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रविवार, 10 अप्रैल 2011

गोपाल का चुम्बन

छिः, छिः, लज्जा-शरम नाम को भी न गई रह हाय,
औचक चूम लिया मुख जब मैं दूह रही थी गाय।

लोट गई धरती पर अब की उलर फूल की डार,
अबकी शील सँभल नहीं सकता यौवन का भार।
दोनों हाथ फँसे थे मेरे, क्या करती मैं हाय?
औचक चूम लिया मुख जब मैं दूह रही थी गाय।

पीछे आकर खड़ा हुआ, मैंने न दिया कुछ ध्यान,
लगी साँस श्रुति पर, सहसा झनझना उठे मन-प्राण।
किन हाथों से उसे रोकती, मैं तो थी निरुपाय
औचक चूम लिया मुख जब मैं दूह रही थी गाय।

कर थे कर्म-निरत, केवल मन ही था कहीं विभोर,
मैं क्या थी जानती, छिपा है यहीं कहीं चितचोर?
मैंने था कब कहा उसे छूने को अपना काय,
औचक चूम लिया मुख जब मैं दूह रही थी गाय।*

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