मनहर ने अनुरक्त होकर कहा-यह सब तुम्हारी कुर्बानियों का फल है वागी। नहीं तो आज मैं किसी अन्धेरी गली में, किसी अंधेरे मकान के अन्दर अंधेरी जिन्दगी के दिन काट र्हा होता। तुम्हारी सेवा और उपकार हमेशा याद रहेंगे, तुमने मेरा जीवन सुधार दिया -मुझे आदमी बना दिया।
वागेश्वरी ने सिर झुकाये नम्रता से उत्तर दिया-यह तुम्हारी सज्जनता मानूं,मैं बेचारी भला तुम्हारी जिन्दगी क्या सुधारूंगी? हां, तुम्हारे साथ रहकर मैं भी एक दिन अदमी बन जाऊंगी। तुमने परिश्रम किया, उसका पुरस्कार पाया। जो अपनी मदद आप करते हैं उनकी मद परमात्मा भी करते हैं, अगर मुझ-जैसी गंवारन किसी और के पाले पङती, तो अब तक न जाने क्या गत बनी होती।
मनहर मानो इस बहस में अपना पक्ष-समर्थ करने के लिये कमर बांधता हुआ बोला-तुम जैसी गंवारन पर मैं एक लाख सजी हुयी गुङियों और रंगीन तितलियों को निछावर कर सकता हूं। तुमने मेहनत करने का वह अवसर और अवकाश दिया जिनके बिना कोई सफल हो ही नहीं सकता। अगर तुमने अपनी अन्य विलास प्रिय, रंगीन मिजाज बहनों की तरह मुझे अपने तकाजों से दबा रखा होता, तो मुझे उन्नति करने का अवरर कहां मिलता? तुमने मुझे निश्चिन्तता प्रदान की, जो स्कूल के दिनों में भी न मिली थी। अपने और सहकारियों को देखता हूं, तो मुझे उन पर दया आती है। किसी का खर्च पूरा नहीं पङता। आधा महीना भी नहीं जाने पाता और हांथ खाली हो जाता है। कोई दोस्तों से उधार मांगता है, कोई घरवालों को खत लिखता है। कोई गहनों की फिक्र में मरा जाता है कोई कपङों की। कभी नौकर की टोह में हैरान, कभी वैध की टोह में परेशान। किसी को शान्ति नहीं। आये दिन स्त्री-पुरुष मॆं जूते चलते हैं। अपना जैसा भाग्यवान तो मुझे कोई नहीं दीख पङता। मुझे घर के सारे आनन्द प्राप्त हैं और जिम्मेदारी एक भी नहीं। तुमने ही मेरे हौसलों को उभारा, मुझे उत्तेजना दी। जब कभी मेरा उत्साह टूटने लगता, तो तुम मुझे तसल्ली देती थीं। मुझे मालूम ही नहीं हुआ कि तुम घर का प्रबन्ध कैसे करती हो। तुमने मोटे से मोटा काम अपने हाथों से किया, जिससे मुझे पुस्तकों के लिये रुपयों की कमी न हो। तुम्ही मेरी देवी हो और तुम्हारी ही बदौलत आज मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है। मैं तुम्हारी इन सेवाओं की स्मृति को हृदय में सुरक्षित रखूंगा वागी, और एक दिन वह आयेगा, जब तुम अपने त्याग और तप का आनन्द उठाओगी।
वागेश्वरी ने गदगद होकर कहा-तुम्हारे ये शब्द मेरे लिये सबसे बङे पुरस्कार हैं, मानू! मैं और किसी पुरस्कार की भूखी नहीं! मैंने जो कुछ तुम्हारी थोङी बहुत सेवा की, उसका इतना यश मुझे मिलेगा, मुझे तो आशा भी न थी।
मनहरनाथ का हृदय इस समय उदार भावों से उमङा हुआ था। वह यों बहुत ही अल्पभाषी, कुछ रूखा आदमी था और शायद बागेश्वरी के मन में उसकी शुष्कता पर दःख भी हुआ हो; पर इस समय सफलता के नशे ने उसकी वाणी मॆं पर लगा दिये थे। बोला- जिस समय मेरे विवाह की बात चल रही थी, मैं बहुत शंकित था। समझ गया कि मुझे जो कुछ होना था हो गया। अब सारी उम्र देवी जी की नाजबरदारी में गुजरेगी। बङे-बङे अंग्रेज विद्वानों की पुस्तकें पढने से मुझे विवाह से घृणा हो गयी थी। मैं इसे उम्र कैद समझने लगा था, जो आत्मा और बुधि की उन्नति का मार्ग बन्द क्र देती है, जो मनुष्य को स्वार्थ का भक्त बना देती है, जो जीवन के क्षेत्र को संकीर्ण कर देती है। मगर दो ही चार मास के बाद मुझे अपनी भूल मालूम हुयी। मुझे मालूम हुआ कि सुभार्या स्वर्ग की सबसे बङी विभूति है, जो मनुष्य को उज्जवल और पूर्ण बना देती है, जो आत्मोन्नति का मूलमन्त्र है। मुझे मालूम हुआ कि विवाह का उद्देश्य भोग नहीं, आत्मा का विकास है।
वागेश्वरी मनहर की नम्रता सहन नहीं कर सकी। वह किसी बात के बहाने से उठकर चली गयी।
मनहर और वागेश्वरी का विवाह हुये तीन साल गुजरे थे। मनहर उस समय एक दफ्तर में क्लर्क था। सामान्य युवकों की भांति उसे भी जासूसी उपन्यासों से बहुत प्रेम था। धीरे-धीरे उसे जासूसी का शौक हुआ। इस विषय पर उसने बहुत सा साहित्य जमा किया और बङे मनोयोग से उसका अध्ययन किया। इसके बाद उसने इस विषय पर स्वयं एक किताब लिखी। रचना में उसने ऎसी विलक्षण विवेचन-शक्ति का परिचय दिया, उसकी शैली भी इतनी रोचक थी, कि जनता ने उसे हाथों-हाथ लिया। इस विषय पर वह सर्वोत्तम ग्रन्थ था।
देश में धूम मच गयी। यहां तक कि इटली और जर्मनी-जैसे देशों से उसके पास प्रशंसा-[अत्र आये और इस विषय की पत्रिकाओं में अच्छी-अच्छी आलोचनाएं निकली। अन्त में सरकार ने भी अपनी गुण्ग्राहकता का परिचय दिया-उसे इंग्लैण्ड जाकर इस कला का अभ्यास करने के लिये वृत्ति प्रदान की। और यह सब कुछ वागेश्वरी की भहोरणा का शूभ-फल था।
मनहर की इच्छा थी कि वागेश्वरी भी साथ चले, पर वागेश्वरी उनके पांव की बेङी नहीं बनना चाहती थी। उसने घर रहकर सास-ससुर की सेवा करना ही उचित समझा।
