क्या यह वही देश है—
भीमार्जुन आदि का कीर्ति क्षेत्र,
चिरकुमार भीष्म की पताका ब्रह्माचर्य-दीप्त
उड़ती है आज भी जहाँ के वायुमण्डल में
उज्जवल, अधीर और चिरनवीन?—
श्रीमुख से कृष्ण के सुना था जहाँ भारत ने
गीता-गीत—सिंहनाद—
मर्मवाणी जीवन-संग्राम की—
सार्थक समन्वय ज्ञान-कर्म-भक्ति योग का?
- यह वही देश है
- परिवर्तित होता हुआ ही देखा गया जहाँ
- भारत का भाग्य चक्र?—
- आकर्षण तृष्णा का
- खींचता ही रहा जहाँ पृथ्वी के देशों को
- स्वर्ण-प्रतिमा की ओर?—
- उठा जहाँ शब्द घोर
- संसृति के शक्तिमान दस्युओं का अदमनीय,
- पुनः पुनः बर्बरता विजय पाती गई
- सभ्यता पर, संस्कृति पर,
- काँपे सदा रे अधर जहाँ रक्त धारा लख
- आरक्त हो सदैव।
- यह वही देश है
क्या यही वह देश है—
यमुना-पुलिन से चल
’पृथ्वी’ की चिता पर
नारियों की महिमा उस सती संयोगिता ने
किया आहूत जहाँ विजित स्वजातियों को
आत्म-बलिदान से:—
पढो रे, पढो रे पाठ,
भारत के अविश्वस्त अवनत ललाट पर
निज चिताभस्म का टीका लगाते हुए,--
सुनते ही खड़े भय से विवर्ण जहाँ
अविश्वस्त संज्ञाहीन पतित आत्मविस्मृत नर?
बीत गये कितने काल,
क्या यह वही देश है
बदले किरीट जिसने सैकड़ों महीप-भाल?
- क्या यह वही देश है
- सन्ध्या की स्वर्णवर्ण किरणों में
- दिग्वधू अलस हाथों से
- थी भरती जहाँ प्रेम की मदिरा,--
- पीती थीं वे नारियां
- बैठी झरोखे में उन्नत प्रासाद के?—
- बहता था स्नेह-उन्माद नस-नस में जहाँ
- पृथ्वी की साधना के कमनीय अंगों में?—
- ध्वनिमय ज्यों अन्धकार
- दूरगत सुकुमार,
- प्रणयियों की प्रिय कथा
- व्याप्त करती थी जहाँ
- अम्बर का अन्तराल?
- आनन्द धारा बहती थी शत लहरों में
- अधर मे प्रान्तों से;
- अतल हृदय से उठ
- क्या यह वही देश है
बाँधे युग बाहुओं के
लीन होते थे जहाँ अन्तहीनता में मधुर?—
अश्रु बह जाते थे
कामिनी के कोरों से
कमल के कोषों से प्रात की ओस ज्यों,
मिलन की तृष्णा से फूट उठते थे फिर,
रँग जाता नया राग?—
केश-सुख-भार रख मुख प्रिय-स्कन्ध पर
भाव की भाषा से
कहती सुकुमारियाँ थीं कितनी ही बातें जहाँ
रातें विरामहीन करती हुई?—
प्रिया की ग्रीवा कपोत बाहुओं ने घेर
मुग्ध हो रहे थे जहाँ प्रिय-मुख अनुरागमय?—
खिलते सरोवर के कमल परागमय
हिलते डुलते थे जहाँ
स्नेह की वायु से, प्रणय के लोक में
आलोक प्राप्त कर?
रचे गये गीत,
- गये गाये जहाँ कितने राग
- देश के, विदेश के!
- बही धाराएँ जहाँ कितनी किरणों को चूम!
- कोमल निषाद भर
- उठे वे कितने स्वर!
- कितने वे रातें
- स्नेह की बातें रक्खे निज हृदय में
- आज भी हैं मौन जहाँ!
- यमुना की ध्वनि में
- है गूँजती सुहाग-गाथा,
- सुनता है अन्धकार खड़ा चुपचाप जहाँ!
- आज वह ’फिरदौस’
- सुनसान है पड़ा।
- शाही दीवान-आम स्तब्ध है हो रहा,
- दुपहर को, पार्श्व में,
- उठता है झिल्लीरव,
- बोलते हैं स्यार रात यमुना-कछार में,
- लीन हो गया है रव
- शाही अंगनाओं का,
- गये गाये जहाँ कितने राग
निस्तब्ध मीनार,
मौन हैं मकबरे:-
भय में आशा को जहाँ मिलते थे समाचार,
टपक पड़ता था जहाँ आँसुओं में सच्चा प्यार!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें