किसी गांव में एक चमार रहता था। वह बड़ा ही चतुर था। इसीलिए सब उसे ‘चतुरी चमार’ कहा करते थे। घर में वह और उसकी स्त्री थी। उनकी गुजर-बसर जैसे-तैसे होती थी, इससे वे लोग हैरान रहते थे। एक दिन चतुरी ने सोचा कि गांव में रहकर तो उनकी हालत सुधरने से रही, तब क्यों न वह कुछ दिन के लिए शहर चला जाय और वहां से थोड़ी कमाई कर लाय ? स्त्री से सलाह की तो उसने भी जाने कीह अनुमति दे दी। वह शहर पहंच गया।
मेहनती तो वह था ही। सूझबूझ भी उसमें खूब थी। कुछ ही दिनों में उसने सौ रुपये कमा लिये। इसके बाद वह गांव को रवाना हो गया। रास्ते में घना जंगल पड़ता था। जंगल में डाकू रहते थे। चतुरी ने मन-ही-मन कहा कि वह रुपये ले जायगा तो डाकू छीन लेंगे। उसने उपाय खोजा। एक घोड़ी खरीदी ओर कुछ रुपये उसकी पूंछ में बांधकर चल दिया। देखते-देखते डाकुओं ने उसे घेरा। बोले, “बड़ी कमाई करके लाया है चतुरिया। ला, निकाल रुपये।”
चतुरी ने कहा, “रुपये मेरे पास कहां ैं, जो थे उससे यह घोड़ी खरीद लाया हूं। इस घोड़ी की बड़ी करामात है। मुझे यह रोज पचास रुपये देती है।” इतना कहकर उसने मारा पूंछ में डंडा कि खन-खन करके पचास रुपये निकल पड़े।
डछाकुओं का सरदार बोला, “सुन भाई, यह घोड़ी तुमने कितने में खरीदी है?” चतुरी ने कहा, “क्यों ? उससे तुम्हें क्या ?”
वह बोला, “हमें रुपये नहीं चाहिए। यह घोड़ी दे दो।”
“नहीं,” चतुरी ने गम्भीरता से कहा, “मैं ऐसा नहीं कर सकता, मेरी रोजी की आमदनी बंद हो जायेगी।”
सरदार बोला, “ये ले, घोड़ी के लिए सौ रुपये।”
चतुरी ने और आग्रह करना ठीक नहीं समझा। रुपये लेकर घोड़ी उन्हें दे दी और गांव की ओर चल पड़ा। घर आकर सारा किस्सा अपनी स्त्री को सुना दिया। उसने कहा, “हो-न-हो, दो-चार दिन में डाकू यहां आये बिना नहीं रहेंगे। हमें तैयार रहना चाहिए।”
अगले दिन वह खरगोश के दो एक-से बच्चे ले आया। एक उसने स्त्री को दिया। बोला, “मैं रात को बाहर की कोठरी में बैठ जाया करूंगा। जैसे ही डाकू आयें, इस खरगोश के बच्चे को यह कहकर छोड़ देना कि जा, चतुरी को लिवा ला। आगे मैं संभाल लूंगा।”
डाकुओं का सरदार घोड़ी को लेकर अपने घर गया और रात को आंगन में खड़ा करके पूंछ मे डंडा मारा और बोला, “ला, रुपये।” रुपये कहां से आते? उसने कस-कसकर कई डंडे पहले तो पूंछ में मारे, फिर कमर में। घोड़ी ने लीद कर दी, पर रुपये नहीं दिये। सरदार समझ गया कि चतुरी ने बदमाशी की है, पर उसने अपने साथियों से कुछ भी नहीं कहा। घोड़ी दूसरे के यहां गई, तीसारे के यहां गई, उसकी खूब मरम्मत हुई, पर रपये बेचारी कहां से देती? चतुरी ने उन्हें मूर्ख बना दिया, ेकिन इस बात को अपने साथी से कहे तो कैसे? उसकीं हंसाई जो होगी। आखिर पांचवें डाकू के यहां जाकर घोड़ी ने दम तोड़ दिया। तब भेद खुला।
फिर सारे डाकू मिलकर एक रात को चतुरी के घर पहुंच गये। दरवाजा खटखआया। चतुरी की घरवाली नेखोल दिया। सरदार ने पूछा, “कहां है चतुरी का बच्चा?”
