आ, तेरे उर में छिप जाऊँ!
मिल न सका स्वर जग क्रंदन का,
और मधुर मेरे गायन का,
आ तेरे उर की धड़कन से अपनी धड़कन आज मिलाऊँ!
आ, तेरे उर में छिप जाऊँ!
जिसे सुनाने को अति आतुर
आकुल युग-युग से मेरा उर,
एक गीत अपने सपनों का, आ, तेरी पलकों पर गाऊँ!
आ, तेरे उर में छिप जाऊँ!
फिर न पड़े जगती में गाना,
फिर न पड़े जगती में जाना,
एक बार तेरी गोदी में सोकर फिर मैं जाग न पाऊँ!
आ, तेरे उर में छिप जाऊँ!
हरिवंशराय बच्चन
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें