समस्त रचनाकारों को मेरा शत शत नमन .....

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

पंचवटी पृष्ठ १०

जो कह दिया, उसे कहने में, फिर मुझको संकोच नहीं,

अपने भावी जीवन का भी, जी में कोई सोच नहीं।

मन में कुछ वचनों में कुछ हो, मुझमें ऐसी बात नहीं;

सहज शक्ति मुझमें अमोघ है, दाव, पेंच या घात नहीं॥


मैं अपने ऊपर अपना ही, रखती हूँ, अधिकार सदा,

जहाँ चाहती हूँ, करती हूँ, मैं स्वच्छन्द विहार सदा,

कोई भय मैं नहीं मानती, समय-विचार करूँगी क्या?

डरती हैं बाधाएँ मुझसे, उनसे आप डरूँगी क्या?


अर्द्धयामिनी होने पर भी, इच्छा हो आई मन में,

एकाकिनी घूमती-फिरती, आ निकली मैं इस वन में।

देखा आकर यहाँ तुम्हारे, प्राणानुज ये बैठे हैं,

मूर्ति बने इस उपल शिला पर, भाव-सिन्धु में पैठे हैं॥


सत्य मुझे प्रेरित करता है, कि मैं उसे प्रकटित कर दूँ,

इन्हें देख मन हुआ कि इनके-आगे मैं उसको धर दूँ।

वह मन, जिसे अमर भी कोई, कभी क्षुब्ध कर सका नहीं;

कोई मोह, लोभ भी कोई, मुग्ध, लुब्ध कर सका नहीं॥


इन्हें देखती हुई आड़ में, बड़ी देर मैं खड़ी रही,

क्या बतलाऊँ किन हावों में, किन भावों में पड़ी रही?

फिर मानों मन के सुमनों से, माला एक बना लाई,

इसके मिस अपने मानस की, भेंट इन्हें देने आई॥


पर ये तो बस-’कहो, कौन तुम?’ करने लगे प्रश्न छूँछा,

यह भी नहीं-’चाहती हो क्या’, जैसा अब तुमने पूँछा।

चाहे दोनों खरे रहें या, निकलें दोनों ही खोटे,

बड़े सदैव बड़े होते हैं, छोटे रहते हैं छोटे॥


तुम सबका यह हास्य भले ही, करता हो मेरा उपहास,

किन्तु स्वानुभव, स्वविचारों पर, है मुझको पूरा विश्वास।

तो अब सुनो, बड़े होने से, तुममें बड़ी बड़ाई है,

दृढ़ता भी है, मृदुता भी है, इनमें एक कड़ाई है॥


पहनो कान्त, तुम्हीं यह मेरी, जयमाला-सी वरमाला,

बने अभी प्रासाद तुम्हारी, यह एकान्त पर्णशाला!

मुझे ग्रहण कर इस आभा से, भूल जायेंगे ये भ्रू-भंग,

हेमकूट, कैलास आदि पर, सुख भोगोगे मेरे संग॥"


मुसकाईं मिथिलेशनन्दिनी-"प्रथम देवरानी, फिर सौत;

अंगीकृत है मुझे, किन्तु तुम, माँगो कहीं न मेरी मौत।

मुझे नित्य दर्शन भर इनके, तुम करती रहने देना,

कहते हैं इसको ही--अँगुली, पकड़ प्रकोष्ठ पकड़ लेना!


रामानुज ने कहा कि "भाभी, है यह बात अलीक नहीं-

औरों के झगड़े में पड़ना, कभी किसी को ठीक नहीं।

पंचायत करने आई थीं, अब प्रपंच में क्यों न पड़ो,

वंचित ही होना पड़ता है, यदि औरों के लिए लड़ो॥"

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