उसकी खिड़की खुली है,
उसके आँगन में गूँज रहा है दुख,
उसके दरवाज़े लाचार खड़ा है प्रेम।
उसकी सुन्दरता ने बनाया है घर,
उसकी चाहत ने डाला है छप्पर,
उसकी उदासी ने खींचे हैं परदे।
वह कुछ कहती नहीं है
पर उसकी आँखों में डबडबाते हैं शब्द,
उसके इशारों में डूबते-उतराते हैं नक्षत्र,
वह आकाश में कौंधती है बिजली की तरह,
वह उगती है वृक्ष की तरह पृथ्वी पर।
वह चाय बनाती है,
रोटी सेंकती है,
सब्ज़ियाँ खरीदने बाज़ार जाती है,
वह मन्दिर में प्रार्थना बुदबुदाती है।
वह दस्तक देती है...
अन्दर जाती है,
धूप में बाल सुखाने छज्जे पर आती है :
वह जीती है
पोर-पोर पग-पग।
अशोक वाजपेयी
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