१/आदमी को कितनी ज़मीन चाहिए?
रूस में एक बहुत बड़े लेखक हुए हैं, इतने बड़े कि सारी दुनिया उन्हें जानती है। उनका नाम था लियो टॉल्स्टॉय, पर हमारे देश में उन्हें महर्षि टॉल्स्टॉय कहते है। उन्होंने बहुत-सी किताबें लिखी है। इन किताबों में बड़ी अच्छी-अच्छी बातें है। उनकी कहानियों का तो कहना ही क्या! एक-से एक बढ़िया है। उन्हें पढ़ते-पढ़ते जी नहीं भरता।
इन्हीं टॉल्स्टॉय की एक कहानी है-‘आदमी को कितनी जमीन चाहिए.?’ इस कहानी में उन्होंने यह नहीं बताया कि हर आदमी को अपनी गुज़र-बसर कें लिए किनती ज़मीन की जरूरत है। उन्होनें तो दूसरी ही बात कहीं है। वह कहते हैं कि आदमी ज्यादा-से-ज्यादा जमीन पाने के लिए कोशिश करता है, उसके लिए हैरान होता है, भाग-दौड़ करता है, पर आखिर में कितनी जमीन उसके काम आती है? कुल छ:फुट, जिसमें वह हमेशा के लिए सो जाता है।
यों कहने को यह कहानी है, पर इसमें दो बातें बड़े पते की कही गयी है। पहली यह कि आदमी की इच्छाऍं, कभी पूरी नही होतीं। जैसे-जैसे आदमी उनका गुलाम बनता जाता है, वे और बढ़ती जाती हैं। दूसरे, आदमी आपाधापी करता है, भटकता है, पर अन्त में उसके साथ कुछ भी नहीं जाता।
आपको शायद मालूम न हो, यह कहानी गांधीजी को इतनी पसन्द आयी थी कि उन्होनें इसका गुजराती में अनुवाद किया। हजारों कापियॉँ छपीं और लोगों के हाथों में पहुँचीं। धरती के लालच में भागते-भागते जब आदमी मरता है तो कहानी पढ़ने वालों की ऑंखे गीली हो आती है। उनका दिल कह उठता है-‘ऐसा धन किस काम का!’
अपनी इस काहानी में टॉल्सटॉय ने जो बात कही है, ठीक वहीं बात हमारे साधु-सन्त, और त्यागी-महात्मा सदा से कहते आये है। उन्होने कहा है कि यह दुनिया एक माया-जाल है। जो इसमें फँसा कि फिर निकल नहीं पाता। लक्ष्मी यानी धन-दौलत को उन्होंने चंचला माना है। वे कहते हैं, “पैसा किसी के पास नहीं टिकता। जो आज राजा है, वही कल को भिखारी बन जाता है।”
आदमी इस दुनिया में खाली हाथ आता है, खाली हाथ जाता है। किसी ने कहा है न:
आया था यहॉँ सिकन्दर, दुनिया से ले गया क्या?
थे दोनों हाथ खाली, बाहर कफ़न से निकले।
संत कबीर ने यही बात दूसरे ढ़ंग से कही है:
कबीर सो धन संचिये, जो आगे कूँ होइ।
सीस चढ़ाये पोटली, जात न देखा कोई।।
उर्दू के मशहूर कवि नजीर ने जो कहा है,
वह तो बच्चे-बच्चे की जवान पर है:
सब ठाठ पड़ा रह जायेगा,
जब लाद चलेगा बंजारा।
एक मुसलमान सन्त ने तो यहॉँ तक कहा है, “ए इंसान, दौलत की ख्वाहिश न कर। सोने में गम का सामान है, उसकी मौजूदगी में मुहुब्बत खुदगर्ज और ठंडी हो जाती है। घमंड ओर दिखावे का बुखार चढ़ जाता है।”
आप कहंगे, “वाह जी वाह, आपने तो इतनी बातें कह डालीं। पर मैं पूछता हूँ कि बिना धन के किसका काम चलता है? साधु-सन्तों की बात छोड़ दीजिए, लेकिन जिसके घर-बार है, उसे खाने को अन्न चाहिए, पहनने को कपड़े और रहने को मकान चाहिए। और, आप क्या जानते नहीं, जिसके पास पैसा है, उसी को लोग इज्जत करते हैं, गरीब को कोई नहीं पूछता।”
“आपकी बात में सचाई है, पर एक बात बताइए—“आप रोटी खाते हैं?”
“जी हॉँ। सभी खाते हैं।”
“किसलिए?”
“पेट भरने के लिए।”
“जानवर खाते हैं?”
“जी हॉँ।”
“किसलिए?”
“पेट भरने के लिए?”
“ठीक। अब मुझे यह बताइए कि जब आदमी और जानवर दोनों पेट भरने के लिए खाते हैं तो फिर दोनों में क्या अन्तर क्या रहा?”
“यह भी आपने खूब कही! साहब, आदमी आदमी है, जानवर जानवर।”
“यह तो मैं भी मानता हूँ, पर मेरा सवाल तो यह है कि उन दोनों में अन्तर क्या है?”
“अन्तर! अन्तर यह है कि जानवर खाने के लिए जीता है, आदमी जीने के लिए खाता है।”
“वाह, आपने तो मेरे मन की ही बात कह दी। यही तो मैं कहना चाहता था। जब आदमी जीने के लिए खाता है, तब उसके जीवन को कोई उद्देश्य धन कमाना नहीं हो सकता। धन कमाने का मतलब होता है पेट के लिए जीना; और जो पेट के लिए जीता है, उसका पेट कभी नहीं भरता। आदमी तिजोरी में भरी जगह को नहीं देखता। उसकी निगाह खाली जगह पर रहती है। इसी को ‘निन्यानवे का फेर’ कहते हैं। स्वामी रामतीर्थ ने एक बड़ी सुन्दर कहानी लिखी है। एक धनी आदमी था। वह ओर उसकी स्त्री, दोनों हर घड़ी पेरशान रहते थे और अक्सर आपस में लड़ते रहते थे। उनका पड़ोसी गरीब था, दिन-भर मजूरी करता था। औरत घर का काम करती थी। रात को दोनों चैन की नींद सोते थे। एक दिन धनी स्त्री ने कहा, “इन पड़ोसियों को देखो, कैसे चैन से रहते हैं!” आदमी ने कहा, “ठीक कहती हो।”
अगले दिन उसने किया क्या कि पोटली में निन्यानवे रुपये बॉँधे और उसे गरीब पड़ोसी के घर में डाल दिया। पड़ोसी ने रूपये देखे। उसकी आँखे चमक उठीं। उसी घड़ी लोभ ने उसे धर दबोचा। वह निन्यानवे के सौ और सो के एक सौ एक करने में लग गया। फिर क्या था! उसकी नींद हराम हो गयी। सुख भाग गया। मेहनत की खरी कमाई का आनन्द सपना हो गया।
हममें से ज्य़ादातर लोग ऐसे ही चक्कर में पड़े है। हम यह भूल जाते है कि इस चक्कर में कहीं सुख है तो वह नकली है। सुख से अधिक दु:ख है। असल में पैसा अपने-आपमें बुरा नहीं है। बुरा है उसका मोह। बुरा है उसका संग्रह। रोज़ी-पाने का अधिकार सबकों हैं, पर पैसा जोड़कर रखने का अधिकार किसी को भी नहीं है।
आचार्य विनोवा ने बड़ी सुन्दरता से यह बात कही है, “धन को धारण करने पर वह निधन (मृत्यु) का कारण बन जाता है। इसलिए धन को ‘द्रव्य’ बनना चाहिए। जब धन बहने लगता है, तभी वह द्रव्य बनता है। द्रव्य बनने पर धन धान्य बन जाता हे।”
गांधीजी के शब्दों में, “सच्ची दौलत सोना-चॉँदी नहीं, बल्कि स्वयं मनुष्य ही है। धन की खोज धरती के भीतर नहीं, मनुष्य के हृदय में ही करनी है।”
जिस समाज और देश के पास इंसान की दौलत है, उसका मुकाबला कौन कर सकता है!
