समस्त रचनाकारों को मेरा शत शत नमन .....

रविवार, 10 अप्रैल 2011

ताण्डव

नाचो, हे नाचो, नटवर !
चन्द्रचूड़ ! त्रिनयन ! गंगाधर ! आदि-प्रलय ! अवढर ! शंकर!

नाचो, हे नाचो, नटवर !


आदि लास, अविगत, अनादि स्वन,
अमर नृत्य - गति, ताल चिरन्तन,

अंगभंगि, हुंकृति-झंकृति कर थिरक-थिरक हे विश्वम्भर !

नाचो, हे नाचो, नटवर !


सुन शृंगी-निर्घोष पुरातन,
उठे सृष्टि-हृंत्‌ में नव-स्पन्दन,
विस्फारित लख काल-नेत्र फिर
काँपे त्रस्त अतनु मन-ही-मन ।


स्वर-खरभर संसार, ध्वनित हो नगपति का कैलास-शिखर ।

नाचो, हे नाचो, नटवर !


नचे तीव्रगति भूमि कील पर,
अट्टहास कर उठें धराधर,
उपटे अनल, फटे ज्वालामुख,
गरजे उथल-पुथल कर सागर ।

गिरे दुर्ग जड़ता का, ऐसा प्रलय बुला दो प्रलयंकर !

नाचो, हे नाचो, नटवर !



घहरें प्रलय-पयोद गगन में,
अन्ध-धूम हो व्याप्त भुवन में,
बरसे आग, बहे झंझानिल,
मचे त्राहि जग के आँगन में,

फटे अतल पाताल, धँसे जग, उछल-उछल कूदें भूधर।

नाचो, हे नाचो, नटवर !



प्रभु ! तब पावन नील गगन-तल,
विदलित अमित निरीह-निबल-दल,
मिटे राष्ट्र, उजडे दरिद्र-जन
आह ! सभ्यता आज कर रही
असहायों का शोणित-शोषण।

पूछो, साक्ष्य भरेंगे निश्चय, नभ के ग्रह-नक्षत्र-निकर !

नाचो, हे नाचो, नटवर !



नाचो, अग्निखंड भर स्वर में,
फूंक-फूंक ज्वाला अम्बर में,
अनिल-कोष, द्रुम-दल, जल-थल में,
अभय विश्व के उर-अन्तर में,


गिरे विभव का दर्प चूर्ण हो,
लगे आग इस आडम्बर में,
वैभव के उच्चाभिमान में,
अहंकार के उच्च शिखर में,


स्वामिन्‌, अन्धड़-आग बुला दो,
जले पाप जग का क्षण-भर में।
डिम-डिम डमरु बजा निज कर में
नाचो, नयन तृतीय तरेरे!
ओर-छोर तक सृष्टि भस्म हो
चिता-भूमि बन जाय अरेरे !

रच दो फिर से इसे विधाता, तुम शिव, सत्य और सुन्दर !

नाचो, हे नाचो, नटवर !

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