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सोमवार, 18 अप्रैल 2011

मिलाप

लाला ज्ञानचन्द बैठे हुए हिसाब–किताब जाँच रहे थे कि उनके सुपुत्र बाबू नानकचन्द आये और बोले- दादा, अब यहां पड़े –पड़े जी उसता गया, आपकी आज्ञा हो तो मौ सैर को निकल जाऊं दो एक महीने में लौट आऊँगा।
नानकचन्द बहुत सुशील और नवयुवक था। रंग पीला आंखो के गिर्द हलके स्याह धब्बे कंधे झुके हुए। ज्ञानचन्द ने उसकी तरफ तीखी निगाह से देखा और व्यंगपर्ण स्वर मे बोले –क्यो क्या यहां तुम्हारे लिए कुछ कम दिलचस्पियॉँ है?
ज्ञानचन्द ने बेटे को सीधे रास्ते पर लोने की बहुत कोशिश की थी मगर सफल न हुए। उनकी डॉँट-फटकार और समझाना-बुझाना बेकार हुआ। उसकी संगति अच्छी न थी। पीने पिलाने और राग-रंग में डूबा रहता था। उन्हें यह नया प्रस्ताव क्यों पसन्द आने लगा, लेकिन नानकचन्द उसके स्वभाव से परिचित था। बेधड़क बोला- अब यहॉँ जी नहीं लगता। कश्मीर की बहुत तारीफ सुनी है, अब वहीं जाने की सोचना हूँ।
ज्ञानचन्द- बेहरत है, तशरीफ ले जाइए।
नानकचन्द- (हंसकर) रुपये को दिलवाइए। इस वक्त पॉँच सौ रुपये की सख्त जरूरत है।
ज्ञानचन्द- ऐसी फिजूल बातों का मझसे जिक्र न किया करो, मैं तुमको बार-बार समझा चुका।
नानकचन्द ने हठ करना शुरू किया और बूढ़े लाला इनकार करते रहे, यहॉँ तक कि नानकचन्द झूँझलाकर बोला- अच्छा कुछ मत दीजिए, मैं यों ही चला जाऊँगा।
ज्ञानचन्द ने कलेजा मजबूत करके कहा- बेशक, तुम ऐसे ही हिम्मतवर हो। वहॉँ भी तुम्हारे भाई-बन्द बैठे हुए हैं न!
नानकचन्द- मुझे किसी की परवाह नहीं। आपका रुपया आपको मुबारक रहे।
नानकचन्द की यह चाल कभी पट नहीं पड़ती थी। अकेला लड़का था, बूढ़े लाला साहब ढीले पड़ गए। रुपया दिया, खुशामद की और उसी दिन नानकचन्द कश्मीर की सैर के लिए रवाना हुआ।



मगर नानकचन्द यहॉँ से अकेला न चला। उसकी प्रेम की बातें आज सफल हो गयी थीं। पड़ोस में बाबू रामदास रहते थे। बेचारे सीधे-सादे आदमी थे, सुबह दफ्तर जाते और शाम को आते और इस बीच नानकचन्द अपने कोठे पर बैठा हुआ उनकी बेवा लड़की से मुहब्बत के इशारे किया करता। यहॉँ तक कि अभागी ललिता उसके जाल में आ फॅंसी। भाग जाने के मंसूबे हुए।
आधी रात का वक्त था, ललिता एक साड़ी पहने अपनी चारपाई पर करवटें बदल रही थी। जेवरों को उतारकर उसने एक सन्दूकचे में रख दिया था। उसके दिल में इस वक्त तरह-तरह के खयाल दौड़ रहे थे और कलेजा जोर-जोर से धड़क रहा था। मगर चाहे और कुछ न हो, नानकचन्द की तरफ से उसे बेवफाई का जरा भी गुमान न था। जवानी की सबसे बड़ी नेमत मुहब्बत है और इस नेमत को पाकर ललिता अपने को खुशनसीब समझ रही थी। रामदास बेसुध सो रहे थे कि इतने में कुण्डी खटकी। ललिता चौंककर उठ खड़ी हुई। उसने जेवरों का सन्दूकचा उठा लियां एक बार इधर-उधर हसरत-भरी निगाहों से देखा और दबे पॉँव चौंक-चौककर कदम उठाती देहलीज में आयी और कुण्डी खोल दी। नानकचन्द ने उसे गले से लगा लिया। बग्घी तैयार थी, दोनों उस पर जा बैठे।
सुबह को बाबू रामदास उठे, ललित न दिखायी दी। घबराये, सारा घर छान मारा कुछ पता न चला। बाहर की कुण्डी खुली देखी। बग्घी के निशान नजर आये। सर पीटकर बैठ गये। मगर अपने दिल का द2र्द किससे कहते। हँसी और बदनामी का डर जबान पर मोहर हो गया। मशहूर किया कि वह अपने ननिहाल और गयी मगर लाला ज्ञानचन्द सुनते ही भॉँप गये कि कश्मीर की सैर के कुछ और ही माने थे। धीरे-धीरे यह बात सारे मुहल्ले में फैल गई। यहॉँ तक कि बाबू रामदास ने शर्म के मारे आत्महत्या कर ली।