२/पारसमणि
रवीन्द्र ठाकुर की एक बड़ी ही सीख देने वाली रचना है। एक आदमी को रात में सपने में भगवान् दिखाई दिये। उन्होंने उससे कहा कि जाओ, आमुक जगह पर एक साधु रहता है, उससे मिलो और उसके पास हीरा है, उसे ले लो। उस आदमी को लगा, भगवान की बात सही हो सकी है। सो अगले दिन उसने सबेरे उठकर उनके बताये स्थान पर साधु की खोज की। संयोग से साधु मिल गये। उसने उन्हें सपने में भगवान् के दर्शन देने और उनसे मिलकर हीरा लेने की बात बतायी। साधु ने कहा-“हॉँ ठीक है। जाओ, वहॉँ नदी-किनारे पेड़ के नीचे हीरा पड़ा है, उसे ले लो।” आदमी वहॉँ गया और उसके अचरज का ठिकाना न रहा, जब उसने देखा कि पेड़ के नीचे सचमुच बड़ा कीमती हीरा पड़ा है। उसने हीरे को उठा लिया। खुशी से उसका दिल नाचने लगा।
हीरे को नदी में फेंककर वह साधु के पस चल दिया।
अचानक उस आदमी के मन में एक विचार पैदा हुआ। साधु ने इसे यों ही क्यों डाल रखा है? जरूर उसके पास इस हीरे से भी मूल्यवान् कोई चीज़ है, जिसने ऐसी अनमोल चीज़ को मिट्टी के मोल बना दिया हैं यह हीरा तो आज है, कल नहीं। मुझे वही चीज़ प्राप्त करनी
चाहिए, जो हीरे को भी ठीकरा कर देती है। इतना सोच उसने हीरे को नदी में फेंक दिया और साधू के पास चला गया।
यह घटना कवि के दिमाग की कोरी कल्पना नहीं है, इसमें बहुत बड़ी सच्चाई है। जिसके पास धन से भी कीमती कोई दूसरी चीज़ होती है, उसे धन फीका लगता है। किसी बुद्धिमान ने ठीक ही लिखा है, “जिसके पास केवल धन है, उससे बढ़कर ग़रीब और कोई नहीं है।” ऊँचे दर्जे के एक आदमी ने कितनी बढ़िया बात कहीं है, “मुझसे धनी कोई नहीं है, क्योंकि मैं सिवा भगवान् के और किसी का दास नहीं हूँ।”
यह जानते हुए भी कि धन-दौलत की आदमी को देखते कोई कीमत नहीं है, आज सभी समाजों में, सभी देखों में, पैसे का बोलबाला है। अमरीका के पास बहुत धन है, पर वह और धन चाहता हैं। रूस के पास उतना पैसा नहीं है; लेकिन वह चाहता है कि उसके देशवासी खूब खुशहाल हों। यही हाल दूसरे बहुत-से देशों का है। वे सब दिन-रात पैसे की होड़ में दौड़ रहे है। जानते हैं, इसका नतीजा क्या है? इसका नतीजा यह है कि अमरीका के बहुत-से लोग रोज़ रात को नींद की दवा लेकर सोते है। उनके जीवन में सहजता नहीं है। और जिसके जीवन में उतावली या उलझन है, उसे नींद कहॉँ से आयेगी!
दुनिया आज हैरान इसीलिए बनी हुई है कि उसका मुँह दौलत की ओर है। यहॉँ दौलत से मतलब सिर्फ़ रूपये-पैसे से ही नहीं है, सुख-सुविधा की बाहरी चीजों से भी है। ऐसी चीजों के पीछे पड़ने से आदमी को लगता है कि उसे कुछ मिल रहा है, पर उसकी हालत वैसी ही होती है, जैसी की रेगिस्तान में भ्रम से दीख पड़ने वाले पानी को देखकर हिरन की होती है। वह उसकी ओर दौड़ता है, पर पानी हो तो मिले! बेचारा भटक-भटककर प्यासा ही प्राण दे देता है।
हम कह चुके हैं, संसार में जितने साधु, सन्त, महात्मा और बड़े लोग हुए है, उन्होनें धन से जो कीमती चीजें हैं, उसे पाने की कोशिश की है। उन्होंने अपनी आत्मा को ऊँचा उठाया है, अपनी बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न किया है और अपने सामने ऊँचा उद्देश्य रखा है।
सोचने की बात है अगर पैसे में और पैसे के वैभव में ही सब कुछ होता तो भगवान् बुद्ध क्यों घर-बार छोड़ते और क्यों भगवान् महावीर राजपाट पर लात मारते! यह तो ढाई हजार बरस पहले की बात हुई। आज के जमाने में ही हमने गांधीजी को देखां उन्होंने सारे आडम्बर छोड़ दिये। सादगी का जीवन बनाया और बिताया। वह समझ गये थे कि जो आन्नद सादगी की जिन्दगी में है, वह पैसे की जिन्दगी में नहीं है। यदि वह चाहते तो अच्छी-खासी कमाई कर सकते थे, लेकिन उस हालत में वह गांधी न होते। उन्होंने पैसे का मोह त्यागा और बड़े-बड़े काम किये। दुनिया में उनका नाम अमर हो गया। आपको याद होगा, प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन ने लिखा था—“आगे आने वाली पीढ़ियॉँ मुश्किल से विश्वास कर पायेंगी कि इस धरती पर हाड़-मांस का बना गांधी-जैसा व्यक्ति कभी चलता-फिरता था।”
असल में उन्होंने सोना नहीं जुटाया। उन्होनें वह पारसमणि प्राप्त की, जिसको छूकर सब कुछ सोना बन जाता है। जिसके पास ऐसी मणि हो, उसके पास किस चीज़ की कमी हो सकती है!
