किस स्वप्न-लोक से छवि उतरी?
- ऊपर निरभ्र नभ नील-नील,
- नीचे घन-विम्बित झील-झील।
- उत्तर किरीट पर कनक-किरण,
- पद-तल मन्दाकिनि रजत-वरण।
- छलकी कण-कण में दिव्य सुधा,
- बन रही स्वर्ग मिथिला-वसुधा।
- छलकी कण-कण में दिव्य सुधा,
- ऊपर निरभ्र नभ नील-नील,
- तन की साड़ी-द्युति सघन श्याम
- तरु, लता, धान, दूर्वा ललाम।
- दायें कोशल ले अर्ध्य खड़ा,
- आरती बंग ले वाम-वाम।
- तन की साड़ी-द्युति सघन श्याम
- दूबों से लेकर बाँसों तक,
- गृह-लता, सरित-तट कासों तक,
- हिल रही पवन में हरियाली;
- वसुधा ने कौन सुधा पा ली?
- गाती धनखेतों -बीच परी,
- किस स्वप्न-लोक से छवि उतरी?
- गाती धनखेतों -बीच परी,
- दूबों से लेकर बाँसों तक,
- क्या शरत्-निशा की बात कहूँ?
- जो कुछ देखा था रात, कहूँ?
- निर्मल ऋतु की मुख-भरी हँसी,
- चाँदनी विसुध भू आन खसी;
- मदरसा, विकल, मदमाती-सी,
- अपने सुख में न समाती-सी।
- मदरसा, विकल, मदमाती-सी,
- क्या शरत्-निशा की बात कहूँ?
- गंडकी सुप्त थी रेतों में,
- पंछी चुप नीड़-निकेतों में;
- ‘चुप-चुप’ थी शान्ति सभी घर में;
- चाँदनी सजग थी जग-भर में,
- हाँ, कम्प जरा हरियाली में,
- थी आहट कुछ वैशाली में।
- हाँ, कम्प जरा हरियाली में,
- गंडकी सुप्त थी रेतों में,
- इतने में (उफ़! कविता उमड़ी)
- खँडहर से निकली एक परी;
- गंडकी-कूल खेतों में आ
- हरियाली में हो गई खड़ी।
- लट खुली हुई लहराती थी,
- मुख पर आवरण बनाती थी;
- लट खुली हुई लहराती थी,
- इतने में (उफ़! कविता उमड़ी)
- सपनों में भूल रहा मन था,
- उन्मन दृग में सूनापन था।
- धानी दुकूल गिर धानों पर
- मंजरी-साथ कुछ रहा लहर।
- लम्बी बाँहें गोरी-गोरी
- उँगलियाँ रूप-रस में बोरी।
- लम्बी बाँहें गोरी-गोरी
- सपनों में भूल रहा मन था,
- कर कभी धान का आलिङ्गन
- लेती मंजरियों का चुम्बन।
- गंडकी-ओर फिर दृष्टि फेर
- देखती लहर को बड़ी देर।
- हेरती मर्म की आँखों से
- वह कपिलवस्तु-दिशि बेर-बेर।
- हेरती मर्म की आँखों से
- कर कभी धान का आलिङ्गन
- शारद निशि की शोभा विशाल,
- जगती, ज्योत्स्ना का स्वर्ण-ताल,
- श्यामल, शुभ शस्यों का प्रसार,
- गंडक, मिथिला का कंठहार।
- चन्द्रिका-धौत बालुका-कूल,
- कंपित कासों के श्वेत फूल;
- वह देख-देख हर्षाती है,
- कुछ छिगुन-छिगुन रह जाती है।
- वह देख-देख हर्षाती है,
- शारद निशि की शोभा विशाल,
- मिथिला विमुक्त कर हृदय-द्वार
- है लुटा रही सौन्दर्य प्यार;
- कोई विद्यापति क्यों न आज
- चित्रित कर दे छवि गान-व्याज?
- कोई कविता मधु-लास-मयी,
- अविछिन्न, अनन्त विलास-मयी,
- चाँदनी धुली पी हरियाली
- बनती न हाय, क्यों मतवाली?
- शेखर की याद सताती है,
- वह छिगुन-छिगुन रह जाती है।
- शेखर की याद सताती है,
- मिथिला विमुक्त कर हृदय-द्वार
- मैं नहीं चाहता चिर-वसन्त,
- जूही-गुलाब की छवि अनन्त;
- ग्रीष्म हो, तरु की छाँह रहे;
- पावस हो, प्रिय की बाँह रहे;
- हो शीत या कि ऊष्मा जवलन्त,
- मेरे गृह में अक्षय वसन्त।
- हो शीत या कि ऊष्मा जवलन्त,
- मैं नहीं चाहता चिर-वसन्त,
- औ’शरत्, अभी भी क्या गम है?
- तू ही वसन्त से क्या कम है?
- है बिछी दूर तक दूब हरी,
- हरियाली ओढ़े लता खड़ी।
- कासों के हिलते श्वेत फूल,
- फूली छतरी ताने बबूल;
- अब भी लजवन्ती झीनी है,
- मंजरी बेर रस-भीनी है।
- अब भी लजवन्ती झीनी है,
- औ’शरत्, अभी भी क्या गम है?
