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सोमवार, 14 मार्च 2011

अप्सरा

निखिल-कल्पनामयि अयि अप्सरि!

अखिल विस्मयाकार!

अकथ, अलौकिक, अमर, अगोचर,

भावों की आधार!

गूढ़, निरर्थ असम्भव, अस्फुट

भेदों की शृंगार!

मोहिनि, कुहकिनि, छल-विभ्रममयि,

चित्र-विचित्र अपार!


शैशव की तुम परिचित सहचरि,

जग से चिर अनजान

नव-शिशु के संग छिप-छिप रहती

तुम, मा का अनुमान;

डाल अँगूठा शिशु के मुँह में

देती मधु-स्तन-दान,

छिपी थपक से उसे सुलाती,

गा-गा नीरव-गान।


तन्द्रा के छाया-पथ से आ

शिशु-उर में सविलास,

अधरों के अस्फुट मुकुलों में

रँगती स्वप्निल-हास;

दन्त-कथाओं से अबोध-शिशु

सुन विचित्र इतिहास

नव नयनो में नित्य तुम्हारा

रचते रूपाभास।


प्रथम रूप मदिरा से उन्मद

यौवन में उद्दाम

प्रेयसि के प्रत्यंग-अंग में

लिपटी तुम अभिराम;

युवती के उर में रहस्य बन

हरती मन प्रतियाम,

मृदुल पुलक-मुकुलों से लद कर

देह-लता छबि-धाम।


इन्द्रलोक में पुलक नृत्य तुम

करती लघु-पद-भार!

तड़ित-चकित चितवन से चंचल

कर सुर-सभा अपार,

नग्न-देह में नव-रँग सुर-धनु

छाया-पट सुकुमार,

खोंस नील-नभ की वेणी में

इन्दु कुन्द-द्युति स्फार।


स्वर्गंगा में जल-विहार जब

करती, बाहु-मृणाल!

पकड़ पैरते इन्दु-बिम्ब के

शत-शत रजत मराल;

उड़-उड़ नभ में शुभ्र-फेन कण

बन जाते उडु-बाल,

सजल देह-द्युति चल-लहरों में

बिम्बित सरसिज-माल।


रवि-छवि-चुम्बित चल-जलदों पर

तुम नभ में, उस पार,

लगा अंक से तड़ित-भीत शशि—

मृग-शिशु को सुकुमार,

छोड़ गगन में चंचल उडुगण,

चरण-चिन्ह लघु-भार,

नाग-दन्त-नत इन्द्रधनुष-पुल

करती तुम नित पार।


कभी स्वर्ग की थी तुम अप्सरि,

अब वसुधा की बाल,

जग के शैशव के विस्मय से

अपलक-पलक-प्रवाल!

बाल युवतियों की सरसी में

चुगा मनोज्ञ मराल,

सिखलाती मृदु रोम-हास तुम

चितवन-कला अराल।


तुम्हें खोजते छाया-बन में

अब भी कवि विख्यात,

जब जग-जग निशि-प्रहरी जुगुनू

सो जाते चिर-प्रात,

सिहर लहर, मर्मर कर तरुवर,

तपक तड़ित अज्ञात,

अब भी चुपके इंगित देते

गूँज मधुप, कवि-भ्रात।


गौर-श्याम तन, बैठ प्रभा-तम,

भगिनी-भ्रात सजात

बुनते मृदुल मसृण छायांचल

तुम्हें तन्वि! दिनरात;

स्वर्ण-सूत्र में रजत-हिलोरें

कंचु काढ़तीं प्रात,

सुरँग रेशमी पंख तितलियाँ

डुला सिरातीं गात।


तुहिन-बिन्दु में इन्दु-रश्मि सी

सोई तुम चुपचाप,

मुकुल-शयन में स्वप्न देखती

निज-निरुपम छबि आप;

चटुल-लहरियों से चल-चुम्बित

मलय-मृदुल पद-चाप,

जलजों में निद्रित मधुपों से

करती मौनालाप।


नील रेशमी तम का कोमल

खोल लोल कच-भार,

तार-तरल लहरा लहरांचल,

स्वप्न-विचक-तन-हार;

शशि-कर-सी लघु-पद, सरसी में

करती तुम अभिसार,

दुग्ध-फेन शारद-ज्योत्स्ना में

ज्योत्स्ना-सी सुकुमार।


मेंहदी-युत मृदु-करतल-छबि से

कुसुमित सुभग’ सिंगार,

गौर-देह-द्युति हिम-शिखरों पर

बरस रही साभार;

पद-लालिमा उषा, पुलकित-पर,

शशि-स्मित-घन सोभार,

उडु कम्पन मृदु-मृदु उर-स्पन्दन,

चपल-वीचि पद-चार।


शत भावों के विकच-दलों से

मण्डित, एक प्रभात

खिली प्रथम सौन्दर्य-पद्म-सी

तुम जग में नवजात;

मृंगों-से अगणित रवि, शशि, ग्रह,

गूँज उठे अज्ञात,

जगज्जलधि हिल्लोल-विलोड़ित,

गन्ध-अन्ध दिशि-वात।


जगती के अनिमिष पलकों पर

स्वर्णिम-स्वप्न समान,

उदित हुई थी तुम अनन्त

यौवन में चिर-अम्लान;

चंचल-अंचल में फहरा कर

भावी स्वर्ण-विहान,

स्मित आनन में नव-प्रकाश से

दीपित नव दिनमान।


सखि, मानस के स्वर्ग-वास में

चिर-सुख में आसीन,

अपनी ही सुखमा से अनुपम,

इच्छा में स्वाधीन,

प्रति युग में आती हो रंगिणि!

रच-रच रूप नवीन,

तुम सुर-नर-मुनि-इप्सित-अप्सरि!

त्रिभुवन भर में लीन।


अंग अंग अभिनव शोभा का

नव वसन्त सुकुमार,

भृकुटि-भंग नव नव इच्छा के

भृंगों का गुंजार,

शत-शत मधु-आकांक्षाओं से

स्पन्दित पृथु उर-भार,

नव आशा के मृदु मुकुलों से

चुम्बित लघु-पदचार।


निखिल-विश्व ने निज गौरव

महिमा, सुखमा कर दान,

निज अपलक उर के स्वप्नों से

प्रतिमा कर निर्माण,

पल-पल का विस्मय, दिशि-दिशि की

प्रतिभा कर परिधान,

तुम्हें कल्पना औ’ रहस्य में

छिपा दिया अनजान।


जग के सुख-दुख, पाप-ताप,

तृष्णा-ज्वाला से हीन,

जरा-जन्म-भय-मरण-शून्य,

यौवनमयि, नित्य-नवीन;

अतल-विश्व-शोभा-वारिधि में,

मज्जित जीवन-मीन,

तुम अदृश्य, अस्पृश्य अप्सरी,

निज सुख में तल्लीन।
सुमित्रानंदन पंत

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