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मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

ममता {जयशंकर प्रसाद }

रोहतास-दुर्ग के प्रकोष्ठ में बैठी हुई युवती ममता, शोण नदी के तीक्ष्ण गंभीर प्रवाह को देख रही है। ममता विधवा थी। उसका यौवन शोण के समान ही उमड़ रहा था। मन में वेदना, मस्तक में आंधी, आंखों में पानी की बरसात लिए वह सुख के कंटक-शयन में विकल थी। वह रोहताश दुर्गपति के मंत्री चूड़ामणि की अकेली दुहिता थी, फिर उसके लिए कुछ अभाव होना असंभव था, परंतु वह विधवा थी... हिंदू-विधवा संसार में सबसे तुच्छ निराश्रय प्राणी है तब उसकी विडंबना का कहां अंत था?

चूड़ामणि ने चुपचाप उसके प्रकोष्ठ में प्रवेश किया। शोण के प्रवाह में, उसके कल-नाद में, अपना जीवन मिलाने में वह बेसुध थी। पिता का आना न जान सकी। चूड़ामणि व्यथित हो उठे। स्नेहपालिता पुत्री के लिए क्या करें, यह स्थिर न कर सकते थे। लौटकर बाहर चले गए। ऐसा प्राय: होता, पर आज मंत्री के मन में बड़ी दुश्चिंता थी। पैर सीधे न पड़ते थे।

एक पहर बीत जाने पर वे फिर ममता के पास आए। उस समय उनके पीछे दस सेवक चांदी के बड़े थालों में कुछ लिए हुए खड़े थे; कितने ही मनुष्यों के पद-शब्द सुन ममता ने घूमकर देखा। मंत्री ने सब थालों को रखने का संकेत किया। अनुचर थाल रखकर चले गए।

ममता ने पूछा, 'यह क्या है पिताजी?'

' तेरे लिए बेटी! उपहार है।' चूड़ामणि ने उसका आवरण उलट दिया। स्वर्ण का पीलापन उस सुनहली संध्या में विकीर्ण होने लगा। ममता चौंक उठी, 'इतना स्वर्ण। यह कहां से आया?'

' चुप रहो ममता, यह तुम्हारे लिए है।'

' तो क्या आपने म्लेच्छ का उत्कोच स्वीकार कर लिया? पिताजी! यह अनर्थ है, अर्थ नहीं। लौटा दीजिए। हम लोग ब्राह्मण हैं, इतना सोना लेकर क्या करेंगे?'

इस पतनोन्मुख प्राचीन सामंत-वंश का अंत समीप है, बेटी। किसी भी दिन शेरशाह रोहिताश्व पर अधिकार कर सकता है; उस दिन मंत्रित्व न रहेगा, तब के लिए बेटी!'

' हे भगवान, तबके लिए! विपद के लिए! इतना आयोजन! परम पिता की इच्छा के विरुद्ध इतना साहस! पिताजी, क्या भीख न मिलेगी? क्या कोई हिंदू भू-पृष्ठ पर न बचा रह जाएगा, जो ब्राह्मण को दो मुट्ठी अन्न दे सके? यह असंभव है। फेर दीजिए पिताजी, मैं कांप रही हूं- इसकी चमक आंखों को अंधा बना रही है।'

' मूर्ख है!' चूड़ामणि चले गए।

दूसरे दिन जब डोलियों का तांता भीतर आ रहा था, ब्राह्मण मंत्री चूड़ामणि का हृदय धक-धक करने लगा। वह अपने को रोक न सका। उसने जाकर रोहिताश्व दुर्ग के तोरण पर डोलियों का आवरण खुलवाना चाहा। पठानों ने कहा, 'यह महिलाओं का अपमान है।'

बात बढ़ गई। तलवारें खिंचीं। ब्राह्मण वहीं मारा गया। राजा-रानी और कोष- सब छली शेरशाह के हाथ पड़े; निकल गई ममता। डोली में भरे हुए पठान सैनिक दुर्ग भर में फैल गए, पर ममता न मिली।

काशी के उत्तर धर्मचक्र विहार, मौर्य और गुप्त, सम्राटों की कीर्ति का खंडहर था। भग्न चूड़ा, तृण गुल्मों से ढके हुए प्राचीर, ईंटों की ढेर में बिखरी हुई भारतीय शिल्प की विभूति, ग्रीष्म की चंदिका में अपने को शीतल कर रही थी।

जहां पंचवर्गीय भिक्षु गौतम का उपदेश ग्रहण करने के लिए पहले मिले थे, उसी स्पूत के भग्नावशेष की मलिन छाया में एक झोपड़ी के दीपालोक में एक स्त्री पाठ कर रही थी,

' अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते...'

पाठ रुक गया। एक भीषण और हताश आकृति दीप के मंद प्रकाश में सामने खड़ी थी। स्त्री उठी, उसने कपाट बंद करना चाहा। परंतु उस व्यक्ति ने कहा, 'माता! मुझे आश्रय चाहिए।'

' तुम कौन हो?' स्त्री ने पूछा।

' मैं मुगल हूं। चौसा युद्ध में शेरशाह से विपन्न होकर रक्षा चाहता हूं। इस रात अब आगे चलने में असमर्थ हूं।'

' क्या शेरशाह से!' स्त्री ने होंठ काट लिए।

' हां, माता।'

' परंतु तुम भी वैसे ही क्रूर हो, वही भीषण रक्त की प्यास, वही निष्ठुर प्रतिबिंब, तुम्हारे मुख पर भी है! सैनिक! मेरी कुटी में स्थान नहीं, जाओ कहीं दूसरा आश्रय खोज लो।'