मनहर के लिये इंग्लैण्ड एक दूसरी दुनिया थी, जहां उन्नति के मुख्य साधनों में एक रूपवती पत्नी का होना भी जरूरी था। अगर पत्नी रूपवती है, चपल है, वाणी कुशल है, प्रगल्भ है, तो समझ लो उसके पति को सोने की खान मिल गयी। अब वह उन्नति के शिखर पर पहुंच सकता है। मलोयोग और तपस्या के बलबूते पर नहीं, पत्नी के प्रभाव और आकर्षण के तेज पर। उस संसार में रूप और लावण्य व्रत के बन्धनों से मुक्त, एक अबाध सम्मपत्ति थी। जिसने किसी रमणी को प्राप्त कर लिया, उसकी मानो तकदीर खुल गयी। यदि कोई सुन्दरी कोई सहधर्मिणी नहीं है, तो तुम्हारा सारा उध्योग, सारी कार्य पटुता निष्फल है, कोई तुम्हारा पुरसाहाल न होगा; अतएव वहां रूप को लोग व्यापारिक दृष्टि से देखते थे।
साल ही भर के अंग्रेजी समाज के संसर्ग ने मनहर की मनोवृत्तियों में क्रान्ति पैदा कर दी। उसके मिजाज ने सांसारिकता का इतना प्रधान्य हो गया कि कोमल भावों के लिये वहां कोई स्थान ही न रहा। वागेश्वरी उसके विध्याभ्यास में सहायक होती थी, पर उस अधिकार और पद की ऊचाइयों तक न पहुंचा सकती थी। उसके त्याग और सेवा का महत्व भी अब मनहर की निगाहों में कम होता जा रहा था। वागेश्वरी अब उसे एक व्यर्थ सी वस्तु मालूम होती थी, क्योंकि भौतिक दृष्टि से हर एक वस्तु का मूल्य उससे होने वाले साथ पर ही अवलम्बित था। अपना पूर्व जीवन अब उसे हास्यास्पद जान पङता था। चंचल, हंसमुख, विनोदिनी अंग्रेज युवतियों के सामने वागेश्वरी एक हल्की तुच्छ सी वस्तु जान पङती-इस विधुत प्रकाश में वह दीपक अब मलिन पङ गया था। यहां तक कि शनैः शनैः उसका वह मलिन प्रकाश भी अब लुप्त हो गया।
मनहर ने अपने भविष्य का निष्चय कर लिया। वह भी एक रमणी की रूप नौका द्वारा ही अपने लक्ष्य तक पहुंचेगा। इसके सिवा कोई और उपाय न था।
२
रात के नौ बजे थे। मनहर लंदन के एक फैशनेबल रेस्ट्रां में बना-ठना बैठा था। उसका रंग-रूप और ठाठ-बाट देखकर सहसा कोई नहीं कह सकता था कि वह अंग्रेज नहीं है। लंदन ने भी उसके सौभाग्य ने उसका साथ दिया था। उसने चोरी के कई गहरे मुआमलों का पता लगा लिया था, इसलिये उसे धन और यश दोनो ही मिल रहा था। वह अब यहां के भरतीय समाज का प्रमुख अंग बन गया था, जिसके आथित्य और सौजन्य की सभी सराहना करते थे। उसका लबो-लहजा भी अंग्रेजों से मिलता जुलता था। उसके सामने मेज के दूसरी ओर एक रमणी बैठी हुई उनकी बातें बङे ध्यान से सुन रही थी। उसके अंग-अंग से यौवन ट्पका पङता था। भारत के अदभुत वृत्तान्त सुनकर उसकी आंखे खुशी से चमक रही थीं। मनहर चिङिया के सामने दाने बिखेर रहा था।
मनहर-विचित्र देश है जेनी, अत्यन्त विचित्र।पांच-पांच साल के दूल्हे तुम्हे भारत के सिवा कहीं देखने को नहीं मिलेंगे। लाल रंग के चमकदार कपङे, सिर पर चमकता हुआ लम्बा टोप, चेहर पर फूलों का झालर्दार बुर्का, घोङे पर सवार चले जा रहे हैं। दो आदमी दोनों तरफ़ से छतरी लगाये हुए हैं। हांथो में मेंहदी लगी हुयी है।
जेनी- मेंहदी क्यों लगाते हैं?
मनहर- जिससे हांथ लाल हो जायें। पैरों मीं भी रंग भरा जाता है। उंगलियों के नाखून लाल रंग दिये जाते हैं। वह दृष्य देखते ही बनता है।
जेनी-यह तो दिल में सनसनी पैदा करने वाला दृष्य होगा। दुल्हन भी इसी तरह सजायी जाती होगी?
मनहर-इससे कई गुनी अधिक। सिर से पांव तक सोने चांदी के गहनों से लदी हुयी। ऎसा कोई अंग नहीं जिसमें दो-चार जेवर न हों।
जेनी-तुम्हारी शादी भी इसी तरह हुयी होगी। तुम्हे तो बङा आनन्द आया होगा?
मनहर-हां, वही आनन्द आया था जो तुम्हे मेरी-गोराउण्ड पर चढने में आता है। अच्छी-अच्छी चीजे खाने को मिलती हैं, अच्छे कपङे पहनने को मिलते हैं। खूब नाच तमाशे देखता था और शहनाइयों का गाना सुनता था। मजा तो तब आता है जब दुलहन अपने घर से बिदा होती है। सारे घर में कुहराम मच जाता है। दुलहन हर एक से लिपट-लिपट कर रोती है, जैसे मातम कर रही हो।
जेनी-दुलहन रोती क्यों है?
मनहर-रोने का रिवाज चला आता है। हालांकि सभी लोग जानते हैं कि वह हमेशा के लिये नही जा रही है, फिर भी सारा घर इस तरह फूट फूट कर रोता है, मानो वह काले पानी भेजी जा रही हो।
जेनी-मैं तो इस तमाशे पर खूब हंसू।
मनहर-हंसने की बात ही है।
जेनी-तुम्हारीबीवी भी रोयी होगी?
मनहर-अजी कुछ न पूंछो, पछाङे खा रही थी, मानो मैं उसका गला घॊंट दूंगा। मएरी पालकी से निकलकर भागी जाती थी, पर मैंने जोर से पकङ कर अपनी बगल में बैठा लिया। तब मुझे दांत काटने दौङी।
मिस जेनी ने जोर का कहकहा मारा और हंसी के साथ लोट गयीं। बोलीं-हारिबल! हारिबल! क्या अब भी दांत काटती है?
मनहर-वह अब इस संसार में नहीं रही जेनी! मैं उससे खूब काम लेता था। मैं सोता था तो वो बदन में चम्पी लगाती थी, मेरे सिर में तेल डालती थी, पंखा झलती थी।
जेनी-मुझे तो विश्वास नहीं आता। बिल्कुल मूर्ख थी!
मनहर-कुछ न पूंछॊ।दिन को किसी के सामने मुझसे बोलती भी न थी, मगर मैं उसका पीछा करता रहता था।
जेनी-ओ!नाटी ब्वाय! तुम बङे शरीफ हो। थी तो रूपवती?