मुहब्बत की सरगर्मियां नतीजे की तरफ से बिलकुल बेखबर होती हैं। नानकचन्द जिस वक्त बग्घी में ललित के साथ बैठा तो उसे इसके सिवाय और कोई खयाल ने था कि एक युवती मेरे बगल में बैठी है, जिसके दिल का मैं मालिक हूँ। उसी धुन में वह मस्त थां बदनामी का ड़र, कानून का खटका, जीविका के साधन, उन समस्याओं पर विचार करने की उसे उस वक्त फुरसत न थी। हॉँ, उसने कश्मीर का इरादा छोड़ दिया। कलकत्ते जा पहुँचा। किफायतशारी का सबक न पढ़ा था। जो कुछ जमा-जथा थी, दो महीनों में खर्च हो गयी। ललिता के गहनों पर नौबत आयी। लेकिन नानकचन्द में इतनी शराफत बाकी थी। दिल मजबूत करके बाप को खत लिखा, मुहब्बत को गालियॉँ दीं और विश्वास दिलाया कि अब आपके पैर चूमने के लिए जी बेकरार है, कुछ खर्च भेजिए। लाला साहब ने खत पढ़ा, तसकीन हो गयी कि चलो जिन्दा है खैरियत से है। धूम-धाम से सत्यनारायण की कथा सुनी। रुपया रवाना कर दिया, लेकिन जवाब में लिखा-खैर, जो कुछ तुम्हारी किस्मत में था वह हुआ। अभी इधर आने का इरादा मत करो। बहुत बदनाम हो रहे हो। तुम्हारी वजह से मुझे भी बिरादरी से नाता तोड़ना पड़ेगा। इस तूफान को उतर जाने दो। तुमहें खर्च की तकलीफ न होगी। मगर इस औरत की बांह पकड़ी है तो उसका निबाह करना, उसे अपनी ब्याहता स्त्री समझो।
नानकचन्द दिल पर से चिन्ता का बोझ उतर गया। बनारस से माहवार वजीफा मिलने लगा। इधर ललिता की कोशिश ने भी कुछ दिल को खींचा और गो शराब की लत न टूटी और हफ्ते में दो दिन जरूर थियेटर देखने जाता, तो भी तबियत में स्थिरता और कुछ संयम आ चला था। इस तरह कलकत्ते में उसने तीन साल काटे। इसी बीच एक प्यारी लड़की के बाप बनने का सौभाग्य हुआ, जिसका नाम उसने कमला रक्खा।