लेकिन यह पारसमणि यों ही नहीं मिल जाती। इसके लिए बड़ी साधना की जरूरत होती है। सोना तपने पर कंचन बनता है, ठीक यही बात आदमी के साथ भी है।
हमारे धर्म-ग्रन्थों में कहा गया है कि इस दुनिया में सबसे दुलर्भ आदमी का शरीर है। सारे प्राणियों में आदमी को ऊँचा माना गया है और वह इसलिए कि आदमी के पास बुद्धि है, विवेक है। संसार में जितनी ईजादें हुई हैं, सब बुद्धि के बल पर हुई है। आप सबेरे दिल्ली में नाश्ता करके चलते है और दोपहर का खाना मास्कों में खा लेते है। हजारों मील की यात्रा घंटों में हो जाती है। यह सब आदमी की बुद्धि से ही सम्भव हुआ है।
जिसके पास इतनी बड़ी चीज हो, वह धन के या दुनियादारी की चीजों के पीछे भटके, यह उचित नहीं है। बुद्धि का उपयोग उसे बराबर आगे बढ़ने के लिए करना चाहिए। जिन्होंने ऐसा किया है, उन्होंने मानवता की बड़ी सेवा की है। उनका नाम अमर हो गया है।
३/खोटा धन, खरा इंसान
धन की खोट आदमी को तब मालूम होती है, जब वह खरा बनने लगता है। खरा बनने का अर्थ यह नहीं है कि इंसान घरबार छोड़ दे, जंगल में चला जाय और भगवान के चरणों में लौ लगाकर बैठा रहे। बहुत-से लोग ऐसा भी करते हैं, पर यह रास्ता सबका रास्ता नहीं है। ज्यादातर लोग तो दुनिया में रहते है और उनका वास्ता अपने घर के लोगों से ही नहीं, दूसरों के साथ भी पड़ता है। खरा आदमी वह है, जो अपनी बुराइयों को दूर करता है और नीति का जीवन बिताते हुए अपने समाज के और देश के काम आता है। ऐसा आदमी सबकों प्रेम करता है। और सबके सुख-दु:ख में काम आता है। हज़रत मुहम्मद जहॉँ भी दु:ख होता था, वहॉँ फौरन पहुँच जाते थे। भगवान् बुद्ध ने न जाने कितनों की सेवा की। गांधीजी परचुरे शास्त्री के घावों को अपने हाथों से साफ़ करते थे। ये मामूली घाव नहीं थे, कुष्ठ के थे; उनमें से मवाद निकलता था, लेकिन गांधीजी बड़े प्रेम से शास्त्रीजी की सेवा करते थे। ऐसी मिसालें एक-दो, नहीं, सैकड़ों-हजारों है। जो मानव-जाति की सेवा करता है, उससे बड़ा धनी कोई नहीं हो सकता।
अबू बिन अदम की कहानी आपने सुनी होगी। एक दिन रात को वह अपने कमरे में सो रहा था। अचानक उसकी आँख खुली। देखा कि सामने एक देवदूत बेठा कुछ लिख रहा हे। अदम ने पूछा, “आप क्या लिख रहे हैं?”
उसने जवाब दिया, “मैं उन लोगों के नाम लिख रहा हूँ, जो भगवान् के प्यारे हैं?”
अदम थोड़ी देर चुप रहां फिर बोला, “भैया, मेरा नाम उन लोगों में लिख लेना, जो इंसान की सेवा करते है।”
देवदूत चला गया और अगले दिन जब वह लौटा तो उसके हाथ में उन आदमियों की सूची थी, जिन्हें भगवान् का आशीर्बाद मिला था। अबू बिन अदम का नाम सूची में सबसे ऊपर था। साफ है कि जो दूसरों की सेवा करता है, वह भगवान् की ही सेवा करता है।
सेवा करने का अपना आनन्द होता है। एक बार सेवा करने की आदत पड़ जाती है तो फिर छूटती नहीं। जो बिना किसी स्वार्थ दूसरो के दूसरों की सेवा करता है, उसका मुक़ाबला कोई नहीं कर सकता। सूरज बिना बदले की इच्छा रखे सबकों धूप और रोशनी देता है, चॉँद ठंडक पहुँचाता है, धरती अन्न देती है, पानी जीवन देता है, हवा प्राण देती है। इनकी बराबरी कौन कर सकता है!
विनोबा के पास क्या रखा था? न धन, न कोई बाहरी सत्ता; पर सेवा के जोर पर उन्होंने करोड़ों लोगों के दिलों में अपना घर बना लिया। उन्हें चालीस लाख एकड़ से उपर जमीन मिली। सैकड़ों गॉँव ग्रामदान में मिले ओर जीवनदानियों की उनकी पास फौज़ इकट्ठी हो गयी। यह सब कैसे हुआ? सेवा के बल पर। जब विनोबा ने भूदान-यक्ष आरम्भ किया था, लोगों ने जाने क्या-क्या बातें कहीं थीं, पर विनोबा ने उनकी कोई परवा नहीं की। उनका भगवान पर विश्वास था; उनके दिल में कोई स्वार्थ न था। ऐसे आदमी को अपने काम में सफलता मिलनी ही थी। वह हज़ारों मील पैदल चले। जाड़ों में चले, गर्मियों में चले, वर्षा में चले, धूप में चले। लोगों ने कहा, “बाबा, चलते-चलते बहुत दिन हो गये। थोड़ा आराम कर लो।”
जानते हैं, विनोबा ने क्या जबाबा दिया? उन्होंने कहा, “सूरज कभी रूकता नहीं, चाँद कभी टिकता नहीं, नदी कभी थमती नहीं; मेरी भी यात्रा अखण्ड गति से चलेगी।”
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विनोबा की पग-यात्रा कभी रूकी नहीं।
सेवा के आनन्द में लीन विनोबा चलते रहे, चलते रहे। देश का कोई भी कोना उन्होंने नहीं छोड़ा। प्रेम की निर्मल धारा उन्होंने घर-घर पहुँचा दी। एक दिन उनकी टोली में हम कई जने बैठे थे। शाम का समय था। उस दिन विनोबा को बहुत-सी जमीन मिली थी। जब उन्हें दिनभर का हिसाब बताया गया तो वह मुस्कराने लगे। बोले, “आज इतनी जमीन हाथ में आयी है, लेकिन देखों, कहीं हाथ में मिट्टी चिपकी तो नहीं!”
