पत्र मेरे सामने रखा था। रामप्रकाश एंड कंपनी का नाम उस पर सुनहरे अक्षरों से छपा था। उस कागज के पुतले ने मेरे सारे सपनों को धाराशायी कर दिया था। मेस चहकना जैसे उड़न छू हो गया था। मेरी पत्नी तो जैसे बेहाश होने को थी। कभी उसने भी रामप्रकाश एंड कंपनी के सुनहरे अक्षरों जैसे सुनहरे सपने देखे थे। बंबई जैसे महानगर में सपने ही तो मनुष्य को जीवित रखते हैं। धारावी, माहीम, कुर्ला और सारे उपनगरों की झोंपड़पट्टियों में जी रहे लोग किसी सपने के सहारे ही तो अपना जीवन बिता रहे हैं। इसी शहर में रामप्रकाश ने हमें भी एक सपना दिखा दिया था।
सपने तो मैं दिल्ली में भी बहुत देखता था। वहां अपना घर है। घर! हां, सचमुच का घर! बंबई के कबूरखानों से कहीं भिन्न आंगन, सहन, बाग, सात कमरे, दो गुसलखाने, नौकरों के कमरे और हमारी प्यारी कुतिया लिजा का कमरा। इतना सब होते हुए भी मुझे बंबई आने की क्या आवश्यकता थी? पिताजी का अच्छा-खासा व्यवसाय है। और मैं उनका इकलौता पुत्र! मेरे साथी भी तो मुझसेर् ईष्या करते थे। लाला धर्मराज का इकलौता वारिस-उनकी तीन मिलों का भावी मालिक! सब कुछ ठीक ही तो चल रहा था। फिर एकाएक क्या हो गया? क्यों मैं बगावत पर उतरू हो गया? कैसे इस मायानगरी में चला आया मैं? उस पत्र को देखकर मैं उठल उठा था। एयरलाइन ने मुझे नौकरी दे दी थी-फ्लाइट परसर की।
पत्र तो यह भी आया था, नीले कागज पर सुनहरे अक्षर लिये, किंतु काले रंग के टाइप किये शब्दों ने नीले और सुनहरे रंग को जहरीला-सा बना दिया था। रोहिणी सुबक रही थी। मैं कभी उसे ढाढ़स बंधाता और कभी स्वयं को संयत करने की कोशिश करता। एक ठंडा काला सन्नाटा घर में छा गया था।
प्यार! हां, यही तो किया मैंने। मैं रोहिणी को प्यार करने लगा तो ऐसा क्या गुनाह हो गया था? पिताजी तो गरीब घर से ही बहू लाना चाहते थे। उन्हें तो दहेज से कोई लगाव नहीं था, किंतु जात-बिरादरी के मामले में कट्टरपन उनमें जैसे कूट-कूटकर भरा था! लव-मैंरिज के नाम से ही उन्हें चिढ़ थी। बड़ों का अस्तित्व उन्हें हिलता दीखने लगता था। नाराज तो रोहिणी के परिवार वाले भी हुए थे। हम दोनों अकेले पड़ गये थे।
अकेले! अकेले तो हम आज भी हैं। मेरे पिता कोई फिल्मी पिता नहीं, जो कुछ दिनों बाद हमें अपने सीने से लगा लेते। उनके उसूल तो संम्भवत: भगवान भी न बदल पायें। हां, ससुरालवालों ने अवश्य हमारे प्यार को समझने की कोशिश की। कुछ समय बाद उन्होंने हमें माफ भी कर दिया। इस सुरसा नगरी में हम दोनों तीन होने की प्रतीक्षा में हैं, तीन महीने में रोहिणी मां बनने वाली है। मेरी मां तो पिताजी के हुक्म के बिना सांस भी नहीं ले सकती। रोहिणी की मां अब हमसे नाराज तो नहीं हैं, पर इतनी प्रसन्न भी नहीं हैं कि प्रसव करवाने के लिए हमारी सहायता करने बंबई आ जायें। ऊपर से यह पत्र! अब तो हमें काणे साहब भी टका-सा जवाब दे चुके हैं। इस फ्लैट को भी दो महीने में खाली करना है। जीवन एक बड़ा-सा प्रश्नचिन्ह बन गया है।