स्त्री बोली, “वह खेत पर गये हैं। आप लोग बैठें। मैं अभी बुला देती हूं।”
इतना कहकर उसने खरगोश के बच्चे को हाथ में लेकर दरवाजे के बाहर छोड़ दिया और बोली, “जा रे चतुरी को फौरन लिवा ला।”
क्षण भर बाद ही डाकुओं ने देखा कि चतुरी खरगोश के बच्च्े को हाथ में लिए चला आ रहा है। आते ही बोला, “आप लोगों ने मझे बलाया है। इसके पहुंचते ही मैं चला आया। वाह रे खरगोश! ”
डाकू गुस्से में भरकर आये थे, पर खरगोश को देखते ही उनका गुस्सा काफूर हो गया। सरदार ने अचरज में भरकर पूछा, “यह तुम्हारे पास पहुंचा कैसे ?”
चतुरी बोला, “यही तो इसकी तारीफ है। मैं सातवें आसमान पर होऊं, तो वहां से भी लिवा ला सकता है।”
सरदार ने कहा, “चतुरी, यह खरगोश हमें दे दे। हमलोग इधर-उधर घूमते रहते हैं और हमारी घरवाली परेशान रहती है। वह इसे भेजकर हमें बुलवा लिया करेगी।”
दूसरा डाकू बोला, “तूने हमारे साथ बड़ा धोखा किया है। रुपये ले आया और ऐसी घोड़ी दे आया कि जिसने एक पैसा भी नहीं दिया और मर गई। खैर, जो हुआ सो हुआ। अब यह खरगोश दे।”
चतुरी ने बहुत मना किया तो सरदार ने सौ रुपये निकाले। बोला, “यह ले। ला, दे खरगोश को।”
चतुरी ने रुपये ले लिये और खरगोश दे दिया।
डाकू चले गये। चतुरी ने आगे के लिए फिर एक चाल सोची। उधर डाकुओं के सरदार ने खरगोश को घर ले जाकर अपनी स्त्री को दिया ओर उससे कह दियाकि जब खाना तैयार हो जाय तो इसे भेज देना। और वह बाहर चला गया। दोस्तों के बीच बैठा रहा। राह देखते-देखते आधी रात हो गई, पर खरगोश नहीं आया, तो वह झल्लाकर घर पहुंचा और स्त्री पर उबल पड़ा। स्त्री ने कहा, “तुम नाहक नाराज होते हो। मैंने तो घंटों पहले खरगोश को भेज दिया था।”
सरदार समझ गया कि यह चतुरीकी शैतानी है। वे लोग तीसरे दिन रात को फिर चतुरी के घर पहुंच गये।
उन्हें देखते ही चतुरी ने अपनी स्त्री से कहा, “इनके रुपये लाकर दे दे।”
स्त्री बोली, “मैं नहीं देती।”
“नहीं देती ?” चतुरी गरजा और उसने कुल्हाड़ी उठाकर अपनी स्त्री पर वार किया। स्त्री लहुलुहान होकर धरती पर गिर पड़ी और आंखें मुंद गईं। डाकू दंग रह गये। उन्होंने कहा, “अरे चतुरी, तूने यह क्या कर डाला ?”