हम सब हँस पड़े, पर विनोबा ने बड़े मर्म की बात कहीं थी। जिसके हाथों में लाखों एकड़ भूमि आयी हो, उसके हाथ में एक कण भी चिपका न रहे, इससे बड़ा त्याग और क्या हो सकता है।
शरीर के दुबले-पतले विनोबा ने हम सबको दिखा दिया कि इंसान दुनिया में किसी का भी मूल्य नहीं है।
एक सूफ़ी सन्त ने कहा है, “किसी का दिल उसकी खिदमत करके अपने हाथों में ले, यही सबसे बड़ी इज्ज़त है। हज़ारों काबों से एक दिल बढ़कर है।”
गांधीजी ने तो सेवा-धर्म को, अहिंसा और सत्य दोनों की बुनियाद माना। उन्होंने कहा, “सेवा-धर्म का पालन किये बिना मैं अहिंसा-धर्म का पालन नहीं कर सकता; और अहिंसा धर्म का पालन किये बिना मैं सत्य की खोज नहीं कर सकता।”
सेवा की बड़ी महिमा है। धन से आप कुछ लोगों को अपनी ओर खींच सकते हैं, सेना से कुछ और ज्यादा पर विजय पा सकते हैं, लेकिन सारी दुनिया को तो सेवक ही जीत सकता है।□
४/प्रेम की निर्मल धारा
सेवा के लिए पहली शर्त प्रेम हैं, अर्थात जिसके दिल में प्रेम हैं, वही सेवा कर सकता है। टॉल्स्टॉय ने कहा है, “प्रेम स्वर्ग का रास्ता है।” बुद्ध का कथन है, “प्रेम इंसानियत का एक फूल है और है और प्रेम उसका मधु।” रामकृष्ण परंमहंस ने कहा है, “प्रेम संसार की ज्योति है।” विक्टर ह्यूगों का कहना है, “जीवन एक फल है और प्रेम उसका मधु।” रामकृष्ण परंमहंस ने कहा है, “प्रेम अमरता का समुदंर है।” कबीर का कथन है, “जिस घर में प्रेम नहीं, उसे मरघट समझ—बिना प्राण के सॉँस लेने वाली लुहार की धौंकनी।”
अलग—अलग शब्दों में सभी महापुरूषों ने प्रेम का बखान किया है। वास्तव में प्रम मानव-जाति की बुनियाद है। प्रेम ऐसा चुम्बक है, जो सबको अपनी ओर खींच लेता है। जिसके हृदय में प्रेम है, उसके लिए सब अपने हैं। भारतीय संस्कृति में तो सारी पृथ्वी को एक कटुम्ब माना गया है—‘वसुधैव कुटुम्बकम्।‘
जो सबकों प्रेम करता है, उससे बड़ा दौलतमंद कोई नहीं हो सकता। वह दूसरे के दिल में ऊँची भावना पैदा कर देता है। आप जानते हैं, आदमी को भूमि से कितना मोह होता है। कौरवों ने कहा था कि हम पाण्डवों को सुई की नोक के बराबर भी ज़मीन नहीं देगे; लेकिन विनोबा के प्रेम ने लाखों एकड़-भूमि इकट्ठी करा दी। उन्होंने लोगों से यह नहीं कहा कि मुझे जमींन दो। नहीं दोगे तो कानून से या ज़ोर-जबरजस्ती से छीनवा दूगॉँ । जिसका हृदय प्रेम से सराबोर हो, वह ऐसी भाषा कैसे बोल सकता था! उन्होंने कहा, “मेरे प्यारे भाइयों, मैं तुम्हारे घर पर आया हूँ। तुम्हारे पॉच बेटे हैं, छठा होता तो उसका भी लालन-पालन करते न! मुझे अपना छठा बेटा मान लो और मेरा हिस्सा मुझे दे दो।”
विनोबा का यह प्रेम ही था, जिसने लोगों के दिलों को मोम बना दिया। किसी-किसी ने तो अपनी सारी-की-सारी जमीन उनके चरणों में रख दी। प्रेम के इतने बड़े चमत्कार की घटनाएँ हम किताबों में पढ़ते है, पर आज के युग में विनोबा ने उसे सामने करके दिखा दिया।
जिसका हृदय निर्मल है, उसी में ऐसे महान् प्रेम का निवास रहता है। वैसे तो हम रोज़ प्रेम करते है; अपने बच्चों के, अपने सम्बन्धियों के, अपने मित्रों के प्रति प्रेम का व्यवहार करते है, लेकिन बारीकी से देखा तो वह असली प्रेम नहीं है। हमारे प्रेम में कर्त्तव्य की थोड़ी-बहुत भावना रहती है; पर साथ ही यह स्वार्थ भी कि हमारे बच्चे बड़े होकर बुढ़ापे का सहारा बनेंगें।
सगे-सम्बन्धी मुसीबत में काम आवेंगे। अगर हमें यह भरोसा हो जाय कि हमारा काम दूसरों के बिना भी चल जायेगा तो सच मानिए, हमारे प्रेम का बर्तन बहुत-कुछ खाली हो जायेगा। ऐसा प्रेम हमारे जीवन में छोटी-मोटी सुविधाएँ पैदा कर सकता है, पर दुनिया को बाँध नहीं सकता।
असली प्रेम तो वह है, जिसमें किसी प्रकार की बदले की भावना न हो। इतना ही नही, उसमें विरोधी के लिए भी जगह हो। गर्मी से व्याकुल होकर हम जाने कितनी बार सूरज को कोसते हैं, पर सूरज कभी हम पर नाराजी दिखाता है? हम धरती को रोज़ पैरों से दबाते हुए चलते हैं, पर वह कभी गुस्सा होती है? ज़रा गरम हवा आती है तो हम कहते हैं-‘’मार डाला कमबख्त़ ने।’’ हमारी गाली का हवा कभी बुरा मानती है? यदि गुस्सा होकर सूरज धूप और रोशनी न दे, धरती अन्न न दे, हवा प्राण न दे, तो सोचिए, हम लोगों की क्या हालत होगी!
