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शुक्रवार, 11 मार्च 2011

रहीमदास के दोहे

रहिमन देख बड़ेन को लघु न दीजिये डार।
जहाँ काम आवे सुई कहा करै तलवार।।

जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्यापत नहीं लपटे रहत भुजंग।।

खीरा सिर से काटिये मलियत नमक बनाय।
रहिमन करूए मुखन को चहियत इहै सजाय।।

रहिमन विपदा हू भली जो थोरे दिन होय।
हित अनहित इह जगत में जान पड़े सब कोय।।

रहिमन धागा प्रेम का मत तोरउ चटकाय।
टूटे से फिर से ना मिलै, मिलै गांठि परि जाय।।

रूठे सुजन मनाइये जो रूठे सौ बार।
रहिमन फिर फिर पोइये टूटे मुक्ताहार।।

कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीत।

बिपति कसौटी जे कसे, ते ही साँचे मीत।।


कदली सीप भुजंग मुख, स्‍वाति एक गुन तीन।

जैसी संगति बैठिए, तैसो ही फल दीन।

दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।

जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय।।

धनि रहीम जल पंक को, लघु जिय पिअत अघाय।

उदधि बड़ई कौन है, जगत पिआसो जाय।।

बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस।

महिमा घटि सागर की, रावण बस्‍यो पड़ोस।।

रुठे सुजन मनाइए, जो रुठै सौ बार।

रहिमन फिरि-फिरि पोहिए, टूटे मुक्‍ताहार।।

समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जाय।

सदा रहे नहिं एकसो, का रहिम पछिताय।।


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