निखिल-कल्पनामयि अयि अप्सरि!
- अखिल विस्मयाकार!
अकथ, अलौकिक, अमर, अगोचर,
- भावों की आधार!
गूढ़, निरर्थ असम्भव, अस्फुट
- भेदों की शृंगार!
मोहिनि, कुहकिनि, छल-विभ्रममयि,
- चित्र-विचित्र अपार!
शैशव की तुम परिचित सहचरि,
- जग से चिर अनजान
नव-शिशु के संग छिप-छिप रहती
- तुम, मा का अनुमान;
डाल अँगूठा शिशु के मुँह में
- देती मधु-स्तन-दान,
छिपी थपक से उसे सुलाती,
- गा-गा नीरव-गान।
तन्द्रा के छाया-पथ से आ
- शिशु-उर में सविलास,
अधरों के अस्फुट मुकुलों में
- रँगती स्वप्निल-हास;
दन्त-कथाओं से अबोध-शिशु
- सुन विचित्र इतिहास
नव नयनो में नित्य तुम्हारा
- रचते रूपाभास।
प्रथम रूप मदिरा से उन्मद
- यौवन में उद्दाम
प्रेयसि के प्रत्यंग-अंग में
- लिपटी तुम अभिराम;
युवती के उर में रहस्य बन
- हरती मन प्रतियाम,
मृदुल पुलक-मुकुलों से लद कर
- देह-लता छबि-धाम।
इन्द्रलोक में पुलक नृत्य तुम
- करती लघु-पद-भार!
तड़ित-चकित चितवन से चंचल
- कर सुर-सभा अपार,
नग्न-देह में नव-रँग सुर-धनु
- छाया-पट सुकुमार,
खोंस नील-नभ की वेणी में
- इन्दु कुन्द-द्युति स्फार।
स्वर्गंगा में जल-विहार जब
- करती, बाहु-मृणाल!
पकड़ पैरते इन्दु-बिम्ब के
- शत-शत रजत मराल;
उड़-उड़ नभ में शुभ्र-फेन कण
- बन जाते उडु-बाल,
सजल देह-द्युति चल-लहरों में
- बिम्बित सरसिज-माल।
रवि-छवि-चुम्बित चल-जलदों पर
- तुम नभ में, उस पार,
लगा अंक से तड़ित-भीत शशि—
- मृग-शिशु को सुकुमार,
छोड़ गगन में चंचल उडुगण,
- चरण-चिन्ह लघु-भार,
नाग-दन्त-नत इन्द्रधनुष-पुल
- करती तुम नित पार।
कभी स्वर्ग की थी तुम अप्सरि,
- अब वसुधा की बाल,
जग के शैशव के विस्मय से
- अपलक-पलक-प्रवाल!
बाल युवतियों की सरसी में
- चुगा मनोज्ञ मराल,
सिखलाती मृदु रोम-हास तुम
- चितवन-कला अराल।
तुम्हें खोजते छाया-बन में
- अब भी कवि विख्यात,
जब जग-जग निशि-प्रहरी जुगुनू
- सो जाते चिर-प्रात,
सिहर लहर, मर्मर कर तरुवर,
- तपक तड़ित अज्ञात,
अब भी चुपके इंगित देते
- गूँज मधुप, कवि-भ्रात।
गौर-श्याम तन, बैठ प्रभा-तम,
- भगिनी-भ्रात सजात
बुनते मृदुल मसृण छायांचल
- तुम्हें तन्वि! दिनरात;
स्वर्ण-सूत्र में रजत-हिलोरें
- कंचु काढ़तीं प्रात,
सुरँग रेशमी पंख तितलियाँ
- डुला सिरातीं गात।
तुहिन-बिन्दु में इन्दु-रश्मि सी
- सोई तुम चुपचाप,
मुकुल-शयन में स्वप्न देखती
- निज-निरुपम छबि आप;
चटुल-लहरियों से चल-चुम्बित
- मलय-मृदुल पद-चाप,
जलजों में निद्रित मधुपों से
- करती मौनालाप।
नील रेशमी तम का कोमल
- खोल लोल कच-भार,
तार-तरल लहरा लहरांचल,
- स्वप्न-विचक-तन-हार;
शशि-कर-सी लघु-पद, सरसी में
- करती तुम अभिसार,
दुग्ध-फेन शारद-ज्योत्स्ना में
- ज्योत्स्ना-सी सुकुमार।
मेंहदी-युत मृदु-करतल-छबि से
- कुसुमित सुभग’ सिंगार,
गौर-देह-द्युति हिम-शिखरों पर
- बरस रही साभार;
पद-लालिमा उषा, पुलकित-पर,
- शशि-स्मित-घन सोभार,
उडु कम्पन मृदु-मृदु उर-स्पन्दन,
- चपल-वीचि पद-चार।
शत भावों के विकच-दलों से
- मण्डित, एक प्रभात
खिली प्रथम सौन्दर्य-पद्म-सी
- तुम जग में नवजात;
मृंगों-से अगणित रवि, शशि, ग्रह,
- गूँज उठे अज्ञात,
जगज्जलधि हिल्लोल-विलोड़ित,
- गन्ध-अन्ध दिशि-वात।
जगती के अनिमिष पलकों पर
- स्वर्णिम-स्वप्न समान,
उदित हुई थी तुम अनन्त
- यौवन में चिर-अम्लान;
चंचल-अंचल में फहरा कर
- भावी स्वर्ण-विहान,
स्मित आनन में नव-प्रकाश से
- दीपित नव दिनमान।
सखि, मानस के स्वर्ग-वास में
- चिर-सुख में आसीन,
अपनी ही सुखमा से अनुपम,
- इच्छा में स्वाधीन,
प्रति युग में आती हो रंगिणि!
- रच-रच रूप नवीन,
तुम सुर-नर-मुनि-इप्सित-अप्सरि!
- त्रिभुवन भर में लीन।
अंग अंग अभिनव शोभा का
- नव वसन्त सुकुमार,
भृकुटि-भंग नव नव इच्छा के
- भृंगों का गुंजार,
शत-शत मधु-आकांक्षाओं से
- स्पन्दित पृथु उर-भार,
नव आशा के मृदु मुकुलों से
- चुम्बित लघु-पदचार।
निखिल-विश्व ने निज गौरव
- महिमा, सुखमा कर दान,
निज अपलक उर के स्वप्नों से
- प्रतिमा कर निर्माण,
पल-पल का विस्मय, दिशि-दिशि की
- प्रतिभा कर परिधान,
तुम्हें कल्पना औ’ रहस्य में
- छिपा दिया अनजान।
जग के सुख-दुख, पाप-ताप,
- तृष्णा-ज्वाला से हीन,
जरा-जन्म-भय-मरण-शून्य,
- यौवनमयि, नित्य-नवीन;
अतल-विश्व-शोभा-वारिधि में,
- मज्जित जीवन-मीन,
तुम अदृश्य, अस्पृश्य अप्सरी,
- निज सुख में तल्लीन।
- सुमित्रानंदन पंत
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