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रविवार, 29 मई 2011

चिंता {सुभद्राकुमारी चौहान}

लगे आने, हृदय धन से
कहा मैंने कि मत आओ।
कहीं हो प्रेम में पागल
न पथ में ही मचल जाओ॥

कठिन है मार्ग, मुझको
मंजिलें वे पार करनीं हैं।
उमंगों की तरंगें बढ़ पड़ें
शायद फिसल जाओ॥

तुम्हें कुछ चोट आ जाए
कहीं लाचार लौटूँ मैं।
हठीले प्यार से व्रत-भंग
की घड़ियाँ निकट लाओ॥

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