मनहर-हां उसका मुंह तुम्हारे तलवों जैसा था।
जेनी-नान्सेन्स! तुम ऎसी औरत के पीछे कभी न दौङते।
मनहर-उस वक्त मैं भी मूर्ख था जेनी।
जेनी-ऎसी मूर्ख लङकी से तुमने विवाह क्यों किया?
मनहर-विवाह न करता तो मां बाप जहर खा लेते।
जेनी-वह तुम्हे प्यार कैसे करने लगी?
मनहर-और करती क्या? मेरे सिवा दूसरा था ही कौन? घर से बाहर न निकलने पाति थी, मगर प्यार हममें से किसी को न था। वह मेरी आत्मा को और हृदय को सन्तुष्ट न कर सकती थी ,जेनी! मुझे उन दिनों की याद आती है, तो ऎसा मालूम होता है कि कोई भयंकर स्वप्न था। उफ! अगर वह स्त्री आज जीवित होती, तो मैं किसी अंधेरे दफ्तर में बैठा कलम घिस रहा होता। इस देश में आकर मुझे यथार्त ज्ञान हुआ कि संसार में स्त्री का क्या स्थान है, उसका क्या दायित्व है और जीवन उसके कारण कितना आनन्दप्रद हो जाता है। और जिस दिन तुम्हारे दर्शन हुये, वह तो मेरी जिन्दगी का सबसे मुबारक दिन था। याद है तुम्हे वो दिन? तुम्हारी वह सूरत मेरी आंखोंं में अब भी फिर रही है।
जेनी-अब मैं चली जाऊंगी। तुम मेरी खुशामद करने लगे।
३
भारत के मजदूरदल-सचिव थे लार्ड बारबर, और उनके प्राइवेट सेक्रेट्ररी थे मि.कावर्ड। लार्ड बार्बर भारत के सच्चे मित्र समझे जाते थे। जब कंजर्वेटिव और लिबरल दलों का अधिकार था, तो लार्ड बारबर भारत की बङे जोरों से वकालत करते थे। वह उन मन्त्रियों पर ऎसे ऎसे कटाक्ष करते थे कि उन बेचारों को कोई जवाब न सूझता था। एक बार वे हिन्दुस्तान आये थे और यहां कांग्रेस में शरीक हुये थे। उस समय उनकी उदार वक्तृताओं ने समस्त देश में आशा और उत्साह की एक लहर दौङा दी थी। कांग्रेस के जलसे के बाद वह जिस शहर में गये, जनता ने उनके रास्ते में आंखे बिछायीं, उनकी गाङियां खींची, उन पर फ़ूल बरसाये। चारों ओर से यही आवाज आती थी-यह है भारत का उद्वार करने वाला। लोगों को विश्वास हो गया कि भारत के सौभाग्य से अगर कभी लार्ड बारबर को अधिकार प्राप्त हुआ, तो वह दिन भारत के इतिहास में मुबारक होगा।
लेकिन अधिकार पाते ही लार्ड बारबर में एक विचित्र परिवर्तन हो गया। उनके सारे स्वभाव, उनकी उदारता, न्यायपरायणत, सहातुभूति ये सभी अधिकार के भंवर में पङ गये। और अब लार्ड बारबर और उनके पूर्वाधिकार के व्यव्हार में लेशमात्र भी अन्तर न था। वह भी वही कर रहे थे जो उनके पहले के लोगों ने किया। वही दमन था, वही जातिगत अभिमान, वही कट्टरता, वही संकीर्णता। देवता अधिकार के सिंघासन पर पांव रखते ही अपना देवत्व खो बैठा था। अपने दो साल के अधिकार काल में उन्होने सैकङों ही अपसर नियुक्त किये थे; पर उनमें एक भी हिन्दुस्तानी न था। भारत्वासी निराश होकर उन्हें 'डाईहार्ड' 'धन का उपासक' और 'साम्राज्यवाद का पुजारी' कहने लगे थे। यह खुला हुआ रहस्य था कि जो कुछ करते थे मि. कावर्ड करते थे। हक यह था कि लार्ड बारबर नीयत के जितने शेर थे, जितने दिल के कमजोर। हालांकि परिणाम दोनों दिशाओम में एक सा था।
यह मि. कावर्ड एक ही महापुरुष थे। उनकी उम्र चालीस से अधिक गुजर चुकी थी; पर अभी तक उन्होंने विवाह नहीं किया था। शायद उनका ख्याल था कि राजनीति के क्षेत्र में रहकर वे विवाह का आनन्द नहीं उठा सकते। वास्तव में नवीनता के मधूप थे।
उन्हे नित्य नये विनोद और आकर्षण, नित्य नये विलास और उल्लास की टोह रहती थी। दूसरों के लगाये हुये बाग की सैर करके चित्त को प्रसन्न कर लेना इससे कहीं सरल था कि अपना बाग आप लगायें और उसकी रक्षा और सजवट में अपना सिर खपायें। उनको व्यापारिक और व्याव्हारिक दॄष्टि में यह लटका उससे कहीं आसान था।
दोपहर का समय था। मि. कावर्ड नाश्ता करके सिगार पी रहे थे कि मिस जेनी रोज के अने की खबर हुयी। उन्होने तुरन्त आईने के सामने खङे होकर अपनी सूरत देखी,बिखरे बालों को सवांरा, बहुमूल्य इत्र मला और मुख से स्वागत की सहास छवि दर्शाते हुये कमरे से निकलकर मिस रोज से हांथ मिलाया।
जेनी ने कदम रखते ही कहा-अब मैं समझ गयी कि क्यों कोई सुन्दरी तुम्हारी बात नहीं पूंछती। आप अपने वादों को पूरा करना नहीं जानते।
मि. कावर्ड ने जेनी के लिये कुर्सी खींचते हुये कहा-मुझे बहुत खेद है मिस रोज कि कल मैं अपना वादा न पूरा कर सका। प्राइवेट सेक्रेट्ररी का जीवन कुत्तों के जीवन से भी हेय है। बार बार चाहता था कि दफ्तर से उठूं; पर एक न एक काल ऎसा आ जाता था कि रुक जाना पङ जाता था! मैं तुमसे क्षमा मांगता हूं। बाल में तुम्हे खूब आनन्द आया होगा?