संत फ्रांसिस ,जो प्राणि-मात्र को प्रेम करता था।
पर दुनिया उन्हं कितना ही भला-बुरा कहे, वे अपने धर्म को नहीं छोड़ सकते। उनके प्रेम में तनिक भी अन्तर नहीं पड़ सकता, क्योंकि उनके प्रेम के पीछे किसी प्रकार का स्वार्थ नहीं है। वे प्रेम इसलिए देते हैं, कि बिना दिये रह नहीं सकते। यही है वास्तविक प्रेम।
ऐसे प्रेम का वरदान बिरलों को ही मिलता है, पर जिन्हें मिलता है, वे अपने को कृतार्थ बना जाते हैं, दुनिया को धन्य कर जाते हैं।
५/खरी कमाई
आप कहेंगे, तुम सेवा की और प्रेम की बातें करते हो। हम भी उन्हें जानतें है। पर जिन्हें हर घड़ी पेट के लाले पड़े रहते हो, वे कहाँ से सेवा और कहाँ से प्रेम करें? उन्हे तो सबसे पहले रोटी चाहिए।
आपकी बात सच है। भूखे को रोटी चाहिए और रोटी उसे हर हालत मे मिलनी चाहिए, लेकिन उतने से आदमी को सन्तोंष होता कहाँ है! पहली बात तो यह कि आदमी मेहनत नही करता, काम से बचता है; दूसरी बात यह कि वह खाने के लिए कम, बचाने के लिए अधिक कमाता है। गांधीजी ने लिखा है, "हर मेहनती आदमी को रोजी पाने का अधिकार है, मगर धन इकटठा करने का अधिकार किसी को नहीं है। सच कहें तो धन का इकटठा करना चोरी है। जो भूख से अधिक धन लेता है,वह जान मे या अनजान में, दूसरों की रोजी छीनता है।"
आज दुनिया मे यही हो रहा है। एक ओर इतनी कमाई है कि आदमी खाकर हज़म नही कर सकता; दूसरी ओर इतना अभाव है कि आदमी पेट भरकर खा भी नही सकता। जहाँ ढेर होता है, वहाँ गडढा अपने आप हो जाता है। एक बुढिया की बड़ी मजेदार कहानी है। एक बड़ी ग़रीब बुढ़िया थी। बेचारी तंगी के मारे हैरान रहती थी। एक दिन किसी ने उससे कहा, माई पैसे से पैसा आता है।" वह बेचारी कहीं से एक पैसा जुटा लाई ओर पैसे के ढेर के पास खड़ी होकर लगी उसे पैसा दिखाने। थोड़ी देर मे उसका वह पैसा भी ढेर मे चला गया। वह रोने लगी। तब किसी ने उसे समझाया, "तू जानती नही, पैसा ढेर मे जाता है।"
आज यही बात देखने मे आ रही है। कुछ लोग कहते है कि अमीरी और गरीबी किस ज़माने मे नही रही। पुराने समय से लेकर अब तक यह भेद चला आ रहा है। सब बराबर कैसे हो सकते है?
इस तर्क मे बड़ी भूल है। ईश्वर ने सारे इंसानो को एक-सा बनाया है। आदमी आदमी मे कोई अन्तर नही रक्खा। अन्तर तो स्वयं आदमी ने पैदा किया है। एक आदमी दिमाग़ से काम करता है, दूसरा शरीर से। पहले को हम बड़ा मानते है और उसे अधिक पैसा देते है, दूसरे को किसान-मजूर कहकर छोटा मानते है। और उसकी कम कीमत लगाते है। लेकिन यह न्याय नही है। जो दिमाग काम करता है, उसे भी खाने को अन्न चाहिए और अन्न बिना शरीर की मेहनत के नही मिल सकता। शरीर से काम करे वाले को दिमागी काम करने वाले का सहारा चाहिए। इस तरह दोनों एक-दूसरे के पूरक है। एक के बिना दूसरे का काम नही चल सकता।
पर आज का समाज उन्हें एक-दूसरे का पूरक या साथी मानता कहाँ है? बुद्धि से काम करने वाला शरीर की मेहनत को छोटा और ओछा मानता है और उससे बचता है। वह मानता है कि मजूर से मेहनत लेने का उसे अधिकार है। वह यह नही मानता कि
मजूर के प्रति उसका कोई कर्त्तव्य भी है। फल यह कि ईश्वर की दी हुई समानता को आदमी ने न सिर्फ नष्ट कर दिया है, बल्कि आदमी के बीच ऊँच-नीच की, छोटे-बड़े की, अमीरी-गरीबी की चौड़ी खाई भी खोद दी।
मेहनत की खरी कमाई।
गांधीजी इसी खाई को पाटना चाहते थे। उन्होने रामराज्य की जो बात कही थी, उसके पीछे यही भावना थी। वह चाहते थे कि एक भी आदमी बिना अन्न के न रहे, सबको पहनने को कपड़े और रहने को घर मिले, सबको पढाई-लिखाई की सुविधा मिले और हारी-बिमारी के लिए दवा-दारू की व्यवस्था हो; यानी सबको विकास की समान सुविधाएँ हों। उनका तो यहां तक कहना था कि जब तक एक भी आंख मे आंसू है, तब तक लड़ाई की मंजिल पूरी नही सकती।
यह खाई एकदम दूर हो जाए, तब तो कहना ही क्या! लेकिन आज के जमाने में वह बिल्कुल दूर न हो सके तो कम तो हो ही जानी चाहिए। हमारे समाज की बुनियाद नये मूल्यों पर रक्खी जानी चाहिए। धन को अब तक बहुत प्रतिष्ठा मिल चुकी है, उसकी जगह अब सच्चे इंसान को इज्ज़त मिलनी चाहिए। बौद्धिक और शारीरिक भ्रम के बीच जो दीवार खड़ी हो गयी है,वह टूटनी चाहिए। भ्रमका शोषण बंद होना चाहिए। हमारे सारे काम इंसान को, ग़रीबो के उस प्रतिनिधी का , जिसे गांधीजी ने दरिद्रनारायण कहा था, सामने रखकर होने चाहिए। भारत इसलिए भारत बना रहा कि उसने इंसानियत को ऊँची जगह दी। मानवता को वही मान देने का अब समय आ गया है।
कहने का मतलब यह कि हर आदमी अपनी क्षमता के अनुसार काम करे और जरूरत के अनुसार पाये; कोई किसी का शोषण ने करे, न अपना होने दे; सब अपने-अपने कर्त्तव्य को जाने और मानें कि अधिकार तो कर्त्तव्य मे से अपने-आप आते है; सब सादगी से रहे ओर सबके बीच प्रेम का अटूट नाता हों।जब समाज की बुनियाद इन पक्के आधरों पर रखी जायेगी। तो हमारे सारे दुखऔरक्लेश अभाव और भेद, अपने-आप दूर हो जायेगें। तब आदमी धन और सत्ता, प्रभुत्व और वैभव, किसी के नीचे नही रहेगा, बल्कि उन सबके ऊपर रहेगा। मानव को इतना मान मिलेगा तो प्रभु ईसा के शब्दो मे धरती पर स्वर्ग उतरते देर नही लगेगी।□
६/ हारिए न हिम्मत
कहिए साहब, क्या मामला है? आप इतने उदास क्यों है। आपकी आंखों मे आंसू क्यों छलछला रहे है। आपके चेहरे पर हवाइयां क्यों उड़ रही है?