प्रश्न! जब हम दोनों बंबई पहुंचे तो भी यही प्रश्न हमारे सामान मुंह बाये खड़ा था कि कहां रहें। करोड़पति बाप का इकलौता बेटा! पहली बार अकेला अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश कर रहा था। पहले दिन जिस होटल में भी रहने के बारे में सोचा, वही अपनी जेब से ऊंचा दिखायी दिया। जैसे-तैसे करके, कांदिवली में एक होटल पचास रुपये रोज पर तय हुआ।
सारा शहर ऊंची-ऊंची इमारतों से घिरा पड़ा है-ईटों का जंगल। उन माचिसनुमा बिल्डिगों में मैं भी अपने लिए एक घोंसला तलाश रहा था। रोज दफ्तर के बाद दलालों के आगे घिघियाता-सा पहुंच जाता। सबके सब साले मक्कार थे। पंद्रह-बीस हाजर की डिपाजिट और छ: से आठ सौ रुपये किराया-इससे नीचे तो कोई बात ही नहीं करता। और यह हाल था उपनगर का। शहर में तो कोई किराये पर फ्लैट देने की बात ही नहीं करता।
जयकर ने ग्रांट रोड और कोलीवाड़ा की बात की थी। कोलीवाड़ा के नाम से एक सरकारी कॉलोनी का जिक्र भी आया। मन में एक नयी आशा जाग उठी। बहुत सुंदर-सा नाम बताया था उसने-एंटॉपहिल! l सुनकर लगा, जैसे मालाबार हिल या पाली हिल के समान कोई सुंदर सी जगह होगी। पहली बार जब वहां गया तो सच्चाई की कड़वाहट ने थू-थू करवा दी। बांदरा हाइवे पार करते ही एक सड़ांध दिमाग में घुसने लगी। और फिर आया धारावी-गंदगी की पराकाष्ठा! शाम का समय था। कोलीवाड़ा की वेश्याएं अपना बाजार सजाये सड़कों पर घूम रही थीं। मन में एक अजीब-सी धारणा घर करती जा रही थी। आखिर एंटॉपहिल आ ही पहुंचा। सेक्टरों में बंटी हुई सरकारी कॉलोनी। चारों ओर से झोंपड़ियों से घिरी। एक ओर से चैंबूर के कारखाने से आती धुएं की लकीरें तथा रसायनों की गंध, तो दूसरी ओर जरायम पेशा लोगों का डर।
हां, वहां कच्ची शराब बनाने वालों की झोंपड़ियां भी थीं। वहां भी फ्लैट मिना क्या आसान था? हर दूसरे घर में दलाल। फ्लैट की शर्तें सुनकर बहुत घबराहट होती। ग्यारह महीने महीने का किराया इकट्ठा लेने का रिवाज है वहां। दो या तीन महीने का किराया दलाली के रूप में भी देना पड़ता है। हमारा दलाल छोटेलाल भी तो कम घाघ नहीं था। बात करते हुए खीसें बहुत निपोरता था। बहुत चक्कर लगवाये उसने भी।
चक्कर लगाने के सिवा मैं कर भी क्या सकता था! फिर जैसे भगवान ने हमारी सुन ली। छोटेलाल ने हमें चौथी मंजिल पर एक कबूतरखाना दिलवा ही तो दिया।
""हें-हें-हें...देखो सेठ, चौथी माला का अपना फायदा है। एक तो चोरी-चकारी का डर नहीं, पानी की टंकी भी ठीक ऊपर है, और फिर मेहमान भी कम आयेंगे। कौन चढ़ेगा चार-चार माला!
