रही,

कमलों की मकरन्द-मधुरिमा, मानो छवि से छलक रही।

किन्तु दृष्टि थी जिसे खोजती, मानो उसे पा चुकी थी,

भूली-भटकी मृगी अन्त में अपनी ठौर आ चुकी थी॥


कटि के नीचे चिकुर-जाल में, उलझ रहा था बायाँ हाथ,

खेल रहा हो ज्यों लहरों से, लोल कमल भौरों के साथ।

दायाँ हाथ इस लिए था सुरभित--चित्र-विचित्र-सुमन-माला,

टाँगा धनुष कि कल्पलता पर, मनसिज ने झूला डाला!


पर सन्देह-दोल पर ही था, लक्ष्मण का मन झूल रहा,

भटक भावनाओं के भ्रम में, भीतर ही था भूल रहा।

पड़े विचार-चक्र में थे वे, कहाँ न जाने कूल रहा;

आज जागरित-स्वप्न-शाल यह, सम्मुख कैसा फूल रहा!


देख उन्हें विस्मित विशेष वह, सुस्मितवदनी ही बोली-

(रमणी की मूरत मनोज्ञ थी, किन्तु न थी सूरत भोली)

"शूरवीर होकर अबला को, देख सुभग, तुम थकित हुए;

संसृति की स्वाभाविकता पर, चंचल होकर चकित हुए!


प्रथम बोलना पड़ा मुझे ही, पूछी तुमने बात नहीं,

इससे पुरुषों की निर्ममता, होती क्या प्रतिभास नहीं?"

सँभल गये थे अब तक लक्ष्मण, वे थोड़े से मुसकाये,

उत्तर देते हुए उसे फिर, निज गम्भीर भाव लाये-


"सुन्दरि, मैं सचमुच विस्मित हूँ, तुमको सहसा देख यहाँ,

ढलती रात, अकेली बाला, निकल पड़ी तुम कौन कहाँ?

पर अबला कहकर अपने को, तुम प्रगल्भता रखती हो,

निर्ममता निरीह पुरुषों में, निस्सन्देह निरखती हो!

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