ओहो, आप मुसीबतों मे जूझते-बूझते थक गये है। घर मे बीमारी है, बच्चो की पढाई का बोझ है, लड़की का जल्दी ही ब्याह होना है, बीसियों खर्च सिर पर है, पर पैसे की तंगी है। रात-दिन परेशानियों से आपका हौसला पस्त हो गया है, आपकी हिम्मत जवाब दे गयी है। चारों ओर अंधकार दिखाई देता है। कोई रास्ता ही नही सूझता।
भाई, आपके साथ मेरी सहानूभूति है और मै चाहता हूं कि आपकी परेशानियां जल्दी-से-जल्दी दूर हो। पर मेरी एक बात का जवाब दीजिए। क्या आपके इतनी चिन्ता करने, इतना हैरान होने और निराश होकर हाथ-पर-हाथ रखकर बैठ जाने से आपकी कोई समस्या हल हुई है? हल होने में मदद मिली है? बीमारी को कोई फायदा पहुंचा हैं? बच्चों की पढाई का बोझ हल्का हुआ है? लड़की शादी के लिए रास्ता निकला है?
वाह, आपने भी अच्छा सवाल किया! अजी, मुसीबत आती है तो किसे हैरानी नही होती? चोट लगती है तो किसके दर्द नही होता? जब चारों तरफ के रास्तें बंद हो जाते है तो किसका दिल नही टूटता? इंसान ही तो है! बहुत ज्यादा बोझ आखिर कब तक उठा सकता हैं।
आपने इतनी बातें कह डाली, पर मेरे सवाल का ज़वाब मुझे नही मिला। मैने पूछा था कि क्या फ्रिक करने और हिम्मत हारने से आपकी मुश्किलें कम हुई? कठिनाइयों मे से रास्तें निकला?
जी नही, मेरी समस्याएँ ज्यो-की-त्यों बनी है, बल्कि बढ़ी ही है।
तब आप बताइए कि आपने चिन्ता करके, हिम्मत हार करके , क्या पाया? किसी ने ठीक ही कहा है, चिन्ता चिता के समान है। वह आदमी को खा जाती है और जो चिता के वश मे हाकर हौसला छोड़ बैठते है, उनकी नाव डूब जाती है। रूकावटें किसके रास्ते मे नही आती? लेकिन उनसे पार वे ही पाते है, जो उनके आगे सिर नही झुकाते, उनका मुक़ाबला करते हैं,
शुतुरमुर्ग का नाम आपने सुना होगा। जब कोई खतरा आता है तो वह डर के मारे अपना मुँह धरती मे गाड़ लेता है। जानते है, इसका नतीजा क्या होता है? बड़ी आसनी से मौत उसे अपने पंजे मे जकड़ लेती हैं।
शुतुरमुर्ग जानवरर होता है और माना जाता है कि बहुत-से जानवरों मे अक़ल की कमी होती है। पर आदमी तो अक़लमन्द कहलाता है। ऐसी लाचारी उसके लिए शोभा नही देती। मर्द तो वह है, जिसकी हिम्मत के सामने तूफान भी थरथरा उठे।
कोलम्बस की कहानी आपने पढ़ी होगी। वह एक छोटा-सा जहाज लेकर नयी दुनिया की खोज करने के लिए महासागर मे निकल पड़ा था। अचानक तूफान आ गया। तीन दिन तक उसका जहाज लहरों से टक्कर लेता रहा। इतने मे उसका एक मस्तूल ख़राब हो गया। उन दिनों जहाज इंजन से नही चलते थे। ऊँची बल्लियँ। लगाकर उन पर पाल तान देते थे। पालों में हवा भर जाती थी और उससे जहाज चलते थे।
मस्तूल का खराब होना मामूली बात नही थी। उसके मानी थी जहाज का खतरा, आदमियों की जान को ख़तरा। उसके संगी-साथी घबरा गये। उन्होने कहा, "अब हम आगे नही जायेगें। देश लौट जायेंगें। कोलम्बस बड़ा साहसी था। उसने मॉँझियों का हौसला बढ़ाया। बोला, "जरा-सी बात पर हाथ-पैर फुला दोगे तो उससे क्या होगा? तूफान हमारी परीक्षा ले रहा है। हम हार नही मानेगें।"
मॉँझियों की खोई हिम्मत लौट आयी। पर ज़रा आगे बढ़े कि उनकी कुतुबुनुमा बिगड़ गयी। कुतुबुनुमा दिशा बताने वाली घड़ी होती है। उसके ख़राब होने से यह पता लगना कठिन हो गया कि वे किधर जा रहे है। पर कोलम्बस की रग-रग मे हिम्मत भरी थी। मॉँझियों को
समझाकर उसने कहा, "मै आपसे कहता हूँ, कितनी भी मुश्किले आयें, पर जीत हमारी जरुर होगी।"
और उसकी बात सच निकली। वे आगे बढते गये। उनके हर्ष का ठिकाना न रहा, जब उन्हें अकस्मात् पानी पर झाड़ियों की लकड़ियॉँ तैरती दिखाई दी और आकाश मे उड़ते हुए पक्षी नज़र आये। उन्हे नयी दुनिया मिल गयी, जिसकी तलाश मे वे निकले थे।
अब आप बताइए, अगर तूफान के आने, मस्तूल के खराब होने और कुतुबनुमा के बिगड़ जाने पर कोलम्बस ने हार मान ली होती तो क्या होता? दुनिया एक बहुत बड़ी खोज से वंचित रह जाती।