जेनी-मैं तुम्हे तलाश करती रही। जब तुम न मिले तो मेरा जी खट्टा हो गया। मैं और किसी के साथ नहीं नाची। अगर तुम्हे नहीं जाना था तो मुझे निमन्त्रण क्यों दिया था।
कावर्ड ने जेनी को सिगार भॆंट करते हुये कहा-तुम मुझे लज्जित कर रही हो,जेनी! मेरे लिये इससे ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती थी कि तुम्हारे साथ नाचता? एक पुराना बैचलर होने पर भी मैं उस सुख की कल्पना कर सकता हूं। बस यही समझ लो कि तङप-तङप कर रह जाता हूं।
जेनी ने कठोर मुस्कान के साथ कहा-तुम इसी योग्य हो कि बैचलर बने रहो। यही तुम्हारी सजा है।
कावर्ड ने अनुरक्त होकर उत्तर दिया-जेनी तुम बङी कठोर हो! तुम्ही क्या रमणियां सभी कठोर होती हैं। मैं कितनी ही पर्वशता दिखाऊं, तुम्हे विश्वास नहीं आयेगा। मुझे यह अरमान ही रह गया कि कोई सुन्दरी मेरे अनुराग और लगन का आदर करती।
जेनी- तुममें अनुराग हो भी तो? रमणियां ऎसे बहानेबाजों को मुंह नहीं लगाती।
कावर्ड-फ़िर बहानेबाज कहा। मजबूर क्यों नहीं कहती?
जेनी-मैं किसी को मजबुर नहीं मानती। मेरे लिये यह हर्ष और गौरव की बात नहीं हो सकती, कि आपको जब अपने सरकारी, अर्द्व सरकारी और गैर सरकारी कामोम से अवकाश मिले तो, आप मेरा मन रखने के लिये एक क्षण के लिये अपने कोमल चरणों को कष्ट दें। इसी कारण तुम अब तक झीक रहे हो।
कावर्ड ने गम्भीर भाव से कहा-तुम मेरे साथ अन्याय कर रही हो,जेनी! मरे अविवाहित रहने का क्या कारण है, यह कल तक मुझे खुद मालूम न था। कल आप ही आप मालूम हो गया।
जेनी ने उसका परिहास करते हुये कहा-अच्छा तो यह रहस्य आपको मालुम हो गया? तब तो आप सचमुच आत्मदर्शी हैं। जरा मैं भी तो सुनूं, क्या कारण था?
कावर्ड ने उत्साह के साथ कहा-अब तक कोई ऎसी सुन्दरी न मिली जो मुझे उन्मत्त कर सकती।
जेनी ने कठोर परिहास के साथ कहा-मेरा ख्याल था कि दुनिया में ऎसी औरत पैदा ही नहीं हुई, जो तुम्हे उन्मत्त कर सकती। तुम उन्मत्त बनाना चाहते हो, उन्मत्त बनना नहीं चाहते।
कावर्ड-तुम बङा अत्याचार करती हो जेनी!
जेनी-अपने उन्माद का प्रमाण देना चाहते हो?
कावर्ड-हृदय से जेनी! मैं उस अवसर की ताक में बैठा हूं।
उसी दिन शाम को जेनी ने मनहर से कहा-तुम्हारे सौभाग्य पर बधाई! तुम्हे वह जगह मिल गयी।
मनहर उछलकर बोला-सच! सेक्रेट्ररी से कोई बातचीत हुई थी?
जेनी-सेक्रेट्ररी से कुछ कहने की जरूरत ही नहीं पङी। सब कुछ कावर्ड के हांथो में है। मैंने उसी को चंग पर चढाया। लगा मुझे इश्क जताने। पचास साल की तो उम्र है, चांद के बाल झङ गये हैं, गालों पर झुर्रियां पङ गयी हैं, पर अभी तक आपको इश्क का ख्ब्त है। अप अपने को एक ही रसिया समझते हैं। उसके बूढे चोंचले बहुत ही बुरे मालूम होते थे; मगर तुम्हारे ल्ये सब कुछ सहना पङा। खैर मेहनत सफ़ल हो गयी है। कल तुम्हे परवाना मिल जायेगा। अब सफ़र की तय्यारी करनी चाहिये।
मनहर ने गदगद होकर कहा-तुमने मुझ पर बङा एहसान किया है,जेनी!
४
मनहर को गुप्तचर विभग में ऊंचा पद मिला। देश के राष्ट्रीय पत्रों ने उसकी तारी फ़ों के पुल बांधे, उसकी तस्वीर छापी और राष्ट्र की ओर से उसे बधाई दी। वह पहला भारटीय था, जिसे यह ऊंचा पद प्रदा किया गया था। ब्रिटिश सरकार ने सिद्व कर दिया था कि उसकी न्याय-बुधि जातीय अभिमान और द्वेश से उच्चतर है।
मनहर और जेनी का विवाह इंग्लैण्ड में ही हो गया। हनीमून का महीना फ़्रान्स में गुजरा। वहां से दोनो हिन्दुस्तान आये। मनहर का दफ़्तर बम्बई में था। वहीं दोनो एक होटल में रहने लगे। मनहर को गुप्त अभियोग की खोज के लिये अक्सर दौरे करने पङते थे। कभी कश्मीर, कभी मद्रास, कभी रंगून। जेनी इन यात्राओं में बराबर उसके साथ रहती। नित्य नये दृष्य थे, नये विनोद, नये उल्लास। उसकी नवीनता प्रिय प्रकृति के लिये आनन्द का इससे अच्छा और क्या सामान हो सकता था?
