जिन चरणों पर देव लुटाते-
थे अपने अमरों के लोक,
नखचन्द्रों की कान्ति लजाती
थी नक्षत्रों के आलोक;
रवि शशि जिन पर चढा रहे
अपनी आभा अपना राज,
जिन चरणों पर लोट रहे थे
सारे सुख सुषमा के साज;
जिनकी रज धो धो जाता था
मेघों का मोती सा नीर,
जिनकी छवि अंकित कर लेता
नभ अपना अंतसथल चीर;
मैं भी भर झीने जीवन में
इच्छाओं के रुदन अपार,
जला वेदनाओं के दीपक
आई उस मन्दिर के द्वार।
क्या देता मेरा सूनापन
उनके चरणों को उपहार?
बेसुध सी मैं धर आई
उन पर अपने जीवन की हार!
मधुमाते हो विहँस रहे थे
जो नन्दन कानन के फूल,
हीरक बन कर चमक गई
उनके अंचल में मेरी भूल!
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