कार्लाइल दुनिया का बहुत बड़ा लेखक हुआ हैं। उसने फ्रांस की क्रान्ति का इतिहास लिखने मे बड़ी मेहनत की। उसका पहला भाग छपने जानेवाला था कि एक मित्र उसे पढ़ने ले गये। मित्र की गलती से वह घर के फर्श पर गिर पड़ा और नौकरानी ने उसे रद्दी काग़ज़ समझकर आग जलाने के काम मे ले लियां। मित्र को मालूम हुआ तो बड़े दुखी हुए, पर कार्लाइल के माथे पर शिकन तक न आयीं। महीनों तक उसने सैकड़ो किताबों, हस्तलिखित पत्रों ओर घटनाओं के हालों को फिर से पढा और उस ग्रन्थ्र को दोबारा लिखकर ही माना।
किसी ने ठीक ही कहा है, "जीवन की धारा जब किसी गीत की तरह बहती हो तो उस समय पुलकित होना काफी आसान है; लेकिन असली अदमी तो वह है, जो सबकुछ उल्टा होने पर भी मुस्करा सके।"
विनोबाजी ने बड़े पते की बात कही-"चिन्तन करो, चिन्ता नही", यानी सामने कोई कठिनाई आवे तो उसमें से निकलने का रास्ता सोचो, हताश मत होओ।
ईसाइयों के धर्म-ग्रन्थ बाइबिल मे प्रभु कहते है, "जो मुसीबतों पर विजय पाता है, उसके लिए मै अपने तख्त पर जगह रखता हूँ।"
७/चरैवेति-चरैवेति
निराशा से हाथ-पर-हाथ रखकर बैठना हार को बुलावा देना है। गतिहीनता मौत का नाम है। कहावत है-गतिशील पत्थर पर काई नही लगती। काम मे आने वाले लोहे पर जंग नही लगती। यह बात सोलहों आने सही है। रूका पानी सड़ जाता है। मेहनत से बचने वाला आदमी निकम्मा हो जाता है।
वेदों मे एक बड़ा सुन्दर गीत है-‘चरैवेति-चरैवेति’। इसका मतलब होता है—चलते रहो, चलते रहो। गीत मे कहा गया है, "जो आदमी चलता रहता है, उसकी जाघों मे फूल फूलते है, उसकी आत्मा मे फल लगते है।…बैठे हुए आदमी का सौभग्य पडा रहता है ओर उठकर चलने वाले का सौभाग्य चल पड़ता है। इसलिए चलते रहो, चलते रहो।"
गीतकार आगे कहता है, "चलता हुआ आदमी ही मधु पाता है, मीठे फल चखता है। सूरज की मेहनत को देखों, जो हमेशा चलता रहता है, कभी आलस नही करता। इसलिए चलते रहो, चलते रहों।
आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन है आलस। वह हर घडी दॉँव देखता हैं। आदमी का मन जहॉँ ढीला पड़ा कि वह आकर उसको दबोच लेता है। आलसी आदमी हमेशा हैरान रहता है। उसके सामने काम करने को पड़े रहते है और वह इस उलझन मे रहता है कि उन्हे कैसे निबटायें। काम पूरे नहीं होते तो वह तरह-तरह के बहाने खोजता है। उसमें बहुत-से दुर्गुण पैदा हो जाते है। इसलिए बुद्धिमान आदमी आलस को कभी पास नही फटकने देते।
गांधीजी आगा खॉँ महल से छूटकर आये थे। उन्हें कस्तूरबा ट्रस्ट का विधान बनाया था। उन्होने एक साथी से कहा कि सवेरे प्रार्थना के समय वह उन्हें याद दिला दें। अगले दिन जब सब प्रार्थना के लिए इकटठे हुए तो उन सज्जन ने गांधीजी को याद दिलानी चाही, लेकिन वह कुछ कहे कि उससे पहले ही गांधीजी ने विधान निकालकर सामने रख दिया। बोले, "तुमसे मैने याद दिलाने को कहा था, पर बाद मे मुझे लगा कि भगवान दिन का काम देते है तो उसे करने की शक्ति भी देते है। यदि हम उस काम को उसी दिन नही कर डालते तो भगवान की दी हुई शक्ति का पूरा उपयोग नही करते। यही सोचकर मै रात को बैठ गया और विधान को पूरा करके सोया।"
गांधीजी ने अकेले इतना काम किया, उसका रहस्य यही था कि उन्होने आलस को हमेशा दूर रखा। जिस समय जो काम करना था, उसी समय उसे पूरा किया।
प्रकृति हर घड़ी अपने काम करती रहती है। जरा सोचिए, सूरज आलस करके थोड़ी देर को सो जाय तो क्या होगा? दुनिया मे हाहाकार मच जायेगा। हवा एक पल को रूक जाय तो इस धरती पर कोई भी जीता बचेगा? समय पर वर्षा न हो तो सूखा पड़ जायेगा ओर लोग भूखो मर जायेंगें।
उद्योग सफलता की कुंजी है। मिस्त्र के पिरामिडों का देखकर हम आज भी अचरज करते है। चीन की दीवार को देखकर दॉतो तले उँगली दबाते है। तेनसिंग के एवरेस्ट की चोटी पर चढने की बात याद करके रोमांच हो आता है। ये काम कैसे हुए? बराबर मेहनत करने से। यदि अदमी परिश्रम से बचता तो दुनिया का पता कैसे चलता? समुद्र कैसे पार होते? पहाड़ो की चोटियों पर लोग कैसे पहुँचते? आदमी पृथ्वी की परिक्रमा कैसे कर पाता? रेल, मोटर, हवाई जहाज कहाँ से चलते? दुनिया के हर क्षेत्र मे आज जो चमत्कार दिखाई देते है, वे कहाँ से होते?