मनहर का रहन-सहन तो विदेशी था ही, घर वालों से भी उसका सम्बन्ध विच्छेद हो गया था। वागेश्वरी के पत्रों का उत्तर देना तो दूर रहा, वह उन्हे खोलकर पढता भी नहीं था। भारत में हमेशा उसे यह शंका बनी रहती थी कि कहीं घरवालों को उसका पता न चल जाये। जेनी से वह अपनी यथार्त स्थिति को छुपाये रखना चाहता था। उसने घरवालों को आने की सूचना तक न दी थी। यहां तक कि वह हिन्दुस्तानियों से बहुत कम मिलता था। उसके मित्र अधिकांश पुलिस और फ़ौज्के अफ़सर थे। वही उसके मेहमान होते। वाकचतुर जेनी सम्मोहनकला में सिद्वहस्त थी। पुरुषों के प्रेम से खेलना उसकी सबसे अमोदमय क्रीङा थी। जलाती थी, रिझाती थी, और मनहर भी उसकी कपट्लीला का शिकार बना रहता था। उसे वह हमेशा भूल-भुलैया मॆं रखती, कभी इतना निकट कि छाती पर सवार न कभी इतना दूर कि योजन का अन्तर-कभी निष्ठुर और कठोर, और कभी प्रेम-विह्वल और व्यग्र। एक रहस्य था, जिसे वह कभी समझता था और कभी हैरान रह जाता था।
इस तरह दो वर्ष बीत गये और मनहर और जेनी कोण की दो भुजाओं की भांति एक दूसरे से दूर होते गये। मनहर इस भावना को हृदय से न निकाल सकता था कि जेनी का मेरे प्रति एक विशेष कर्तव्य है। वह चाहें उसकी संकीर्णता हो या कुल मर्यादा का असर क इवह जेनी को पाबन्द देखना चाहता था। उसकी स्वच्छन्द वृत्ति उसे लज्जास्पद मालूम होती थी। वह भूल जाता था कि जेनी से उसके सम्पर्क का आरम्भ ही स्वार्थ पर अवलम्बित था। शायद उसने समझा था कि समय के साथ जेनी को अपने कर्तव्यों का ज्ञान हो जायेगा; हालांकि उसे मालूम होना चाहिये था कि टेढी बुनियाद पर बना हुआ भवन जल्द या देर से भूमिस्थ होकर ही रहेगा। और ऊंचाई के साथ उसकी शंका और भी बढती जाती थी। इसके विपरीत जेनी का व्यवहार परिस्थिति के बिल्कुल अनुकूल था। उसने मनहर को विनोदमय तथा विलासमय जीवन का एक साधन समझा था और उसी विचार पर वह अब तक स्थित थी। इस व्यक्ति को वह मन में पति का स्थान नहीम दे सकती थी, पाषाण प्रतिमा को वह अपना देवता न बना सकती थी। पत्नी बनना उसके जीवन का स्वप्न न था, इसलिये वह मनहर के प्रति अपने किसी कर्तव्य को स्वीकार नहीम करती थी। अगर मनहर अपनी गाढी कमाई उसके चरणों पर अर्पित करता था तो कोई अहसान न करता था। मनहर उसका बनाया हुआ पुतला, उसी का लगाया हुआ वृक्ष था। उसकी छाया और उसके फ़ल का भोग करना वह अपना अधिकार समझती थी।
५
मनोमालिन्य बढता गया। आखिर मनहर ने उसके साथ दावतों और जलसों पर जाना छोङ दिया; पर जेनी पूर्ववत सैर करने जाती, मित्रों से मिलती, दावते करती, और दावतों में शरीक होती। मनहर के साथ न जाने से उसे लेश्मात्र भी दुःख या निराशा नहीं होती थी; बल्कि वह शायद उसकी उदासीनता पर और प्रसन्न होती थी। मनहर इस मानसिक व्यथा को शराब के नशे में डुबोने का उध्योग करता। पीना तो उसने इंग्लैण्ड में ही शुरु कर दिया था, पर अब उसकी मात्रा बहुत बढ गयी थी। वहां स्फ़ूर्ति और आनन्द के लिये पीता था, यहां स्फ़ूर्ति और आनन्द को मिटाने के लिये। वह दिन-दिन दुर्बल होता जाता था। वह जानता था कि शराब मुझे पिये जा रही है, पर उसके जीवन कयही एक अवलम्ब रह गया था।
गर्मियों के दिन थे। मनहर एक मुआमले की जांच करने के लिये लखनऊ मॆं डेरा डाले हुये था। मुआमला बहुत संगीन था। उसे सेर उठाने की फ़ुरसत न मिलती थी। स्वास्थ्य भी बहुत खराब हो चला था, पर जेनी अपने सैर-सपाटे मॆम मग्न थी। आखिर उसने एक दिन कहा; मैं नैनीताल जा रही हूं। यहां की गर्मी मुझसे सही नहीं जाती।
मनहर ने लाल-लाल आंखे निकालकर कहा-नैनीताल में क्या काम है?
वह आज अपना अधिकार दिखाने पर तुल गया। जेनी भी उसके अधिकार की उपेक्षा करने पर तुली हुई थी। बोली- यहां कोई सोसायटी नही। सारा लखनऊ पहाङों पर चला गया है।
मनह्र ने जैसे म्यान से तलवार निकाल कर कहा-जब तक मैं य्हां हूं,तुम्हें कही जाने का अधिकार नहीं है। तुम्हारी शादी मेरे साथ हुयी है, सोसायटी के साथ नहीं। फ़िर तुम साफ़ देख रही हो मैं बीमार हूं, तिस पर भी तुम अपनी विलास प्रवत्ति को रोक नहीं सकतीं। मुझे तुमसे ऎसी आशा नहीं थी,जेनी! मैं तुमको शरीफ़ समझता था। मुझे स्वप्न मॆं भी गुमान न था कि तुम मेरे साथ ऎसी बेवफ़ाई करोगी।
जेनी ने अविचलित भाव से कहा-तो क्या तुम समझते थे, मैं भी तुम्हारी हिन्दुस्तानी स्त्री की तरह तुम्हारी लौण्डी बनकर रहूंगी और तुम्हारे तलवे सहलाऊंगी? मैं तुम्हे इतना नदान नहीं समझती। अगर तुम्हे हमारी अंग्रेज सभ्यता की इतनी सी बात नही मालूम, तो अब मालूम कर लो कि अंग्रेज स्त्री अपनी रुचि के सिवा और किसी की पाबन्द नहीं। तुमने मुझसे विवाह इसलिये किया था कि मेरी सहायता से तुम्हे सम्मान और पद प्राप्त हो। सभी पुरुष ऎसा करते हैं और तुमने भी वैसा ही किया। मैं इसके लिये तुम्हे बुरा नहीं कहती लिकिन जब तुम्हारा वह उद्देश्य पूरा हो गया, जिसके लिये तुमने मुझसे विवाह किया था, तो तुम मुझसे अधिक आशा कुओं रखते हो? तुम हिन्दुस्तानी हो अंग्रेज नहीं हो सकते। मैं अंग्रेज हूं हिन्दुस्तानी नहीं हो सकती; एसलिये हममें में से किसी को अधिकार नहीं है कि वह दूसरों को अपनी मर्जीका गुलाम बनाने की चेष्टा करे।