तीसरा साल गुजरा था कि नानकचन्द के उस शान्तिमय जीवन में हलचल पैदा हुई। लाला ज्ञानचन्द का पचासवॉँ साल था जो हिन्दोस्तानी रईसों की प्राकृतिक आयु है। उनका स्वर्गवास हो गया और ज्योंही यह खबर नानकचन्द को मिली वह ललिता के पास जाकर चीखें मार-मारकर रोने लगा। जिन्दगी के नये-नये मसले अब उसके सामने आए। इस तीन साल की सँभली हुई जिन्दगी ने उसके दिल शोहदेपन और नशेबाजी क खयाल बहुत कुछ दूर कर दिये थे। उसे अब यह फिक्र सवार हुई कि चलकर बनारस में अपनी जायदाद का कुछ इन्तजाम करना चाहिए, वर्ना सारा कारोबार में अपनी जायदाद का कुछ इन्तजाम करना चाहिए, वर्ना सारा कारोबार धूल में मिल जाएगा। लेकिन ललिता को क्या करूँ। अगर इसे वहॉँ लिये चलता हूँ तो तीन साल की पुरानी घटनाएं ताजी हो जायेगी और फिर एक हलचल पैदा होगी जो मुझे हूक्काम और हमजोहलयॉँ में जलील कर देगी। इसके अलावा उसे अब कानूनी औलाद की जरुरत भी नजर आने लगी यह हो सकता था कि वह ललिता को अपनी ब्याहता स्त्री मशहूर कर देता लेकिन इस आम खयाल को दूर करना असम्भव था कि उसने उसे भगाया हैं ललिता से नानकचन्द को अब वह मुहब्बत न थी जिसमें दर्द होता है और बेचैनी होती है। वह अब एक साधारण पति था जो गले में पड़े हुए ढोल को पीटना ही अपना धर्म समझता है, जिसे बीबी की मुहब्बत उसी वक्त याद आती है, जब वह बीमार होती है। और इसमे अचरज की कोई बात नही है अगर जिंदगीं की नयी नयी उमंगों ने उसे उकसाना शुरू किया। मसूबे पैदा होने लेगे जिनका दौलत और बड़े लोगों के मेल जोल से सबंध है मानव भावनाओं की यही साधारण दशा है। नानकचन्द अब मजबूत इराई के साथ सोचने लगा कि यहां से क्योंकर भागूँ। अगर लजाजत लेकर जाता हूं। तो दो चार दिन में सारा पर्दा फाश हो जाएगा। अगर हीला किये जाता हूँ तो आज के तीसरे दिन ललिता बनरस में मेरे सर पर सवार होगी कोई ऐसी तरकीब निकालूं कि इन सम्भावनओं से मुक्ति मिले। सोचते-सोचते उसे आखिर एक तदबीर सुझी। वह एक दिन शाम को दरिया की सैर का बाहाना करके चला और रात को घर पर न अया। दूसरे दिन सुबह को एक चौकीदार ललिता के पास आया और उसे थाने में ले गया। ललिता हैरान थी कि क्या माजरा है। दिल में तरह-तरह की दुशिचन्तायें पैदा हो रही थी वहॉँ जाकर जो कैफियत देखी तो दूनिया आंखों में अंधरी हो गई नानकचन्द के कपड़े खून में तर-ब-तर पड़े थे उसकी वही सुनहरी घड़ी वही खूबसूरत छतरी, वही रेशमी साफा सब वहाँ मौजूद था। जेब मे उसके नाम के छपे हुए कार्ड थे। कोई संदेश न रहा कि नानकचन्द को किसी ने कत्ल कर डाला दो तीन हफ्ते तक थाने में तककीकातें होती रही और, आखिर कार खूनी का पता चल गया पुलिस के अफसरा को बड़े बड़े इनाम मिले।इसको जासूसी का एक बड़ा आश्चर्य समझा गया। खूनी नेप्रेम की प्रतिद्वन्द्विता के जोश में यह काम किया। मगर इधर तो गरीब बेगुनाह खूनी सूली पर चढ़ा हुआ था। और वहाँ बनारस में नानक चन्द की शादी रचायी जा रही थी।
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लाला नानकचन्द की शादी एक रईस घराने में हुई और तब धीरे धीरे फिर वही पुराने उठने बैठनेवाले आने शुरु हुए फिर वही मजलिसे जमीं और फिर वही सागर-ओ-मीना के दौर चलने लगे। सयंम का कमजोर अहाता इन विषय –वासना के बटमारो को न रोक सका। हॉँ, अब इस पीने पिलाने मे कुछ परदा रखा जाता है। और ऊपर से थोडी सी गम्भीरता बनाये रखी जाती है साल भर इसी बहार में गुजरा नवेली बहूघर में कुढ़ कुढ़कर मर गई। तपेदिक ने उसका काम तमाम कर दिया। तब दूसरी शादी हुई। मगर इस स्त्री में नानकचन्द की सौन्दर्य प्रेमी आंखो के लिए लिए कोई आकर्षण न था। इसका भी वही हाल हुआ। कभी बिना रोये कौर मुंह में नही दिया। तीन साल में चल बसी। तब तीसरी शादी हुई। यह औरत बहुत सुन्दर थी अचछी आभूषणों से सुसज्जित उसने नानकचन्द के दिल मे जगह कर ली एक बच्चा भी पैदा हुआ था और नानकचन्द गार्हस्थ्कि आनंदों से परिचित होने लगा। दुनिया के नाते रिशते अपनी तरफ खींचने लगे मगर प्लेग के लिए ही सारे मंसूबे धूल में मिला दिये। पतिप्राणा स्त्री मरी, तीन बरस का प्यारा लड़का हाथ से गया। और दिल पर ऐसा दाग छोड़ गया जिसका कोई मरहम न था। उच्छश्रृंखलता भी चली गई ऐयाशी का भी खात्मा हुआ। दिल पर रंजोगम छागया और तबियत संसार से विरक्त हो गयी।

