मैं जीर्ण-साज बहु छिद्र आज,
तुम सुदल सुरंग सुवास सुमन,
मैं हूँ केवल पतदल--आसन,
तुम सहज बिराजे महाराज।
ईर्ष्या कुछ नहीं मुझे, यद्यपि
मैं ही वसन्त का अग्रदूत,
ब्राह्मण-समाज में ज्यों अछूत
मैं रहा आज यदि पार्श्वच्छबि।
तुम मध्य भाग के, महाभाग!--
तरु के उर के गौरव प्रशस्त
मैं पढ़ा जा चुका पत्र, न्यस्त,
तुम अलि के नव रस-रंग-राग।
देखो, पर, क्या पाते तुम "फल"
देगा जो भिन्न स्वाद रस भर,
कर पार तुम्हारा भी अन्तर
निकलेगा जो तरु का सम्बल।
फल सर्वश्रेष्ठ नायाब चीज
या तुम बाँध कर रँगा धागा;
फल के भी उर का, कटु, त्यागा,
मेरा आलोचक एक बीज
यँहा पर हिन्दी साहित्य के प्रमुख रचनाकार एव कवियो कि अनमोल कृतियों के संकलन करने का प्रयास किया है
शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011
हिन्दी के सुमनों के प्रति पत्र
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