मनहर हतबुद्वि सा बैठा सुनता रहा। एक एक शब्द विष की घूंट की भांति उसके कंठ के नीचे उतर रहा था। कितना कठोर सत्य था! पद लालसा के इस प्रचण्ड आवेग में, विलास तृष्णा के उस अदम्य प्रवाह में वह भूल गया था कि जीवन में कोई ऎसा तत्व भी है, जिसके सामने पद और विलास कांच के खिलौनो से अधिक मूल्य नहीं रखते। वह विस्मृत सत्य इस समय अपने दारुण विलाप से उसकी मद्मग्न चेतना को तङपाने लगा।
शाम को जेनी नैनीताल चली गयी। मनहर ने उसकी ओर आंखे उठा कर भी नहीं देखा।
६
तीन दिन तक मनहर घर से न निकला। जीवन के पांच छः वर्षों मॆं उसने जितने रत्न संचित किये थे, जिन पर वह गर्व करता था; जिन्हे पाकर वह अपने को धन्य समझता था, अब परीक्षा की कसौटी पर जाकर नकली सिद्व हो रहे थे। उसकी अपमानित, ग्लानित, पराजित आत्मा एकांत रोदन के सिवा और कोई त्राण न पाती थी। अपनी टूटी झोपङी को छोङकर वह जिस जिस सुनहले कलश वाले भवन की ओर लपका था, वह मरीचिका मात्र थी और उसे अब फ़िर अपनी टूटी झोपङी याद आई, जहां उसने शांतिम प्रेम और आशीर्वाद की सुधा पी थी। यह सारा आडम्बर उसे काट खाने लगा। उस सरल, शीतल स्नेह केसामने ये सारी विभूतियां उसे तुच्छ सी जंचने लगीं। तीसरे दिन वह भीषण संकल्प करके उठा और दो पत्र लिखे। एक तो अपने पद से इस्तीफाथा, और दूसरा जेनी से अंतिम विदा की सूचना। इस्तीफे मॆं उसने लिखा- मेरा स्वास्थ्य नष्ट हो गया है और मैं इस भार को नहीं सम्भाल सकता। जेनी के पत्र में उसने लिखा-हम और तुम दोनो ने भूल की है और हमें जल्द से जल्द उस भूल को सुधार लेना चाहिये। मैं तुम्हे सारे बन्धनों से मुक्त करता हूं। तुम भी मुझे मुक्त कर दो। मेरा तुमसे कोई सम्बन्ध नहीं है। अपराध न तुम्हारा है, न मेरा। समझ का फेर तुम्हे भी था और मुझे भी । मैंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है और अब तुम्हारा मुझ पर कोई अहसान नहीं रहा। मेरे पास जो कुछ है, वह तुम्हारा है, वह सब मैं छोङे जाता हूं। मैं तो निमित्त-मात्र था स्वामिनी तुम थी। उस सभ्यता को दूर से ही सलाम है, जो विनोद और विलास के सामने किसी बन्धन को स्वीकार नहीम करती।
उसने खुद जाकर दोनों की रजिस्ट्री करायी और उत्तर का इंतजार किये बिना ही वहां से चलने को तैयार हो गया।
७
जेनी ने जब मनहर का पत्र पाकर पढा तो मुस्कुराई। उसे मनहर की इच्छा पर शासन करने का ऎसा अभ्यास पङ गया था कि पत्र से उसे जरा भी घबराहट नहीं हुयी। उसे विश्वास था कि दो चार दिन चिकनी-चुपङी बातें करके वह उसे फिर वशीभूत कर लेगी। अगर मनहर की इच्छा केवल धमकी देनी न होती, उसके दिल पर चोट लगी होती तो वह अब तक यहां न होता। कब का यह स्थान छोङ चुका होता। उसका यहां रहना ही बता रहा है कि वह केवल बन्दर घूङकी दे रहा है।
जेनी ने स्थिर चित्त होकर कपङे बदले और तब इस तरह मनहर के कमरे में आई, मानो कोई अभिनय करने स्टेज पर आई हो।
मनहर उसे देखते ही ठट्ठा मार कर हंसा। जेनी सहम कर पीछे हट गयी। इस हंसी में क्रोध का प्रतिकार न था। उसमें उन्माद भरा हुआ था। मनहर के सामने मेज पर बोतल और गिलास रखा हुआ था। एक दिन में उसने न जाने कितनी शराब पी ली थी। उसकी आंखो से जैसे रक्त उबला पङता था।
जेनी ने समीप आकर उसके कन्धे पर हांथ रखा और बोली-क्या रात भर पीते ही रहोगे? चलो आराम से लेटो, रात ज्यादा हो गयी है। घण्टॊ से बैठी तुम्हारा इंतजार कर रही हूं। तुम इतने निष्ठुर तो कभी नहीं थे।
मनहर खोया हुआ सा बोला-तुम कब आ गयीं वागी? देखो मैं कब से तुम्हे पुकार रहा हूं। चलो आज सैर कर आयें। उसी नदी के किनारे ,तुम वही अपना प्यारा गी सुनाना, जिसे सुनकर मैं पागल हो जाता था। क्या कहती हो, मैं बेमुरव्वत हूं? यह तुम्हारा अन्याय है वागी! मैं कसम खाकर कहता हूं, ऎसा एक दिन भी नहीं गुजरा जब तुम्हारी याद ने मुझे न रुलाया हो।
जेनी ने उसका कन्धा हिलाकर कहा-तुम यह क्या ऊल-जलूल बक रहे हो? वागी यहां कहां है?
मनहर ने उसकी ओर देखकर अपर्चित भाव से कुछ कहा, फिर जोर से हंसकर बोला- मैं यह न मानूंगा वागी! तुम्हे मेरे साथ चलना होगा। वहां मैं तुम्हारे लिये एक फूलों की एक माला बनाऊंगा।
जेनी ने समझ यह शराब बहुत पी गये हैं। बकझक कर रहे हैं। इनसे इस वक्त कुछ भी बात करना व्यर्थ है। चुपके से कमरे के बाहर चली गयी। उसे जरा सी शंका हुई थी। यहां उसका मूलोच्छेद हो गया। जिस आदमी का वाणी पर अधिकार नही, वह इच्छा पर क्या अधिकार रख सकता है?
उसघङी से मनहर को घरवालो की रट लग गयी। कभी वागेश्वरी को पुकारता, कभी अम्मां को ,कभी दादाको। उसकी आत्मा अतीत में विचरती रहती, उसातीत मॆं जब जेनी ने काली छाया की भांति प्रवेश नहीं किया था और वाग्र्श्वरी अपने सरल्व्रत से उसके जीवन में प्रकाश फैलाती थी।
दूसरे दिन जेनी ने उसे जाकर कहा-तुम इतनी शराब क्यों पीते हो? देखते नहीं तुम्हारी क्या दशा हो रही है?
मनहर ने उसकी ओर आश्चर्य से देखा-तुम कौन हो?
जेनी-तुम मुझे नहीं पहचानतेहो? इतनी जल्द भूल गये।
मनहर- मैंने तुम्हे कभी नहीं देखा। मैं तुम्हे नहीं पहचानता।
जेनी ने और अधिक बातचीत नहीं की। उसने मनहर के कमरे से शराब की बोतलें उठवा दीं और नौकरों को ताकीद कर दी कि उसे एक घूंट भी शराब की न दी जाय। उसे अब कुछ सन्देह होने लगा था। क्योंकि मनहर की दशा उससे कहीं शंकाजनक थी जितना वह सम्झती थी। मनहर का जीवित और स्वस्थ रहना उसके लिये आवश्यक था।इसी घोङे पर बैठकर वह शिकार खेलती थी। घोङे के बगैर शिकार का आनन्द कहां?