हमें तो रोज चढ़नी थीं वे चार मंजिलें, किंतु फिर भी छोटेलाल हमारे लिए जैसे भगवान का अवतार था। उसने हमें कांदिवली के बदबूदार कमरे से उठाकर चौथी मंजिल की फर्राटेदार हवा में ला बिठाया था। जीवन कुछ चलने लगा था। रोहिणी को अब मेरे पीछे अकेले रहने में उतनी परेशानी नहीं होती थी। मेरी नौकरी भी तो अजीब-सी है। सारा समय घर में ही बीतता है या फिर भारत से बाहर ही रहना होता है। कई बार तो मेरा टूर दस-बारह दिन का भी हो जाता है, परंतु रोहिणी के चेहरे पर पीड़ा की ए लकीर-सी खिंच जाती। अकेलेपन से कहीं अधिक उसका एहसास हमें झकझोर देता था। कोई भी रिश्ता ऐसा नहीं था, जिसका वास्ता देकर किसी को हम अपने यहां बुला लेते।
बुलाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। वह बिना बुलाये ही आ धमके। सारी कॉलानी में शोर मचा हुआ था -'चैकिंग हो रही है। चैकिंग!' यह क्या होती है? और तभी छोटेलाल भी हांफता हुआ आ ही पहुंचा, नरेंद्रजी, जल्दी कीजिए, फ्लैट को ताला लगाकर कहीं निकल चलिए। आज चैकिंग हो रही है। किसी ने कंप्लेंट कर दी है कि अलॉटी लोगों ने फ्लैट किराये पर चढ़ा रखे हैं। जल्दी करो साहिब, रात को वापस आ जाइएगा। हड़बड़ाहट में फ्लैट को ताला लगाया और किंग सल स्टेशन की ओर चल दिये। समझ में नही आ रहा था कि जायें तो जायें कहां।? रोहिणी भी बदहवास-सी हो रही थी। शाम तक निरुट्ठेश्य वी.टी. से गेटवे तक घूमते रहे। सब कुछ बहुत बेंमानी-सा लग रहा था। रात ढलने पर वापस पहुंचे। शोर शांत हो चुका था। न तो मुझे ही भूख थी और नही रोहिणी खाना बनाने की स्थिति में थी। दोनों यों ही पड़े रहे।
पड़े रहने से तो कोई काम बनता नहीं। फिर से एक बार फ्लैट की तलाश खुरू कर दी। वैसे भी ग्यारह महीने पूरे होने को थे। हमारे दलाल की खीसें फिर से निपुरने वाली थीं। अब दोबारा इस चैकिंग का सामना करने की हिम्मत नहीं थी हम दोनों में। एक गुजराती महिला को हम पर दया आ गयी। उसने अपना अंधेरीवाला फ्लैट हमें किराये पर देना स्वीकार कर लिया। उसने कहा हफ्ते-पंद्रह दिन में किसी भी दिन आ जाओ। उसे डिपॉजिट भी कोई चाह न थी।
किंतु छोटेलाल को तो अपनी दलाली की चाह थी, अरे नरेंद्रजी, दस महीने तो हो चुके। आप लगले ग्यारह महीने का किराया भी दे ही डालिए। और आपके लिए एक स्पेशल छूट, अब की बार आपसे दो महीने की दलाली नहीं लूंगा, सिर्फ। एक महीने से काम चल जायेगा।
गुजराती महिला के आश्वासन ने मुझमें बहुत आत्मविश्वास जगा दिया था। मैं बोल ही तो पड़ा, दलाली किस बात की छोटेलाल! दलाली तो एक ही बार ही दी जाती है, जो हम दे चुके हैं। अब कोई दलाली वलाली नहीं देंगे हम।
छोटेलाल कुछ गड़बड़ा सा गया। यह भाषा और धमकी दोनों ही उसके लिए अप्रत्याशित थीं, किंतु उसने हार मानना कहां सीखा था, यह तो और भी बढ़िया हुआ। अब नया ग्राहक तो दो-तीन महीने की दलाली देगा ही। चाबी लेने परसों हाजिर हो जाऊंगा।
सामान ट्रक में लदवा रहा था। दिमाग उत्तेजना से भरा था। मन-ही-मन छोटेलाल को लाखों गालियां दे चुका था और उस गुजराती महिला को दुआएं।
अंधेरी पहुंचकर जीवन का सबसे काला अंधेरा देखा था मैंने। सामान ट्रक में लदा पड़ा था। मैं और रोहिणी उस गुजराती महिला के पास चाबी लेने पहुंचे तो उसने फ्लैट देने से साफ इन्कार कर दिया। उसे कोई बीस हजार डिपाजिट देनेवाला मिल गया था। दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था। मन हुआ कि इस महिला का खून कर दूं। हमें सड़क पर ला खड़ा किया था उसने। आसमान में बादल गरज रहे थे। बंबई की बरसात का कोई भरोसा है? उसी समय ट्रक छोटेलाल के घर की ओर मुड़वा दिया।
छोटेलाल ने अभी गिलास में रम डाली ही थी। मुझे देखकर भी अनदेखा कर दिया उसने।
""छोटेलालजी, बहुत मुसीबत में फंस गया हूं। आप ही मेरी सहायता कर सकते हैं।
""अरे नरेंद्रजी, मुझ गिरे हुए इन्सान के मुंह लगने आप कहां आ गये! आप तो अंधेरी में रहनेवाले थे! एंटॉपहिल तो गुडों का इलाका है!