चतुरी बोला, “तुम लोग चिंता न करो। यह तो हम लोगों की रोज की बात है। मैं इसे अभी जिंदा किये देता हूं।”
इतना कहकर वह अंदर गया और वहां से एक सारंगी उठा लाया। जैसे ही उसे बजाया कि स्त्री उठ खड़ी हुई।
चतुरी ने उसे पहले से ही सिखा रखा था ओर खून दिखाने के लिए वैसा रंग तैयार कर लिया था। नाटक को असली समझकर डाकुओं का सरदार चकित रह गया। उसने कहा, “चतुरी भैया, यह सारंगी तू हमें दे दे।”
चतुरी ने बहुत आना-कानी की तो सरदार ने सौ रुपये निकाल कर दसे और दे दिये और सारंगी लेकर वे चले गये। घर पहुंचते ही सरदार ने स्त्री को फटकारा और स्त्री कुछ तेज हो गई तो उसने आव देखा न ताव, कुल्हाड़ी लेकर गर्दन अलग कर दी। फिर सारंगी लेकर बैठ गया। बजाते-बजाते सारंगी के तार टूट गये, लेकिन स्त्री ने आंखें नहीं खोलीं। सरदार अपनी मूर्खता पर सिर धुनकर रह गया। पर अपनी बेवकूफी की बात उसने किसी को बताई नहीं और एक के बाद एक सारी स्त्रियों के सिर कट गये।
भेद खुला तो डाकुओं का पारा आसमान पर चढ़ गया। वे फौरन चतुरी के घर पहुंचे और उसे पकड़कर एक बोरी में बंद कर नदी में डुबोने ले चले। रात भर चलकर सवेरे वेएक मंदिर पर पहुंचे। थोड़ी दूर पर दी थी। उन्होंने बोरी को मंदिर पर रख दिया और और सब निबटने चले गये।
उनके जाते ही चतुरी चिल्लाया, “मुझे नहीं करनी। मुझे नहीं करनी।” संयोग से उसी समय एक ग्वाला अपी गाय-भैंस लेकर आया। उसने आवाज सुनी तो बोरी के पास गया। बोला “क्या बात है ?” चतुरी ने कहा, “क्या बताऊं। राजा के लोग मेरे पीछे पड़े है। कि राजकुमारी से विवाह कर लू। लेकिन में कैसे करूं, लड़की कानी है। ये लोग मुझे पकड़कर ब्याह करने ले जा रहे हैं।”
ग्वाला बोला, “भेया, ब्याह नहीं होता । मैं इसके लिए तैयार हूं।”
इतना कहकर ग्वाले ने झटपट बोरी को खोलकर चतुरी को बाहर निकाल दिया और स्वयं बंद हो गया। चतुरी उसकी गाय-भैंस लेकर नौ-दी-ग्यारह हो गया।
थोड़ी देर में डाकू आये और बोरी ले जाकर उन्होंने नदी में पटक दी। उन्हें संतोष हो गया कि चतुरी से उनका पीछा छूट गया, लेकिन लौटे तो रास्ते में देखते क्या हैं कि चतुरी सामने है। उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। पास आकर चतुरी से पूछा, “क्या बे, तू यहां कैसे ?”
वह बोला, आप लोगों ने मुझे नदी में उथले पानी में डाला, इसलिए गाय-भैंस ही मेरे हाथ पड़ी, अगर गहरे पानी में डाला होता तो हीरे-जवाहरात मिलते।”
हीरे-जवाहरात का नाम सुनकर सरदार के मुंह में पानी भर आया। बोला, “भैया चतुरी, तू हमें ले चल और हीरे-जवाहरात दिलवा दे।”
चतुरी तो यह चाहता ही था। वव उन्हें लेकर नदी पर गया। बोला, “देखो, जितनी देर पानी में रहोगे, उतना ही लाभ होगा। तुम सब एक-एक भारी पत्थर गले में बांध लो।”
लोभी क्या नहीं कर सकता ! उन्होंने अपने गलों में पत्थर बांध लिये और एक कतार में खड़े हो गये। चतुरी ने एक-एक को धक्का देकर नदी में गिरा दिया।
सारे डाकुओं से हमेशा के लिए छुटकारा पाकर चतुरी चमार गाय-भैंस लेकर खुशी-खुशी घर लौटा और अपनी स्त्री के साथ आनन्द से रहने लगा।
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'चतुरी चमार' सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' द्वारा रचित कहानी संग्रह है।
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