मगर एक सप्ताह हो जाने पर भी मनहर की दशा में की अंतर न हुआ। न मित्रों को पहचान्ता, न नौकरों को। पिछ्ले तीन वर्षों का जीवन एक स्वप्न की भांति मिट गया था।
सातवें दिन जेनी सिविल सर्जन को लेकर आयी तो मनहर का कहीं पता नहीं था।
८
पांच साल के बाद वागेश्वरी का लुट हुआ सुहाग फ़िर चेता। मां-बाप पुत्र के वियोग में रो-रोकर अन्धे हो चुके थे। वागेश्वरी निराशा में भी आस बांधे बैठी हुयी थी। उसका मायका सम्पन्न था। बार-बार बुलावे आते, बाप आया, भाई आया, पर धैर्य और व्रत की देवी घर से न टली।
जब मनहर भारत आया, तो वागेश्वरी ने सुना कि वह विलायत से एक मेम लाया है। फिर भि उसे आशा थी कि वह आयेगा, लेकिन उसकी आशा पूरी न हुयी। फिर उसने सुना वह ईसाई हो गया है। आचार-विचार त्याग दिया है। तब उसने माथा ठोंक लिया।
घर की व्यवस्था दिन दिन बिगङने लगी। वर्षा बन्द हो गयी और सागर सूखने लगा। घर बिका, कुछ जमीन थी वह बिकी, फिर गहनों की बारी आई। यहं तक कि अब केवल आकाशी वृत्तिथी। कभी चूल्हा जल गया, कभी ठंडा पङा रहा।
एक दिन संध्या समय वह कुऎ पर पानी भरने गयी थी के एक थका हुआ, जीर्ण, विपत्ति का मारा जैसा आदमी आकर कुऎ की जगत पर आकर बैठ गया। वागेश्वरी ने देखा तो मनहर! उसने तुरन्त घूंघट काढ लिया। आंखों पर विश्वास नहीं हुआ, फिर भी आनन्द और विस्मय की हृदय में फ़ुरेरियां उङने लगीं। रस्सी और कलसा कुऎ पर छोङकर लपकी हुयि घर आयी और सास से बोली-अम्मांजी, जरा कुऎ पर जाकर देखो कौन आया है। सास न कहा-तू पानी भरने गयी थी, या तमाशा देखने? घर में एक बूंद पानी की नहीम है। कौन आया है कुऎ पर?
'चलकर देख लो न'
कोई सिपाही प्यादा होगा। अब उनके सिवा कौन अने वाला है। कोई महाजन तो नहीं है?
'नही अम्मां तुम चली क्यों नहीं चलती?'
बूढी माता भांति-भांति की शंकाये करती हुयी कुऎ पर पहुंची, तो मनहर दौङकर उनके पैरों में लिपट गया। माता ने उसे छाती से लगाकर कहा-तुम्हारी यह दशा है, मानू? क्या बीमार हो? असबाब कहां है?
मनहर ने कहा-पहले कुछ खाने को दो अम्मा! बहुत भूखा हूं। मैं बङी देर से पैदल चला आ रहा हूं।
गांव मॆं खबर फैल गयी कि मनहर आया है। लोग उसे देखने दौङ पङे। किस ठाट से आया है? ऊंचे पद पर है। हजारों रुपये पाता है। अब उसके ठाट का क्या पूंछना! मेम भी साथ आयी है या नहीं?
मगर जब आकर देखा, तो आफत का मारा आदमी, फटेहाल, कपङे तार-तार, बाल बढे हुये, जैसे जेल से आया हो।
प्रश्नों की बौछार होने लगी-हमने तो सुना था तुम किसी ऊंचे पद पर हो।
मनहर ने जैसे किसी भूली बात को याद करने का विफल प्रयास किया-मैं! मैं तो किसी ओहदे पर नहीं।
'वाह! विलायत से मेम नहीं लाये थे?'
मनहर ने चकित होकर कहा-विलायत! कौन विलायत गया था?
'अरे भंग तो नहीं ख आये हो। विलायत नहीं गये थे?
मनहर मूढों की भांति हंसा-मैं विलायत क्या करने जाता?
'अजी तुमको वजीफा मिला नहीं था? यहां से तुम विलायत गये थे। तुम्हारे पत्र बराबर आते थे। अब कहते हो मैं विलायत गया ही नहीं। होश में हो, या हम लोगों को उल्लू बना रहे हो?'
मनहर ने उन लोगों की तरफ़ आंखे फाङ कर देखा और बोला-मैं तो कहीं नहीं गया था। आप लोग न जाने क्या कह रहे हैं।
अब इसमें सन्देह की गुन्जाइश न रही कि वह अपने होशोहवास में नहीं है। उसे विलायत जाने के पहले की सारी बातें याद थीं।गांव और घर के एक-एक आदमी को पहचानता था; लेकिन जब इंग्लैण्ड , अंग्रेज बीवी और ऊंचे पद का जिक्र आता तो भौचक्का होकर ताकने लगता। वागेश्वरी को अब उसके प्रेम में एक अस्वाभाविक अनुराग दीखता, जो उसे बनावटी मालूम होता था। वह चाहती थई कि उसके व्यवहार और आचरण में पहले जैसी बेतकल्लुफी हो। वह प्रेम का स्वांग नहीं, प्रेम चाहती थी। दस ही पांच दिनों में उसे ज्ञात हो गया कि इस विशेष अनुराग का कारण बनावट या दिखावा नहीं है, वरन कोई मानसिक विकार है। मनहर ने मां बाप का इतना अदब पहले कभी नहीं किया था। उसे अब मोटे से मोटा काम करने में कोई संकोच नहीं था। वह, जो बाजार से साग-सब्जी लाने में अपना अनादर समझता था, अब कुऎ से पानी खींचता, लकङ्यां फाङता और घर में झाङू लगाता थाऔर अपने घर में ही नहीं, सारे मुहल्ले में उसकी सेवा और नम्रता की चर्चा होती थी।
एक बार मुहल्ले में चोरी हो गयी। पुलिस ने बहुत दौङ-धूप की; पर चोरों का पता न चला। मनहर ने चोरी का पता ही नहीं लगा दिया, वरन माल भी बरामद करा दिया। इससे आस-पास के गांवो और मुहल्लों में उसका यश फैल गया। कोई चोरी होती तो लोग उसके पास दौङे आते और अधिकांश उध्योग उसके सफल भी होते। इस तरह उसकी जीविका की एक व्यवस्था हो गयी। वह अब वगेश्वरी के इशारों का गुलाम था। उसी की दिल्जोई और सेवा में उसके दिन कटते। अगर उसमें विकार या बीमारी का कोई लक्षण था तो ,तो वह इतना ही। यही सनक उसे सवार हो गयी थी।
वागेश्वरी को उसकी दशा पर दुःख होता; पर उसकी यह बीमारी उस स्वास्थय से उसे कहीम प्रिय थी, जब वह उसकी बात भी न पूंछता था।
९
छः महीनों के बाद एक दिन जेनी मनहर का पता लगाती हुयी आ पहुंची। हांथ में जो कुछ था, वह सब उङा चुकने के बाद अब उसे किसी आश्रय की खोज थी। उसके चाहने वालों में कोई ऎसा न था, जो उसकी आर्थिक सहायता करता। शायद अब जेनी को कुछ ग्लानि भी होती थी। वह अपने किये पर लज्जित थी।
द्वार पर हार्न की आवाज सुनकर मनहर बाहर निकला और इस प्रकार जेनी को देखने लगा मानो कभी देखा ही नहीं हो।
जेनी ने मोटर से उतरकर उससे हांथ मिलाया और अपनी आप-बिती सुनाने लगी-तुम इस तरह छिपकर मुझसे क्यों चले आये? और फिर आकर एक पत्र भी नहीं लिखा। आक्खिर मैंने तुम्हारे साथ क्या बुराई की थी। फिर मुझमें कोई बुराई देखी थी, तो तुम्हे था कि मुझे सावधान कर देते। छिपकर चले आने का क्या फायदा हुआ। ऎसी अच्छी जगह मिल गयी थी वोभी हांथ से निकल गयी।
मनहर काठ के उल्लू की भांति खङा रहा।
जेनी ने फिर कहा-तुम्हारे चले आने के बाद मेरे ऊपर जो संकट आये, वह सुनाऊं तो तुम घबरा जओगे। मैं इसी चिन्ता और दुःख से बीमार हो गयी। तुम्हारे बगैर मेरा जीवन निरर्थक हो गया। तुम्हारा चित्र देखकर मन को ढांढस देती थी। तुम्हारे पत्रों को आदि से अन्त तक पढना मेरे लिये सबसे मनोरंजक विषय था। तुम मेरे साथ चलो मैंने एक डाक्टर से बात की है, वह मस्तिष्क के विकारों का डाक्टर है।मुझ आशा है उसके उपचार से तुम्हे लाभ होगा।
मनहर चुपचाप विरक्त बव से खङा रहा, मानो न वह कूछ देख रहा है, न सुन रहा है।
सहसा वगेश्वरी निकल आयी। जेनी को देखते ही वह ताङ गयी कि यही मेरी यूरोपियन सौत है। वह उसे बङे आदर-सत्कार के साथ भीतर ले आयी। मनहर भी उनके पीछे-पीछे चला आया।
जेनी ने टूटी खाट पर बैठत हुये कहा। इन्होने मेरा जिक्र तो कियाही होगा। मेरी इनसे लंदन में शादी हुयी है।
वागेश्वरी बोली-यह तो मैं आपको देखते ही समझ गयी थी।
जेनी-इन्होने कभी मेरा जिक्र नहीं किया?