""छोटेलालजी, मेरी बदतमीजी, मेरी गुस्ताखी को माफ कर दीजिए। हमें हमारा फ्लैट वापस कर दीजिए। आप जितनी दलाली चाहें, ले लें। इस समय तो हम सड़क पर खड़े हैं। थोड़ा उपकार कर दीजिए।
संभवत: मेरी आंखों में घुटे हुए आंसुओं ने छोटेलाल पर थोड़ा असर किया था। वह तीन महीने की दलाली लेकर हमें फ्लैट देने को तैयार हो गया। जैसे सामान उतारा था, वैसे ही चढ़ाने लगे।
इस हादसे के बाद हम काफी हिल-से गये। एक दिन रात को सोते समय रोहिणी बहुत प्यार से बोली, सुनिए, जो थोड़ा-बहुत गहना हमारे पास है, उसे बेच देते हैं। एक छोटा-सा घर खरीद लेते हैं। जब हाथ खुला होगा तो गहने फिर से बनवा लेंगे। मुझे एक झटका-सा लगा। मेरी पत्नी इतनी दूर की सोच रही है और मैं अभी कौड़ियां मिलाने के चक्कर में हूं। यह सुनकर स्वयं को कुछ हीन-सा अनुभव करने लगा।
एक दिन ऑफिस के नोटिस-बोर्ड पर एक सूचना टंगी देखी। यूं लगा, जैसे में इसी सूचना की प्रतीक्षा में था। जुहू में इतने सस्ते दामों में फ्लैट! वह भी समुद्र-तट को छूता हुआ! पत्नी को भी विचार पसंद आया। गहने लेकर उसी सुनार के पास पहुंचा, जहां से बनवाये थे। गहने खरीदते समय तो बनवाई भी ली थी उसने। अब बोला, सेठ, बीस परसैंट तो टांके में जायेगा। मरता क्या न करता! वही ले लिया।
और भी जहां-तहां से पैसा इकट्ठा कर सकता था, किया। पैसा लेकर चीफ प्रोमोटर काणे साहब के पास एकाउंट्स डिपार्टमेंट की ओर चला जा रहा था-मन में एयरलाइन की सोसाइटी का सपना लिये। एकदम से चालीस हजार रुपया कैश किसी अंजान व्यक्ति को देते डर-सा लग रहा था। जी कड़ा करके काणे साहब को पैसा दे ही दिया, साथ में बीस हजार रुपये का चैक। बाकी तो एयरलाइन से लोन लेना था। ब्लैक और व्हाइट का सिलसिला अब मुझे भी समझ आने लगा था। क्या विड़बना है-सचमुच के नोट तो ब्लैक हैं और पेन से लिखा चैक व्हाइट है। काणे साहब कहे जा रहे थे, ऐसा मौका फिर नहीं मिलेगा। अगली दीवाली आप अपने घर में ही मनायेंगे...!
अब मैं जब भी फ्लाइट पर विदेश जाता तो पैसे को दांतो तले दबाकर खर्च करता रहता तो फाइव-स्टार होटलों में (एयरलाइन के खर्चे पर) परंतु खाना वहां के ढाबों में ही खाता। हैंबर्गर, हॉट डॉग, फ्रैंग-फर्टर या पिजा खाकर पेट भर लेता। रात का देर से, एक या दो बजे सोता ताकि सुबह देर से ही उठूं और नाश्ते का समय निकल जाये। दोपहर और रात के खाने पर गुजारा करता। कभी-कभी तो उसमें भी कोताही कर जाता। पैसे कुछ बचने लगे थे।
हमारी बिल्डिंग की चिनाई पूरी हुई ओर पहला स्लैब पड़ गया। मन अपने स्वर्णिम भविष्य की पहली झलक देखकर झूम उठा। अब मैंने अपने ससुरालवालों पर भी रौब गांठना शुरू कर दिया, 'बंबई में जुहू पर फ्लैट ले रहा हूं! वे भी अपनी बेटी के भाग्य को सराह रहे थे।
छ: महीनों चार स्लैब पड़ गये। जब तब एंटॉपहिल से निकलता, कोलीवाड़ा और धारावी की गंदगी में से गुजरता, जुहू जा पहुंचता। बिल्डिंग की बढ़ती हुई ऊंचाई जैसे मेरा जीवन ही बन गयी थी।
फिर सीमेंट का अकाल पड़ गया। डोनेशनों के चक्कर शुरू हो गये। हमारी बिल्डिंग की ऊंचाई बढ़नी बंद हो गयी। काम रुक गया। हमारी बिल्डिंग का भविष्य, हम चालीस कर्मचारियों का भविष्य अधर मेें लटक गया। हम भागे-भागे काणे साहब के पास पहुंचे, कणे साहब, आप हमारे चीफ प्रोमोटर हैं, कुछ करिए, चार महीनों से काम बंद है!
