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शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

नारायण मिलें हँस अन्त में

याद है वह हरित दिन
बढ़ रहा था ज्योति के जब सामने मैं
देखता
दूर-विस्तॄत धूम्र-धूसर पथ भविष्यत का विपुल
आलोचनाओं से जटिल
तनु-तन्तुओं सा सरल-वक्र, कठोर-कोमल हास सा,
गम्य-दुर्गम मुख-बहुल नद-सा भरा।

थक गई थी कल्पना
जल-यान-दण्ड-स्थित खगी-सी
खोजती तट-भूमि सागर-गर्भ में,
फिर फिरी थककर उसी दुख-दण्ड पर।
पवन-पीड़ित पत्र-सा
कम्पन प्रथम वह अब न था।
शान्ति थी, सब
हट गये बादल विकल वे व्योम के।

उस प्रणय के प्रात के है आज तक
याद मुझको जो किरण
बाल-यौवन पर पड़ी थी;
नयन वे
खींचते थे चित्र अपने सौख्य के।

श्रान्ति और प्रतीति की
चल रही थी तूलिका;
विश्व पर विश्वास छाया था नया।
कल्प-तरु के, नये कोंपल थे उगे।

हिल चुका हूँ मैं हवा में; हानि क्या
यदि झड़ूँ, बहता फिरूँ मैं अन्तहीन प्रवाह में
तब तक न जब तक दूर हो निज ज्ञान--
नारायण मिलें हँस अन्त में।


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