' गला सूख रहा है- साथी छूट गए हैं, अश्व गिर पड़ा है- इतना थका ह़आ हूं, इतना कहते-कहते वह व्यक्ति धम-से बैठ गया और उसके सामने ब्रह्मांड घूमने लगा। स्त्री ने सोचा, यह विपत्ति कहां से आई! उसने जल दिया, मुगल के प्राणों की रक्षा हुई। वह सोचने लगी, 'सब विधर्मी दया के पात्र नहीं, मेरे पिता का वध करने वाले आततायी!' घृणा से उसका मन विरक्त हो गया।

स्वस्थ होकर मुगल ने कहा, 'माता! तो फिर मैं चला जाऊं, स्त्री विचार कर रही थी, 'मैं ब्राह्मणी हूं, मुझे तो अपने धर्म अतिथिदेव की उपासना का पालन करना चाहिए। परंतु यहां... नहीं, नहीं, सब विधर्मी दया के पात्र नहीं। परंतु यह दया तो नहीं... कर्तव्य करना है। तब?'

मुगल अपनी तलवार टेक कर उठ खड़ा हुआ। ममता ने कहा, 'क्या आश्चर्य है कि तुम भी छल करो; ठहरो।'

' छल! नहीं, तब नहीं स्त्री! जाता हूं, तैमूर का वंशधर स्त्री से छल करेगा? जाता हूं। भाग्य का खेल है।'

ममता ने मन में कहा, 'यहां कौन दुर्ग है! यही झोपड़ी न; जो चाहे ले ले, मुझे तो अपना कर्तव्य करना पड़ेगा।' वह बाहर चली आई और मुगल से बोली, 'जाओ भीतर, थके हुए भयभीत पथिक! तुम चाहे कोई हो, मैं तुम्हें आश्रय देती हूं। मैं ब्राह्मणी-कुमारी हूं; सब अपना धर्म छोड दें, तो मैं भी क्यों छोड़ दूं?' मुगल ने चंद्रमा के मंद प्रकाश में वह महिमामय मुखमंडल देखा, उसने मन ही मन नमस्कार किया। ममता पास की टूटी हुई दीवारों में चली गई। भीतर, थके पथिक ने झोपड़ी में विश्राम किया।

प्रभात में खंडहर की संधि से ममता ने देखा, सैकड़ों अश्वारोही उस प्रांत में घूम रहे हैं। वह अपनी मूर्खता पर अपने को कोसने लगी। अब उस झोपड़ी से निकलकर उस पथिक ने कहा, 'मिरजा! मैं यहां हूं।'

शब्द सुनते ही प्रसन्नता की चीत्कार ध्वनि से वह प्रांत गूंज उठा। ममता अधिक भयभीत हुई। पथिक ने कहा, 'वह स्त्री कहां है? उसे खोज निकालो।' ममता छिपने के लिए अधिक सचेष्ट हुई। वह मृग-दाव में चली गई। दिन भर उसमें से न निकली। संध्या में जब उन लोगों को जाने का उपक्रम हुआ, तो ममता ने सुना, पथिक घोड़े पर सवार होते हुए कह रहा है, 'मिरजा! उस स्त्री को मैं कुछ न दे सका। उसका घर बनवा देना, क्योंकि मैंने विपत्ति में यहां विश्राम पाया था। यह स्थान भूलना मत।' इसके बाद वे चले गए।

चौसा के मुगल-पठान युद्ध को बहुत दिन बीत गए। ममता अब सत्तर वर्ष की वृद्धा है। वह अपनी झोपड़ी में एक दिन पड़ी थी। शीतकाल का प्रभात था। उसका जीर्ण कंकाल खांसी से गूंज रहा था। ममता की सेवा के लिए गांव की दो-तीन स्त्रियां उसे घेरकर बैठी थीं, क्योंकि वह आजीवन सबके सुख-दुख की समभागिनी रही।

ममता ने जल पीना चाहा, एक स्त्री ने सीपी से जल पिलाया। सहसा एक अश्वारोही उसी झोपड़ी के द्वार पर दिखाई पड़ा। वह अपनी धुन में कहने लगा, 'मिरजा ने जो चित्र बनाकर दिया है, वह तो इसी जगह का होना चाहिए। वह बुढि़या मर गई होगी, अब किससे पूछूं कि एक दिन शहंशाह हुमायूं किस छप्पर के नीचे बैठे थे? यह घटना भी तो सैंतालीस वर्ष से ऊपर की हुई!'

ममता ने अपने विकल कानों से सुना। उसने पास की स्त्री से कहा, 'उसे बुलाओ।'

अश्वारोही पास आया। ममता ने रुक-रुक कर कहा, 'मैं नहीं जानती कि वह शंहशाह था या साधारण मुगल; पर एक दिन इसी झोपड़ी के नीचे वह रहा। मैंने सुना था कि वह मेरा घर बनवाने की आज्ञा दे चुका था। मैं आजीवन अपनी झोपड़ी खोदवाने के डर से भयभीत ही थी। भगवान से सुन लिया, मैं आज इसे छोड़े जाती हूं। अब तुम इसका मकान बनाओ या महल, मैं अपने चिर विश्राम-गृह में जाती हूं।'

वहां एक अष्टकोण बना और उस पर शिलालेख लगा- 'सातों देश के नरेश हुमायूं ने एक दिन यहां विश्राम किया था। उनके पुत्र अकबर ने उनकी स्मृति में यह गगनचुंबी मंदिर बनाया।' पर उसमें ममता का कहीं नाम नहीं।

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