शिवनाथ बाबू की देह मेरे सामने पड़ी है। सफेद चादर से ढँकी हुई! पतली-दुबली काया-जैसे चादर के नीचे कुछ है ही नहीं। उम्र और लगातार बीमारी ने उन्हें काफी दुर्बल कर दिया था। ऑंखें आधी खुली हुईं, जैसे अभी उठकर मुझसे बातें करने लगेंगे। यह व्यक्ति, यह किटकिटया बाबू भला चुप कैसे रह सकते हैं? हाँ, वह अपने मातहत लोगों में इसी नाम से मशहूर थे। लोग सदा ही उनकी किटकिट से परेशान रहते थे। किंतु ऊपर से जितने शुष्क और कठाेर, भीतर से उतने ही कोमल; हर व्यक्ति की चिंता जैसे उनकी अपनी परेशानी बन जाती थी। जब तक दूसरे की परेशानी दूर न कर दें, उन्हें चैन नहीं आता था।
अपने इसी स्वभाव के कारण परिवार की सारी जिम्मेदारियाँ उन्होंने अनजाने ही अपने ऊपर ओढ़ ली थी। बीमार पिता, दो अनब्याही बहनें। सबसे बड़े बेटे थे न! उनसे छोटे दो भाई विवाह कर अपने-अपने संसार में खो चुके थे। पर शिवनाथ बाबू अपनी बहनों को बिना ब्याहे अपने विवाह के बारे में कैसे सोच सकते थे! और इसी कारण वह आजीवन विवाह न कर सके।
शिवनाथ बाबू की ऑंखें शून्य में जैसे कुछ खोज रही हैं। ज्ञानेंद्र, उनका भाई। अभी-अभी बता रहा था कि भैया की ऑंखें तो बंद होने में ही नहीं आ रही थीं। मैं जानता हूँ कि उनकी ऑंखें अवश्य मुझे ही तलाश रही होंगी। वह अवश्य ही आशा संजोए होंगे कि मैं समय पर पहुँचकर उन्हें बचा लूँगा। वह बचपन में ही मुझे पुत्र-समान मानते थे।
रिटायर होते ही उन्होंने मुझे पत्र लिखा था कि अब वह अपने भाई-बहनों के संसार में अपने-आपको अकेला पाते हैं। मैंने उन्हें लिखा भी कि 'दो-चार महीने मेरे साथ रह जाइए, तो मन बहल जायेगा।' किंतु उनके मन में क्या था, नहीं समझ सका। शायद वह मुझसे कुछ अधिक ही अपेक्षा रखते थे अथवा अपनी बहनों का मोह छोड़ पाना अभी भी संभव नहीं हो पा रहा था-कारण कुछ भी रहा हो, पर वे मेरे पास आ नहीं सके।
जब भी शिवनाथ बाबू को मिलने जाता तो लगता था कि मेरे अतिरिक्त वह शायद ही अपने मन की व्यथा किसी से कह पाते हों। उनकी बहन ने जब उन्हें बेघर कर दिया था तब भी मेरे कंधे पर सिर रखकर बच्चों की तरह रोए थे। उस दिन वह सचमुच टूट गये थे। इससे पहले भी अनेक बार संबंधियों की तल्खी को उन्होंने अनुभव किया था। माँ टी.बी. से मर गयी, पिताजी कैंसर से पीड़ित रहे, निर्मला का पति उसे दहेज के लिए तुग करता रहता था और ऐसे में आभा ने ऐसा वार किया उन पर।
उस सुबह जब शिवनाथ बाबू दफ्तर जाने के लिए तैयार हो रहे थे तो वह इस बात से बिल्कुल अनभिज्ञ थे कि उनके जीवन में कोई तूफान आनेवाला है। उन्होंने आभा को बुलाकर समझाया था, 'देखो आभा, शमशेर तुम्हारे लिए ठीक पति साबित नहीं होगा। तुम पढ़ी-लिखी लड़की हो, फिर एक मोटर मैकेनिक के साथ कैसे गुजारा कर पाओगी? मैं चाहता हूँ, तुम किसी बिरादरी के लड़के से ही विवाह करो। शमशेर की नीयत भी मुझे कुछ अच्छी नहीं लगती।'
"भइये, क्या आपने तय कर लिया है कि आप शमशेर के साथ मेरे विवाह की अनुमति नहीं देंगे?'