""तुम घबराओं नहीं। बिल्डिंग तो उसका बाप भी पूरी करेगा। उसकी चाबी मेरे हाथ में है। काणे साहब अपनी मेज पर कपड़ा फेरते हुए बोले। उनकी मेज के कांच के नीचे दबे साई बाबा संभवत: हमारी मुश्किल समझ रहे थे।
ग्यारह महीने और बीत गये। छोटेलाल की खीसें फिर एक बार निपुर आयीं। बुझे मन से ग्यारह महीने का किराया एवं उसकी दलाली एक बार फिर उसके हवाले कर दी। रोहिणी का माथा थोड़ा ठनका, सुनिएजी, यह बिल्डर मकान बनायेगा भी क्या?
""घबराओ नहीं, सब ठीक हो जायेगा। मैं रोहिणी से अधिक स्वयं अपने-आपको विश्वस्त करते हुए बोला।
और फिर आया रामप्रकाश एंड कंपनी का यह पत्र। हमारी आशाओं की बिल्डिंग इस पत्र का एक झटका भी नहीं सह पायी। हमारे बिल्डर ने लिखा था कि 'गृह-निर्माण की वस्तुओं के मूल्यों में वृध्दि हो गयी है। प्रार्थना है कि सौ रुपया प्रति फुट के हिसाब से और जमा करवाएं, अन्यथा वह बिल्डिंग पूरी नहीं कर पायेगा।'
काणे साहब के घर पहुंचे तो वह साई बाबा के कीर्तन में जाने की तैयारी कर रहे थे। आंखो में ही उन्होंने हमारे आने का सबब जान लिया था।
""काणे साहब, हमारा पैसा इतने वर्ष रखकर, बिल्डर ने यह क्या पत्रा भेजा है?
""देखो भाई लोग, हम कर क्या सकते हैं?
""उसे कोर्ट मे घसीट सकते हैं। उसके विरुध्द समाचार-पत्रों में प्रचार कर सकते हैं। आप तो ऐसे बात कर रहे हैं, जैसे आपका पैसा तो वहां लगा ही नहीं है...हम उसे इतनी आसानी से नहीं छोड़ेंगे।
""कैसी बच्चों जैसी बातें करते हैं आप लोग! कोर्ट में जाने का मतलब है सालों तक मामला लटका रहेगा, फिर कोर्ट के जरिये तो आपको केवल व्हाइट पैसा ही मिलेगा। बाकी चालीस हजार कैश का क्या होगा?
""तो हम क्या करें?
""मेरी बात मानिए, झगड़े से कुछ नहीं बनेगा। बिल्डर के साथ लड़ाई लड़ना असान नहीं है। आप अपने पैसे वापस ले लीजिए। कहीं वो भी किसी लफड़े में न फंस जाये।
और मैं यह पैसा लेकर बैठा हूं छोटेलाल की प्रतीक्षा में। तीन वर्षों में यह पैसा कैसे-कैसे सपने दिखाता रहा। फ्लैटों के रेट इस बीच आसमान को छूने लगे हैं। रामप्रकाश एंड कंपनी ने हमारी बिल्डिंग तिगुने दामों पर बेच दी है। काणे साहब के घर एक नयी मोटरसाइकिल, फ्रिज, रंगीन टेलीविजन, म्यूजिक सिस्टम दिखायी देने लगे हैं और उनके पासपोर्ट पर अंकित है कि वह पिछले तीन सालों में दो बार न्यूयॉर्क का चक्कर लगा आये हैं।
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