वागेश्वरी-कभी नहीं। इन्हें तो कुछ याद नहीं। आपको यहां आने में बङा कष्ट हुआ होगा?
जेनी-महीनों के बाद तब इनके घर का पता चला। वहां से बिना कुछ कहे सुने चल दिये।
'आपको कुछ मालूम है, इन्हे क्या शिकायत है?'
'शराब बहुत पीने लगे थे। आपने किसी डाक्टर को नहीं दिखाया?'
हमने तो किसी को नहीं दिखया।'
जेनी ने तिरस्कार से कहा-क्यों? क्या आप उन्हे हमेशा बीमार रखना चाहती हैं?
वागेश्वरी ने बेपरवाही से कहा-मेरे लिये तो इनका बीमार रहना इनके स्वस्थ रहने से कहीं अच्छा है। तब वह अपनी आत्मा को भुले हुए थे अब उसे पा गये।
फिर उसने निर्दय कटाक्ष करके कहा-मेरे विचार में तो वह तब बीमार थे, अब उसे पा गये।
जेनी ने चिढकर कहा-नान्सेंस! इनकी किसी विशेषज्ञ से चिकित्सा करानी होगी। यह जासूसू में बङे कुशल हैं। इनके सभी अफ़सर इनसे प्रसन्न थे। वह चाहें तो अब भी वह जगह उन्हें मिल सकती है। अपने विभाग मॆं ऊंचे से ऊंचेपद तक पहुंच सकते हैं। मुझे विश्वास है कि इनका रोग असाध्य नहीं है; हां, विचित्र अवश्य है। आप क्या इनकी बहन हैं?
वागेश्वरी ने मुस्कुराकर कहा-आप तो गाली दे रहीं हैं। यह मेरे स्वामी हैं।
जेनी पर मानो वज्रपात हुआ। उसके मुख पर से नम्रता का आवरण हट गया और मन में छुपा हुआ क्रोध जैसे दांत पीसने लगा।
उसकी गर्दन की नसें तन गयीं, दोनों मुट्ठियां बंध गयीं। उन्मत्त होकर बोली-बङा दगाबाज आदमी है। इसने मुझसे बङा धोका किया। मुझसे इसने कहा कि मेरी स्त्री मर गयी है। कितना बङा धूर्त है! यह पागल नहीं है। इसने पागलपन का स्वांग भरा है। मैं अदालत से इसकी सजा कराऊंगी।
क्रोधावेश के कारण वह कांप उठी। फिर रोते हुये बोली-इस दगाबाजी का मैं इसे मजा चखाऊंगी। ओह! इसने मेरा कितना घोर अपमान किया है। ऎसा विश्वास घात करने वाले को जओ दण्ड दिया जाय वह थोङा है। इसने कैसी मीठी-मीठी बातें करके मुझे फ़ांसा। मैने ही इसे जगह दिलायी, मेरे ही प्रयत्नों से यह बङा आदमी बना। इसके लिये मैने अपना घर छोङा, अपना देश छोङा और इसने मेरे साथ ऎसा कपट किया।
जेनी सिर पर हांथ रखकर बैठ गयी। फिर तैश में उठी और मनहर के पास जाकर उसको अपनी ओर खींचती हुयी बोली-मैं तुम्हे खराब करके छोङूंगी। तूने मुझे समझा क्या है_
मनहर इस तरह शान्त भाव से खङा र्हा, मानो उससे उसे कोई प्रयोजन ही नहीं है।
फिर वह सिंहनी की भांति मनहर पर टूट पङी और उसे जमीन पर गिराकर उसकी छाती पर चढ बैठी। वागेश्वरी ने उसका हांथ पकङकर अलग कर दिया।और बोली-तुम ऎसी डायन न होती, तो उनकी यह दशा क्यों होती?
जेनी ने तैश में आकर जेब से पिस्तौल निकाली और वागेश्वरी की तरफ़ बढी। सहसा मनहर तङपकर उठा, उसके हांथ से भरा हुआ पिस्तौल छीनकर फ़ेंक दिया और वागेश्वरी के सामने खङा हो गया। फिर ऎसा मुंह बना लिया मानो कुछ हुआ ही नही हो।
उसी वक्त मनहर की माताजी दोपहरी की नींद सोकर उठीं और जेनी को देखकर वागेश्वरी की ओर प्रश्न भरी आंखो से ताका।
वागेश्वरी ने उपहास भाव से कहा-यह आपकी बहू है।
बुढिया ठिनककर बोली-कैसी मेरी बहू? यह मेरी बहू बनने जोग है बंदरिया?
लङके पर न जाने क्या कर करा दिया, अब छाती पर मूंग दलने आयी है?
जेनी एक क्षण तक मनहर को खून भरी आंखो से देखती रही। फिर बिजली की भांति कौधकर उसने आंगन में पङा पिस्तौल उठा लिया और वागेश्वरी पर छोङना ही चाहती थी कि मनहर सामने आ गया। वह बेधङक जेनी के सामने चला गया। उसके हांथ से पिस्तौल छीन लिया और अपनी छाती में गोली मार ली।
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