"आभा, न तो मैं कोई जल्लाद हूँ और न ही हत्यारा। मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूँ। पिता समान। मैं तुम्हारी अच्छाई और भलाई ही चाहूँगा।'
"भइये, तुम्हारी अपनी कोई संतान होती तो शायद तुम मेरा दर्द समझ पाते...'
शिवनाथ बाबू सन्न होकर रह गये। उन्हें इतनी कठोर बात की कभी भी आशा न थी। वह मन-ही-मन अपना दर्द दबा गये। विष का एक और घूँट पी गये।
दफ्तर में उनका मन किसी भी काम में नहीं लग रहा था। रह-रहकर उन्हें एक ही खटका लग रहा था-'आभा कहीं कोई गलत कदम न उठा ले।' आभा उनसे कई बातें छुपाने लगी थी। वह पिताजी के कान में कुछ फुसफुसाती रहती और भइये के आने पर चुप हो जाती। शिवनाथ बाबू स्वयं को यह समझाकर तसल्ली दे लेते कि शायद यह उनकी कोई गलतफहमी है।
उन्हें शमशेर से कोई वैर नहीं था। परंतु वह नहीं चाहते थे कि उनकी बहन सारी उम्र गरीबी में ही काट दे। उन्हें अपनी बहन से बेहद स्नेह था। जवानी को लगाम तो कभी भी पसंद नहीं आती। आभा को भी अपना भाई अब अपना सबसे बड़ा दुश्मन लगने लगा था। शमशेर तो मोटर-मैकेनिक ही था, और वैसी ही बात कर सकता था। उसने आभा को सलाह दी, 'तुम कहो तो भइये को, साले को ठिकाने लगा दें! समझता क्या है अपने को?'
डर गयी थी आभा। उसका बहन सुलभ प्यार कैसे सहन कर पाता कि कोई उसके भाई की हत्या कर दे! किंतु वह भी कैसे भइये को कह दे कि वह शमशेर के बच्चे की माँ बनने वाली है? उसने सोचा कि आत्महत्या ही अब एक रास्ता है। किंतु शमशेर भी कोई नौसिखिया नहीं था। उसने आभा को अपनी सारी योजना समझा दी।
आभा समझ नहीं पा रही थी कि वह कैसे इस योजना में शरीक हो सकती है? कैसे वह अपने पिता स्वरूप भाई को इस तरह बेघर कर दे? उधर शमशेर कहे जा रहा था, 'यह घर कौन-सा तुम्हारे बाप का है? भइये को तो बाद में वैसे ही यह घर खाली करना है। तुम चुपके से एक लाख रुपया लो और घर की चाबी मकान-मालिक को वापस कर दो। हमारा जीवन सुधर जायेगा। मकान-मालिक भी खुश।' आभा का मन डोल रहा था।
वह इसी द्वंद्व में थी कि वह क्या करे। यही द्वंद्व उसे बड़ी बहन निर्मला के पास ले गया। निर्मला ने उसे बहुत डाँट लगायी, फिर प्यार से समझाया। वे दोनों इस बात से अनभिज्ञ थीं कि उनका वार्तलाप कोई और भी सुन रहा है।
आभा का जीजा, निर्मला का पति, पैसे का लालची, कपड़े का दलाल, जीभ अपलपाता हुआ कमरे में आया, 'अरी ससुरी, तेरे दिमाग में भूसा भरा है क्या? शमशेर अक्ल की बात कह रहा है और तुम दोनों हो कि मेरी लुटिया डुबोने पे तुली हो, साली! चलो, शमशेर से सलाह करनी है। अरी बुद्वुओ, एक लाख रुपया बुरा लगता है क्या तुम दोनों को? आभा, मेरी बात मानो। पैसा ले लो, आपस में आधा-आधा बाँट लेंगे। तुम्हारे बूढ़े बाप को मैं घर में रख लूँगा। वो जिएगा भी तो कितने दिन! फिर वो बुङ्ढा अगर मरते-मरते दहेज की रकम पूरी कर दे, तो शायद उसे भी स्वर्ग नसीब हो जाये।'
