समस्त रचनाकारों को मेरा शत शत नमन .....

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

ज्येष्ठ

(१)

ज्येष्ठ! क्रूरता-कर्कशता के ज्येष्ठ! सृष्टि के आदि!

वर्ष के उज्जवल प्रथम प्रकाश!

अन्त! सृष्टि के जीवन के हे अन्त! विश्व के व्याधि!

चराचर दे हे निर्दय त्रास!

सृष्टि भर के व्याकुल आह्वान!--अचल विश्वास!

देते हैं हम तुम्हें प्रेम-आमन्त्रण,
आओ जीवन-शमन, बन्धु, जीवन-धन!


(२)

घोर-जटा-पिंगल मंगलमय देव! योगि-जन-सिद्ध!

धूलि-धूसरित, सदा निष्काम!

उग्र! लपट यह लू की है या शूल-करोगे बिद्ध

उसे जो करता हो आराम!

बताओ, यह भी कोई रीति? छोड़ घर-द्वार,
जगाते हो लोगों में भीति,--तीव्र संस्कार!--

या निष्ठुर पीड़न से तुम नव जीवन
भर देते हो, बरसाते हैं तब घन!


(३)

तेजःपुंज! तपस्या की यह ज्योति--प्रलय साकार;

उगलते आग धरा आकाश;

पड़ा चिता पर जलता मृत गत वर्ष प्रसिद्ध असार,

प्रकृति होती है देख निराश!

सुरधुनी में रोदन-ध्वनि दीन,--विकल उच्छ्वास,
दिग्वधू की पिक-वाणी क्षीण--दिगन्त उदास;

देखा जहाँ वहीं है ज्योति तुम्हारी,
सिद्ध! काँपती है यह माया सारी।


(४)

शाम हो गई, फैलाओ वह पीत गेरुआ वस्त्र,

रजोगुण का वह अनुपम राग,

कर्मयोग की विमल पताका और मोह का अस्त्र,

सत्य जीवन के फल का--त्याग॥

मृत्यु में, तृष्णा में अभिराम एक उपदेश,
कर्ममय, जटिल, तृप्त, निष्काम; देव, निश्शेष!

तुम हो वज्र-कठोर किन्तु देवव्रत,

होता है संसार अतः मस्तक नत।++



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