मेरे नगपति! मेरे विशाल!
- साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
- पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल!
- मेरी जननी के हिम-किरीट!
- मेरे भारत के दिव्य भाल!
- मेरे नगपति! मेरे विशाल!
- मेरे नगपति! मेरे विशाल!
- युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त,
- युग-युग गर्वोन्नत, नित महान,
- निस्सीम व्योम में तान रहा
- युग से किस महिमा का वितान?
- कैसी अखंड यह चिर-समाधि?
- यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान?
- तू महाशून्य में खोज रहा
- किस जटिल समस्या का निदान?
- उलझन का कैसा विषम जाल?
- मेरे नगपति! मेरे विशाल!
- मेरे नगपति! मेरे विशाल!
- ओ, मौन, तपस्या-लीन यती!
- पल भर को तो कर दृगुन्मेष!
- रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल
- है तड़प रहा पद पर स्वदेश।
- सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र,
- गंगा, यमुना की अमिय-धार
- जिस पुण्यभूमि की ओर बही
- तेरी विगलित करुणा उदार,
- जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त
- सीमापति! तू ने की पुकार,
- 'पद-दलित इसे करना पीछे
- पहले ले मेरा सिर उतार।'
- उस पुण्यभूमि पर आज तपी!
- रे, आन पड़ा संकट कराल,
- व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे
- डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल।
- मेरे नगपति! मेरे विशाल!
- मेरे नगपति! मेरे विशाल!
- कितनी मणियाँ लुट गईं? मिटा
- कितना मेरा वैभव अशेष!
- तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर
- वीरान हुआ प्यारा स्वदेश।
- वैशाली के भग्नावशेष से
- पूछ लिच्छवी-शान कहाँ?
- ओ री उदास गण्डकी! बता
- विद्यापति कवि के गान कहाँ?
- तू तरुण देश से पूछ अरे,
- गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग?
- अम्बुधि-अन्तस्तल-बीच छिपी
- यह सुलग रही है कौन आग?
- प्राची के प्रांगण-बीच देख,
- जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल,
- तू सिंहनाद कर जाग तपी!
- मेरे नगपति! मेरे विशाल!
- मेरे नगपति! मेरे विशाल!
- रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,
- जाने दे उनको स्वर्ग धीर,
- पर, फिर हमें गाण्डीव-गदा,
- लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।
- कह दे शंकर से, आज करें
- वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार।
- सारे भारत में गूँज उठे,
- 'हर-हर-बम' का फिर महोच्चार।
- ले अंगडाई हिल उठे धरा
- कर निज विराट स्वर में निनाद
- तू शैलीराट हुँकार भरे
- फट जाए कुहा, भागे प्रमाद
- तू मौन त्याग, कर सिंहनाद
- रे तपी आज तप का न काल
- नवयुग-शंखध्वनि जगा रही
- तू जाग, जाग, मेरे विशाल
- साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
रचनाकाल १९३३
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