मधु-यामिनी-अंचल-ओट में सोई थी
- बालिका-जूही उमंग-भरी;
- बालिका-जूही उमंग-भरी;
विधु-रंजित ओस-कणों से भरी
- थी बिछी वन-स्वप्न-सी दूब हरी;
- थी बिछी वन-स्वप्न-सी दूब हरी;
मृदु चाँदनी-बीच थी खेल रही
- वन-फूलों से शून्य में इन्द्र-परी,
- वन-फूलों से शून्य में इन्द्र-परी,
कविता बन शैल-महाकवि के
- उर से मैं तभी अनजान झरी।
- उर से मैं तभी अनजान झरी।
हरिणी-शिशु ने निज लास दिया,
- मधु राका ने रूप दिया अपना,
- मधु राका ने रूप दिया अपना,
कुमुदी ने हँसी, परियों ने उमंग,
- चकोरी ने प्रेम में यों तपना।
- चकोरी ने प्रेम में यों तपना।
नभ नील ने जन्म-घड़ी ही में नील
- समुद्र का भव्य दिया सपना,
- समुद्र का भव्य दिया सपना,
‘पी कहाँ’ कह प्रेमी पपीहरे ने
- सिखलाया मुझे ‘पी कहाँ’ जपना।
- सिखलाया मुझे ‘पी कहाँ’ जपना।
गति-रोध किया गिरि ने, पर, मैं
- द्रुत भाग चली घहराती हुई,
- द्रुत भाग चली घहराती हुई,
सरकी उपलों में भुजंगिनी-सी
- मैं शिला से कहीं टकराती हुई;
- मैं शिला से कहीं टकराती हुई;
जननी-गृह छोड़ चली, मुड़ देखा
- कभी न उसे ललचाती हुई,
- कभी न उसे ललचाती हुई,
गिरि-शृंग से कूद पड़ी मैं अभय
- ‘पी कहाँ?’‘पी कहाँ?’ धुन गाती हुई।
- ‘पी कहाँ?’‘पी कहाँ?’ धुन गाती हुई।
वनभूमि ने दूब के अंचल में
- गिरि से गिरते मुझे छान लिया,
- गिरि से गिरते मुझे छान लिया,
गिरि-मल्लिका कुन्तल-बीच पिरो
- मुझको निज बालिका मान लिया;
- मुझको निज बालिका मान लिया;
कलियों ने सुहाग के मोती दिये,
- नव ऊषा ने सेंदुर-दान दिया,
- नव ऊषा ने सेंदुर-दान दिया,
जगती को हरी लख मैंने हरी-हरी
- दूबों का ही परिधान लिया।
- दूबों का ही परिधान लिया।
तट की हिमराशि की आरसी में
- अपनी छवि देख दीवानी हुई।
- अपनी छवि देख दीवानी हुई।
प्रिय-दर्शन की मधु लालसा में
- पिघली, पल में घुल पनी हुई।
- पिघली, पल में घुल पनी हुई।
टकराने चली मैं असीम के वक्ष से,
- रूप के ज्वार की रनी हुई।
- रूप के ज्वार की रनी हुई।
उनमाद की रागिनी, बेकली की
- अपनी ही मैं आप कहानी हुई।
- अपनी ही मैं आप कहानी हुई।
जननी-धरणी मुझे गोद लिये
- थी सचेत कि मैं भग जाऊँ नहीं,
- थी सचेत कि मैं भग जाऊँ नहीं,
वन-जन्तुओं के शिशु आन जुटे
- कि सखा बिन मैं दुख पाऊँ नहीं।
- कि सखा बिन मैं दुख पाऊँ नहीं।
थी डरी मैं, पड़ी ममता में कहीं
- इस देश में ही रह जाऊँ नहीं,
- इस देश में ही रह जाऊँ नहीं,
प्रिय देखे बिना झर जाऊँ न व्यर्थ,
- कहीं छवि यों ही गँवाऊँ नहीं।
- कहीं छवि यों ही गँवाऊँ नहीं।
एक रोज़ उनींदी हुई जो धरा,
- द्रुत भागी मैं आँख बचाती हुई,
- द्रुत भागी मैं आँख बचाती हुई,
वन-वल्लरी-अंचल-बीच कहीं
- तृण-पुंज में वेश छिपाती हुई।
- तृण-पुंज में वेश छिपाती हुई।
निकली द्रुम-कुंज की छाँह से तो
- मैं चली फिर से घहराती हुई,
- मैं चली फिर से घहराती हुई,
सिकता-से पिपासित विश्व के कंठ में
- स्वर्ग-सुधा सरसाती हुई।
- स्वर्ग-सुधा सरसाती हुई।
वनदेवी! द्रुमांचल श्याम हिला
- फिरने का करो न इशारा मुझे,
- फिरने का करो न इशारा मुझे,
उपलो! पद यों न गहो, भुज खोल
- न बाँध, तू हाय! किनारा ! मुझे।
- न बाँध, तू हाय! किनारा ! मुझे।
किसको ध्वनि दूर से आई? पुकार
- रहा सुन अम्बुधि प्यारा मुझे,
- रहा सुन अम्बुधि प्यारा मुझे,
जननी धरणी! तिरछी हो जरा,
- अरी! वेग से खींच तू धारा मुझे।
- अरी! वेग से खींच तू धारा मुझे।
अभिसारिका मैं मिलने हूँ चली,
- प्रिय-पंथ रे , कोई बताना जरा,
- प्रिय-पंथ रे , कोई बताना जरा,
किस शूली पै ‘मीरा’-पिया की है सेज?
- इशारों से कोई दिखाना जरा।
- इशारों से कोई दिखाना जरा।
पथ-भूली-सी कुंज में राधिका के
- हित श्याम! तू वेणु बजाना जरा,
- हित श्याम! तू वेणु बजाना जरा,
तुझमें प्रिय! खोने को तो आ रही
- पर तू भी गले से लगाना ज़रा।
- पर तू भी गले से लगाना ज़रा।
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