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शनिवार, 14 मई 2011

अन्वेषण {रामनरेश त्रिपाठी}

मैं ढूँढता तुझे था, जब कुंज और वन में ।
तू खोजता मुझे था, तब दीन के सदन में ।।

तू 'आह' बन किसी की, मुझको पुकारता था ।
मैं था तुझे बुलाता, संगीत में भजन में ।।

मेरे लिए खड़ा था, दुखियों के द्वार पर तू ।
मैं बाट जोहता था, तेरी किसी चमन में ।।

बनकर किसी के आँसू, मेरे लिए बहा तू ।
आँखे लगी थी मेरी, तब मान और धन में ।।

बाजे बजाबजा कर, मैं था तुझे रिझाता ।
तब तू लगा हुआ था, पतितों के संगठन में ।।

मैं था विरक्त तुझसे, जग की अनित्यता पर ।
उत्थान भर रहा था, तब तू किसी पतन में ।।

बेबस गिरे हुओं के, तू बीच में खड़ा था ।
मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहाँ चरन में ।।

तूने दिया अनेकों अवसर न मिल सका मैं ।
तू कर्म में मगन था, मैं व्यस्त था कथन में ।।

तेरा पता सिकंदर को, मैं समझ रहा था ।
पर तू बसा हुआ था, फरहाद कोहकन में ।।

क्रीसस की 'हाय' में था, करता विनोद तू ही ।
तू अंत में हँसा था, महमूद के रुदन में ।।

प्रहलाद जानता था, तेरा सही ठिकाना ।
तू ही मचल रहा था, मंसूर की रटन में ।।

आखिर चमक पड़ा तू गाँधी की हड्डियों में ।
मैं था तुझे समझता, सुहराब पीले तन में ।।

कैसे तुझे मिलूँगा, जब भेद इस कदर है ।
हैरान होके भगवन, आया हूँ मैं सरन में ।।

तू रूप कै किरन में सौंदर्य है सुमन में ।
तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में ।।

तू ज्ञान हिन्दुओं में, ईमान मुस्लिमों में ।
तू प्रेम क्रिश्चियन में, तू सत्य है सुजन में ।।

हे दीनबंधु ऐसी, प्रतिभा प्रदान कर तू ।
देखूँ तुझे दृगों में, मन में तथा वचन में ।।

कठिनाइयों दुखों का, इतिहास ही सुयश है ।
मुझको समर्थ कर तू, बस कष्ट के सहन में ।।

दुख में न हार मानूँ, सुख में तुझे न भूलूँ ।

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