आभा संभत: यह सब करने को तैयार ही थी, क्योंकि जीजे की तूफानी आवाज के सामने वह ताश के पत्तों की तरह ढह गयी और शिवनाथ बाबू के लिए विष की मात्रा में वृध्दि हो गयी।
प्रतिदिन की भाँति शिवनाथ बाबू संध्या समय जब दफ्तर से वापस घर के लिए चले तो वे सोच रहे थे कि आभा को एक बार फिर समझाने की कोशिश करेंगे। 'आखिर, आभा बहन है मेरी, छोटी बहन। क्या वह मेरी मर्जी के विरुध्द कोई भी कदम उठा पयेगी? नहीं! वह इतनी नासमझ, निर्दयी नहीं हो सकती...' फिर भी उनका मन आशंकाओं से भरा हुआ था। रास्ते में वह केमिस्ट की दुकान से दवाई खरीद लाये-अपने मरणासन्न पिता को जीवित रखने का एक निष्फल प्रयास।
हाथ में रसमलाई का दोना लिये, शिवनाथ बाबू घर की सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। आज वह आभा की पसंद की मिठाई लाये थे ताकि उसे प्यार से समझा सकें। दरवाजा खुला हुआ था। शिवनाथ बाबू थोड़े ठिठके। साधारणत: ऐसा कभी होता नहीं था। वह आगे बढ़े और घर के अंदर दाखिल हुए। घर में कुछ लोगों की बातचीत सुनायी देने लगी। वहाँ काफी हलचल-सी दिखायी दे रही थी। उनका दिल धड़का-बाबूजी ठीक से हों। उन्होंने अपने हाथ में पकड़ी दवा की ओर देखा। आभा को आवाज लगायी। एक दाढ़ी वाला व्यक्ति सामने आया।
"क्या बात है भाई? अरे शिब्बू! कैसे हो बेटा? कुछ रह गया था क्या घर में, जो लेने आये हो? वैसे तो ट्रक में सामान ठीक से ही लदवाया था। मगर तुम दिन भर थे कहाँ? बड़े संगदिल हो भाई! बीमार बाप, अकेली बहनें, और तुम सामान चढ़ाने तक नहीं आए! दफ्तर का काम क्या इतना जरूरी होता है?' यह बशीर मियाँ थे, इस मकान के मालिक।
शिवनाथ बाबू हक्के-बक्के खड़े थे। स्थिति उनकी समझ से बिल्कुल परे थी।
"बशीर चाचा, क्या कह रहे हैं आप! आभा और पिताजी कहाँ हैं? क्या हो रहा है इस घर में?'
"देखो बेटा, तुम्हारे पिताजी ने यह मकान खाली कर दिया है। मुफ्त में नहीं। पूरी एक लाख की पगड़ी ली है।'
"पर पिताजी ने ऐसी हालत में आपसे पैसे कैसे लिये होंगे? आप झूठ बोलते हैं।'
"बेटा, तैश में तो आओ मत! मैंने यह मकान तुम्हें तो कभी दिया नहीं था। तुम्हारे पिताजी को दिया था सो उनसे वापस ले लिया। मियाँ, चालीस बरस से दिल पर बोझ रखे बैठा था। सो एक लाख देकर उतार दिया। वैसे बेटा, अगर रात गुजारने के लिए जगह न हो तो बशीर चाचा का घर सलामत है। अब बहनें तो तुम्हारी तुम्हें रखेंगी नहीं। बड़ी वाली तो शायद तुम्हें रख भी ले, पर शमशेर के यहाँ तो तुम खुद ही रहना नहीं चाहोगे...'