- कोयल न (रात वह भी कूकी,
- तुझपर रीझी, वंशी फूँकी।)
- कोयल न, कीर तो बोले हैं,
- कुररी-मैना रस घोले हैं;
- कवियों की उपमा की आँखें;
- खंजन फड़काती है पाँखें।
- कवियों की उपमा की आँखें;
- कोयल न (रात वह भी कूकी,
- रजनी बरसाती ओस ढेर,
- देती भू पर मोती बिखेर;
- नभ नील, स्वच्छ, सुन्दर तड़ाग;
- तू शरत् न, शुचिता का सुहाग।
- औ’ शरत्-गंग! लेखनी, आह!
- शुचिता का यह निर्मल प्रवाह;
- पल-भर निमग्न इसमें हो ले,
- वरदान माँग, किल्विष धो ले।
- पल-भर निमग्न इसमें हो ले,
- रजनी बरसाती ओस ढेर,
- गिरिराज-सुता सुषमा-भरिता,
- जल-स्त्रोत नहीं, कविता-सरिता।
- वह कोमल कास-विकासमयी,
- यह बालिका पावन हासमयी;
- वह पुण्य-विकासिनि, दिव्य-विभा,
- यह भाव-सुहासिनि, प्रेम-प्रभा।
- वह पुण्य-विकासिनि, दिव्य-विभा,
- गिरिराज-सुता सुषमा-भरिता,
- हे जन्मभूमि! शत बार धन्य!
- तुझ-सा न ‘सिमरियाघाट’ अन्य।
- तेरे खेतों की छवि महान,
- अनिमन्त्रित आ उर में अजान,
- भावुकता बन लहराती है,
- फिर उमड़ गीत बन जाती है।
- भावुकता बन लहराती है,
- हे जन्मभूमि! शत बार धन्य!
- ‘बाया’ की यह कृश विमल धार,
- गंगा की यह दुर्गम कछार,
- कूलों पर कास-परी फूली,
- दो-दो नदियाँ तुझपर भूलीं।
- कल-कल कर प्यार जताती हैं,
- छू पार्श्व सरकती जाती है।
- कल-कल कर प्यार जताती हैं,
- ‘बाया’ की यह कृश विमल धार,
- शारद सन्ध्या, यह उगा सोम,
- बन गया सरित में एक व्योम,
- शेखर-उर में अब बिंधें बाण,
- सुन्दरियाँ यह कर रहीं स्नान।
- आग्रीव वारि के बीच खड़ी,
- या रही मधुर प्रत्येक परी।
- बिछली पड़तीं किरणें जल पर,
- नाचती लहर पर स्वर-लहरी।
- बिछली पड़तीं किरणें जल पर,
- शारद सन्ध्या, यह उगा सोम,
- यह वारि-वेलि फैली अमूल,
- खिल गये अनेकों कंज-फूल;
- लट नहीं, मुग्ध अलिवृन्द श्याम
- कंजों की छवि पर रहे भूल।
- डुबकी रमणियाँ लगाती हैं,
- लट ऊपर ही लहराती हैं,
- जल-मग्न कमल को खोज-खोज
- मधुपावलियाँ मँडराती हैं।
- जल-मग्न कमल को खोज-खोज
- यह वारि-वेलि फैली अमूल,
- लेकिन नालों पर कंज कहाँ,
- ऐसे, जैसे ये खिले यहाँ?
- नीचे आने विधु ललक रहा,
- मृदु चूम परी की पलक रहा;
- वह स्वर्ग-बीच ललचाता है,
- भू पर रस-प्याला छलक रहा।
- वह स्वर्ग-बीच ललचाता है,
- लेकिन नालों पर कंज कहाँ,
- परियाँ अब जल से चलीं निकल
- तन से लिपटे भींगे अंचल;
- चू रही चिकुर से वारि-धार,
- मुख-शशि-भय रोता अन्धकार।
- विद्यापति! सिक्त वसन तन में,
- मन्मथ जाते न मुनी-मन में।
- विद्यापति! सिक्त वसन तन में,
- परियाँ अब जल से चलीं निकल
- कवि! शरत्-निशा का प्रथम प्रहर,
- कल्पना तुम्हारी उठी लहर,
- कविता कुछ लोट रही तट में,
- लिपटी कुछ सिक्त परी-पट में;
- कुछ मैं स्वर में दुहराता हूँ;
- निज कविता मधुर बचाता हूँ।
- कुछ मैं स्वर में दुहराता हूँ;
- कवि! शरत्-निशा का प्रथम प्रहर,
- गंगा-पूजन का साज सजा,
- कल कंठ-कंठ में तार बजा;
- स्वर्गिक उल्लास उमंग यहाँ;
- पट में सुर-धनु के रंग यहाँ,
- तुलसी-दल-सा परिपूत हृदय,
- अति पावन पुण्य-प्रसंग यहाँ।
- तितलियाँ प्रदीप जलाती हैं,
- शेखर की कविता गाती हैं।
- तितलियाँ प्रदीप जलाती हैं,
- गंगा-पूजन का साज सजा,
- गंगे! ये दीप नहीं बलते,
- लघु पुण्य-प्रभा-कण हैं जलते;
- अन्तर की यह उजियारी है;
- भावों की यह चिनगारी है।
- गंगे! ये दीप नहीं बलते,
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