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रविवार, 17 जुलाई 2011

वसंत {सुमित्रानंदन पंत }

चंचल पग दीपशिखा के धर
गृह मग वन में आया वसंत।
सुलगा फागुन का सूनापन
सौंदर्य शिखाओं में अनंत।
सौरभ की शीतल ज्वाला से
फैला उर-उर में मधुर दाह
आया वसंत भर पृथ्वी पर
स्वर्गिक सुंदरता का प्रवाह।
पल्लव पल्लव में नवल रुधिर
पत्रों में मांसल रंग खिला
आया नीली पीली लौ से
पुष्पों के चित्रित दीप जला।
अधरों की लाली से चुपके
कोमल गुलाब से गाल लजा
आया पंखड़ियों को काले -
पीले धब्बों से सहज सजा।
कलि के पलकों में मिलन स्वप्न
अलि के अंतर में प्रणय गान
लेकर आया प्रेमी वसंत-
आकुल जड़-चेतन स्नेह-प्राण।

मोह {सुमित्रानंदन पंत }

छोड़ द्रुमों की मृदु छाया
तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले तेरे बाल जाल में
कैसे उलझा दूँ लोचन?
भूल अभी से इस जग को!
तज कर तरल तरंगों को
इन्द्रधनुष के रंगों को
तेरे भ्रूभंगों से कैसे
बिंधवा दूँ निज मृग-सा मन?
भूल अभी से इस जग को!
कोयल का वह कोमल बोल
मधुकर की वीणा अनमोल
कह तब तेरे ही प्रिय स्वर से
कैसे भर लूँ सजनि श्रवण?
भूल अभी से इस जग को!
उषा सस्मित किसलय दल
सुधा रश्मि से उतरा जल
ना अधरामृत ही के मद में
कैसे बहाला दूँ जीवन?
भूल अभी से इस जग को!