बशीर मियाँ बोले जा रहे थे। और शिवनाथ बाबू का मन हो रहा था कि जोर से दहाड़ें मारकर रोने लगें। किंतु उनका तो जीवन ही जहर पीने के लिए था। उनका काम तो औरों को मिठाई खिलाना था। बशीर चाचा के हाथ में रसमलाई का दोना देते हुए, शिवनाथ बाबू, अपनी रुलाई रोते हुए बोले, 'बशीर चाचा, मुबारक हो! याद है तुम्हें, जब मैं छोटा था तो मुम मुझे हवा में उछालकर बिस्तर पर पटके देते थे? आज तो तुमने मुझे सीधा सड़क पर पटक दिया है। मुबारक हो! लो रसमलाई, खाओ! खाओ!'
और शिवनाथ बाबू घर से बाहर हो गये। क्रोध और क्षोभ से उनके पैर काँप रहे थे। घड़ी देखी, तो रात के नौ बज रहे थे। इस समय जायें तो कहाँ? उन्हें लगा कि समय वहीं रुक जाये। उन्हें विश्वास नहीं हो पा रहा था कि उनकी बहनें उनके विरुध्द ऐसा षडयंत्र रच सकती हैं। कितना प्यार दिया था उन्होंने दोनों को! उसके बदले में उनको क्या मिला? ...मन में विचार आया कि वकील आहूजा से जाकर सलाह ले लूँ। शायद कोई राह सुझा दें। पर अपने ही घर को तमाशा बनाने की हिम्मत नहीं बटोर पाये शिवनाथ बाबूफ फिर सोचा कि शमशेर के घर जाकर आभा से बात करें। परंतु किस आभा से? जो उन्हें इस तरह बेघर करके परायी हो गयी है? क्या उसने निर्मला से बात की होगी? ...पर वहाँ भी तो लालची जीजा है। पिताजी का क्या हुआ? ...क्या वह जिंदा हैं? ...उनका अपना सामान कहाँ होगा? ...पैसा क्या दोनों बहनों ने बाँट लिया है? ...इन्हीं प्रश्नों से घिरे शिवनाथ बाबू साइकल चलाये जा रहे थे।
सर्दी बढ़ती जा रही थी। शिवनाथ बाबू ने निर्णय ले ही लिया कि वह निर्मला के घर जायेंगे। स्थिति का सही तरीके से जायजा लेने पर ही आगे कुछ सोचेंगे।
द्वार पर दस्तक दी। दरवाजा खुला और सामने बीमार-सी मुसकान लिए निर्मला खड़ी थी। ऑंखें नीची।
"निम्मो, कौन आया है?' जीजा ने आवाज दी।
"भैया आया है।'
"आइए साला साहिब। आपके बाबूजी भी यहीं हैं। आज आभा और शमशेर यहीं छोड़ गये हैं। कुछ बेहोशी-सी है। मैंने डॉक्टर बुलवाया है।' सब कुछ कितनी सहजता से कह गया निर्मला का पति!