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जीवन की दुर्घटनाओं में अकसर बड़े महत्व के नैतिक पहलू छिपे हुआ करते है। इन सइमों ने नानकचन्द के दिल में मरे हुए इन्सान को भी जगा दिया। जब वह निराशा के यातनापूर्ण अकेलपन में पड़ा हुआ इन घटनाओं को याद करता तो उसका दिल रोने लगता और ऐसा मालूम होता कि ईश्वर ने मुझे मेरे पापों की सजा दी है धीरे धीरे यह ख्याल उसके दिल में मजबूत हो गया। ऊफ मैने उस मासूम औरत पर कैसा जूल्म किया कैसी बेरहमी की! यह उसी का दण्ड है। यह सोचते-सोचते ललिता की मायूस तस्वीर उसकी आखों के सामने खड़ी हो जाती और प्यारी मुखड़ेवाली कमला अपने मरे हूए सौतेल भाई के साथ उसकी तरफ प्यार से दौड़ती हुई दिखाई देती। इस लम्बी अवधि में नानकचन्द को ललिता की याद तो कई बार आयी थी मगर भोग विलास पीने पिलाने की उन कैफियातो ने कभी उस खयाल को जमने नहीं दिया। एक धुधला-सा सपना दिखाई दिया और बिखर गया। मालूम नहीदोनो मर गयी या जिन्दा है। अफसोस! ऐसी बेकसी की हालत में छोउ़कर मैंने उनकी सुध तक न ली। उस नेकनामी पर धिक्कार है जिसके लिए ऐसी निर्दयता की कीमत देनी पड़े। यह खयाल उसके दिल पर इस बुरी तरह बैठा कि एक रोज वह कलकत्ता के लिए रवाना हो गया।
सुबह का वक्त था। वह कलकत्ते पहुँचा और अपने उसी पुराने घर को चला। सारा शहर कुछ हो गया था। बहुत तलाश के बाद उसे अपना पुराना घर नजर आया। उसके दिल में जोर से धड़कन होने लगी और भावनाओं में हलचल पैदा हो गयी। उसने एक पड़ोसी से पूछा-इस मकान में कौन रहता है?
बूढ़ा बंगाली था, बोला-हाम यह नहीं कह सकता, कौन है कौन नहीं है। इतना बड़ा मुलुक में कौन किसको जानता है? हॉँ, एक लड़की और उसका बूढ़ा मॉँ, दो औरत रहता है। विधवा हैं, कपड़े की सिलाई करता है। जब से उसका आदमी मर गया, तब से यही काम करके अपना पेट पालता है।
इतने में दरवाजा खुला और एक तेरह-चौदह साल की सुन्दर लड़की किताव लिये हुए बाहर निकली। नानकचन्द पहचान गया कि यह कमला है। उसकी ऑंखों में ऑंसू उमड़ आए, बेआख्तियार जी चाहा कि उस लड़की को छाती से लगा ले। कुबेर की दौलत मिल गयी। आवाज को सम्हालकर बोला-बेटी, जाकर अपनी अम्मॉँ से कह दो कि बनारस से एक आदमी आया है। लड़की अन्दर चली गयी और थोड़ी देर में ललिता दरवाजे पर आयी। उसके चेहरे पर घूँघट था और गो सौन्दर्य की ताजगी न थी मगर आकर्षण अब भी था। नानकचन्द ने उसे देखा और एक ठंडी सॉँस ली। पतिव्रत और धैर्य और निराशा की सजीव मूर्ति सामने खड़ी थी। उसने बहुत जोर लगाया, मगर जब्त न हो सका, बरबस रोने लगा। ललिता ने घूंघट की आउ़ से उसे देखा और आश्चर्य के सागर में डूब गयी। वह चित्र जो हृदय-पट पर अंकित था, और जो जीवन के अल्पकालिक आनन्दों की याद दिलाता रहता था, जो सपनों में सामने आ-आकर कभी खुशी के गीत सुनाता था और कभी रंज के तीर चुभाता था, इस वक्त सजीव, सचल सामने खड़ा था। ललिता पर ऐ बेहोशी छा गयी, कुछ वही हालत जो आदमी को सपने में होती है। वह व्यग्र होकर नानकचन्द की तरफ बढ़ी और रोती हुई बोली-मुझे भी अपने साथ ले चलो। मुझे अकेले किस पर छोड़ दिया है; मुझसे अब यहॉँ नहीं रहा जाता।
ललिता को इस बात की जरा भी चेतना न थी कि वह उस व्यक्ति के सामने खड़ी है जो एक जमाना हुआ मर चुका, वर्ना शायद वह चीखकर भागती। उस पर एक सपने की-सी हालत छायी हुई थी, मगर जब नानकचनद ने उसे सीने से लगाकर कहा ‘ललिता, अब तुमको अकेले न रहना पड़ेगा, तुम्हें इन ऑंखों की पुतली बनाकर रखूँगा। मैं इसीलिए तुम्हारे पास आया हूँ। मैं अब तक नरक में था, अब तुम्हारे साथ स्वर्ग को सुख भोगूँगा।’ तो ललिता चौंकी और छिटककर अलग हटती हुई बोली-ऑंखों को तो यकीन आ गया मगर दिल को नहीं आता। ईश्वर करे यह सपना न हो!

-जमाना, जून १९१३

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