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रविवार, 10 अप्रैल 2011

संजीवन-घन दो

जो त्रिकाल-कूजित संगम है, वह जीवन-क्षण दो,
मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो।

माँग रहा जनगण कुम्हलाया
बोधिवृक्ष की शीतल छाया,


सिरजा सुधा, तृषित वसुधा को संजीवन-घन दो।
मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो।

तप कर शील मनुज का साधें,
जग का हृदय हृदय से बाँध,

सत्य हेतु निष्ठा अशोक की, गौतम का प्रण दो।
मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो।

देख सकें सब में अपने को,
महामनुजता के सपने को,

हे प्राचीन! नवीन मनुज को वह सुविलोचन दो।
मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो।

खँडहर की अस्तमित विभाओ,
जगो, सुधामयि! दरश दिखाओ,

पीड़ित जग के लिए ज्ञान का शीतल अंजन दो।
मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो।

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