बैठक में एक ओर दीवान पर पिता नाम की वस्तु पड़ी थी। शिवनाथ बाबू उनकी ओर देखते रहे। एकाएक बाबूजी ने करवट बदली। कराहा। और बेटे की ओर देखा। शिवनाथ बाबू ने अपने जीवन में जितना विष पिया था, वह सब उनकी ऑंखों में उतर आया। उन ऑंखों में क्या कुछ नहीं था-घृणा, क्रोध, बेबसी, दु:ख...। बाबूजी उन ऑंखों की ओर अधिक देर तक नहीं देख पाये। कुछ ही क्षणों में उनकी गरदन एक ओर लुढ़क गयी। शिवनाथ बाबू को सड़क पर उतारकर बाबूजी सदा के लिए इस संसार से प्रस्थान कर गये।
दोनों भाई पिता की अंत्येष्टि के लिए आ पहुँचे। दोनों ऑंखों-ऑंखों में ही एक-दूसरे को कुछ समझा रहे थे। पिता को अग्नि-सुपुर्द कर शाम को सब निर्मला के घर ही इकट्ठे हुए। ज्ञानेंद्र ने ही मुँह खोला, 'भइये, डायरेक्टर तो आप बहुत अच्छे हैं। क्या कामयाब शो प्रोडयूस किया है! ...हम भी तो आपके भाई हैं। पिताजी की संपत्ति में कुछ-कुछ तो हमारा भी हक बनता है।'
शिवनाथ बाबू की दृष्टि निर्मला और आभा की ओर मुड़ गयी। आभा को अपना गर्भ अंदर जलता-सा प्रतीत होने लगा। वह सोचने लगी-'कहाँ से आयी इतनी गर्मी भइये के नत्रों में?'
"निम्मो, इन्हें बता दो, पैसे का क्या हुआ?' शिवनाथ बाबू की आवाज जैसे दक्षिणी ध्रुव से आ रही थी।
"अजी उस बेचारी से क्या पूछो हो! पूछो मेरे से, तो बतलाऊँ न! तुम तीनों भाई तो ठहरे खुखरे। तुमसे तो छोटी बहन की हाती ना। परम पूज्य ससुरजी ने तो अपनी आभा की शादी करनी थी न, सो आधे पैसे शमशेर के हवाले कर दिये। इन्सान तो वो अच्छे थे न! जानते थे कि बड़ी बेटी को दहेज दिया न था। सो बाकी जो बचा वो हमारे हवाले कर गये। और फिर साले साहिब, आपको भी तो रखना है, अब जीवन भर। उसमें भी तो खर्चा होगा। आप तो रिटायर हो लोगे और छ: महीने में। मैं कहूँ, समझे के ना?'
शिवनाथ बाबू न तो अपने जीजा की बकवास को सुनना चाहते थे, और न ही उन्होंने सुना। पर वह इतना जान गये थे कि जब तक कहीं और प्रबंध न हो जाये, उन्हें रहना निम्मो के यहाँ ही पड़ेगा।
शिवनाथ बाबू रिटायर हो गये। उन्हें दफ्तर से पूरे पचास हजार रुपये भविष्य निधि और ग्रेच्यूटी के मिले। जीजा बहुत प्रसन्न था। भाई-बहनों की गिध्ददृष्टि फिर एक बार उनकी ओर मुड़ी। शिवनाथ बाबू को अब वैसे ही जीवन से कोई मोह नहीं रह गया था। उन्होंने मुझे पत्र लिखा था कि मेरे पास बंबई आना चाहते हैं। मैं भी तो चाहता था कि वह मेरे पास आकर रहें; किंतु...!
बचपन में जब मेरे पिताजी का तबादला एक छोटे-से गाँव में हो गया था, तो मैं शिवनाथ बाबू के यहाँ ही रह गया था, ताकि अपनी पढ़ाई जारी रख सह्लाूँ। घर से लेकर सड़क पार करते और स्कूल बस पर चढ़ने तक उनकी निगाहें केवल मुझे ही निहारती थीं। माता-पिता की अनुपस्थिति में पिता का प्यार उन्होंने मुझे दिया था। शिवनाथ बाबू ने पिताजी को एक पत्र लिखा था: 'भाई साहिब, नरेन को देखता हूँ तो आपको धन्यवाद देना चाहता हूँ। कितना प्यार करता है मुझसे! औलाद का सुख क्या होता है, इसका एहसास तो आपने मुझे बिना विवाह के ही करवा दिया।'
अपनी वसीयत में भी वह मेरे लिए एक काम छोड़ गये हैं कि उनकी चिता को अग्नि मुझे ही देनी है। और में यहाँ आ गया हूँ। अपनी ओर से उन्हें संतान का अंतिम सुख देने के लिए।
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