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शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

वसन्त की परी के प्रति

(गीत)

आओ, आओ फिर, मेरे बसन्त की परी--

छवि-विभावरी;

सिहरो, स्वर से भर भर, अम्बर की सुन्दरी-

छबि-विभावरी;


बहे फिर चपल ध्वनि-कलकल तरंग,
तरल मुक्त नव नव छल के प्रसंग,
पूरित-परिमल निर्मल सजल-अंग,
शीतल-मुख मेरे तट की निस्तल निझरी--

छबि-विभावरी;


निर्जन ज्योत्स्नाचुम्बित वन सघन,
सहज समीरण, कली निरावरण
आलिंगन दे उभार दे मन,
तिरे नृत्य करती मेरी छोटी सी तरी--

छबि-विभावरी;


आई है फिर मेरी ’बेला’ की वह बेला
’जुही की कली’ की प्रियतम से परिणय-हेला,
तुमसे मेरी निर्जन बातें--सुमिलन मेला,
कितने भावों से हर जब हो मन पर विहरी--

छबि-विभावरी;

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