अंग्रेजी मे कहावत है-"रोम एक दिन मे नही बन गया था।" हिन्दी मे भी हम कहा करते है-"हथेली पर सरसो नही जमती।" बडे-बडे कामों के पूरा होने मे समय लगता ही है। अग्रेजी के विश्वकोश को पूरा करने मे वैब्सटर को छब्बीस साल लगे। टॉल्स्टॉय ने अपना सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘युद्ध और शान्ति’ सात बरस मे पूरा किया। इतिहासकार गिबन को अपने रोम साम्राज्य के पतन की रचना मे बीस वर्ष लगे। जार्ज स्टीफेंसन रेलगाड़ी का सुधार करने मे पन्द्रह बरस जुटा रहा। शरीर की रक्त-संचालन क्रिया का पता लगाने मे हारवे के आठ वर्ष खर्च हुए। बड़े कामो के लिए बड़ी साधना की जरूरत होती है। जितना गुड़ डालोगे, उतना ही मीठा होगा, यह कहावत बिल्कुल सही है।
८/तल्लीनता
बहुत-से कामों मे हमें सफलता नहीं मिलती तो इसकी वजह यह है कि हम उन कामों को पूरे मन से नही करते। काम उठाया, थोड़ा-सा किया, मन मे दुविधा पैदा हो गयी-यदि यह काम पार न पड़ा तो? नही, इसे यों करें तो ठीक रहेगा। उस तरह सोच लो, फिर उसे करना शुरू करो। एक बार शुरू कर दिया तो उसे अपनी पूरी शक्ति से करों। जिसकी निगाह इधर-उधर भटकती रहती है, वह अपने लक्ष्य को नही देख सकता। आपने देखा होगा, तॉँगे मे घोड़े की ऑंखो के दोनो ओर पटटे बॉँध देते है। क्यो? इसलिए कि उसे सामने का ही रास्ता दिखाई दे। वह दायें-बायें न देखे।
स्टीफन ज्विग दुनिया के बहुत बड़े लेखक हुए है। वे एक बार एक बड़े कलाकार से मिलने गये। कलाकार उन्हे अपने स्टूडियों मे ले गया और मूर्तियों दिखाने लगा। दिखाते-दिखाते एक मूर्ति के सामने आया। बोला, यह मेरी नयी रचना है।" इतना कहकर उसने उस पर से गीला कपड़ा हटाया। फिर मूर्ति को ध्यान से देखा। उसकी निगाह उस पर जमी रही। जैसे अपने से ही कुछ कह रहा हो, वह बड़बड़ाया-"इसके कंधे का यह हिस्सा थोड़ा भारी हो गया है।" उसने ठीक किया। फिर कुछ कदम दूर जाकर उसे देखा, फिर कुछ ठीक किया। इस तरह एक घंटा निकल गया। ज्विग चुपचाप खड़े-खड़े देखते रहे। जब मूर्ति से सन्तोंष हो गया तो कलाकार ने कपड़ा उठाया, धीरे-से उसे मूर्ति पर लपेट दिया और वहां से चल दिया। दरवाजें पर पहुचकर उसकी निगाह पीछे गयी तो देखता क्या कि कोई पीछे-पीछे आ रहा है। अरे, यह अजनबी कौन है? उसने सोचां घड़ी भर वह उसकी ओर ताकता रहा। अचानक उसे याद आया कि यह तो वह मित्र है, जिसे वह स्टूडियो दिखाने साथ लाया था। वह लजा गया। बोला, "मेरे प्यारे दोस्त, मुझे क्षमा करना। मै आपकों एकदम भूल ही गया था।"
ज्विग ने लिखा है, "उस दिन मुझे मालूम हुआ कि मेरी रचनाओं मे क्या कमी थी। शक्तिशाली रचना तब तैयार होती है, जब आदमी सारी शक्तियां बटोरकर एक ही जगह पर केन्द्रित कर देता है।"
अर्जुन की कहानी बहुतों से सुनी होगी। पाण्डवों के तीर चलाने की परिक्षा लेने के लिए
एक दिन गुरू द्रोणावचार्य ने सब भाईयों का इकटठा किया। बोले, "देखो वह सामने पेड़ पर सफेद रंग की एक नकली चिड़िया है। उसकी आंखों मे लाल रंग के दो रत्न लगे है। तुम्हें उसकी दाहीनी आंख पर निशाना लगाना है।" सब भाई धनुष-बाण लेकर तैयार हो गये। द्रोण ने एक-एक से पूछा, "तुम्हें वहॉँ क्या-क्या दिखाई देता है?" किसी ने कुछ बताया, किसी ने कुछ बताया। जब अर्जुनकी बारी आयी तो उसने कहा, "गुरूदेव मुझे तो उस चिड़िया की दायीं ऑंख के सिवा ओर कुछ दिखाई नहीं देता।" इतनी थी उसकी एकाग्रता। तभी तो वह बाण चलने मे बेजोड़ था।
एकाग्रता से आदमी का अपने काम को अच्छी तरह करने का मौका मिलता है। साथ ही उसका संकल्प भी पक्का बनता है। "एकहि साधै सब सधै।" एक चीज अच्छी तरह से हो गयी तो बहुत-सी चीजें आप पूरी हो जाती है। दस साल तक विनोबाजी सारे देश मे पैदल घूमते रहे। वह प्यार से उन लोगो से ज़मीन लेते, जिनके पास थी और प्यार से उन्हे दे देते थे, जिनके पास नही थी। विनोबाजी के पेट मे अल्सर था। वह कभी-कभी बड़ा दर्द करता था। उन्हे बड़ी हैरानी होती थी, पर उनकी यात्रा नही रूकती थी। एक बार जब दर्द बढ़ गया तो डॉक्टरों ने उनकी जॉच की। अच्छी तरह से देखभाल करके उन्होने विनोबाजी से कहा, "आपकी हालत गम्भीर है। आप आठ महीने आराम करें।"
विनोबाजी ने मुस्कराकर कहा, "हालत अच्छी नही है तो आपने चार महीने क्यों छोड़ दियें? अरे, आपको कहना चहिए था कि बारहों महीने आराम करों।"
डॉक्टरों ने कहा, "आप पैदल चलना छोड़ दें।"
विनोबाजी ने उसी लहज़े मे जवाब दिया, "मेरे पेट मे दर्द है, पैरो मे नही।"
विनोबाजी ने एक दिन को भी अपनी पदयात्रा बंद नही की। लोगों ने जब बहुत कहा तो उन्होने जवाब दे दिया, "सूर्य कभी नही रूकता, नदी कभी नही ठहरती, उसी अखण्ड गति से मेरी यात्रा चलेगी।" उनकी इस एकाग्रता का ही नतीजा है कि बिना किसी दबाव के, प्यार की पुकार पर, उन्हें कोई पैतालीस लाख एकड़ भूमि मिल गयी।
सुकरात बहुत बड़े दार्शनिक थे। एक दिन उनकी पत्नी ने उनसे बाज़ार से साग लाने को कहा। वह चले, पर मन दर्शन की किसी गुत्थी मे उल्झा था। सीढ़ियॉँ उतरने लगे कि मन की समस्या ने उनकी गति रोक दी। वह सीढिय़ो पर ही खड़े थे। वह बड़ी झल्लाई, कुंछ उल्टी-सीधी बाते कही। सुकरात का ध्यान टुटा। बोले, "मै अभी साग लाता हूं।" दो-तीन सीढियॉ तेजी से उतरे, पर मन फिर उलझ गया। पैर पिुर रूक गये। बहुत देर हो गयी। पत्नी चौका साफ करके गंदे पानी की बाल्टी उठाकर फेंकने चली तो देखती क्या है कि वह सीढ़ियों से नीचे भी नहीं उतरे हैं। उसने बाल्टी का पानी उनके ऊपर डाल दिया। उन्होंने हंसकर बस इतना ही कहा, ‘‘देवीजी इसमें अचरज की कोई बात नहीं है। बिजली की कड़क के बाद पानी तो आना ही था।’’
चित्त् की एकग्रता से बहुत-सी घरेलू उलझनें हुईं, लेकिन उसी की बदौलत आज सुकरात को दुनिया याद करती है।
किसी महापुरुष ने ठीक ही कहा है, ‘‘प्रतिभा के मानी होते हैं नब्बे फ़ीसदी बहाना और दस फ़ीसदी प्रेरणा। दुनिया के काम मेहनत और एकाग्रता से ही पूरे होते हैं। वैज्ञानिको का कहना है कि एक एकड़ भूमि की घास में इतनी शक्ति भरी होती है कि उसके द्वारा संसार की सारी मोटरें और चक्कियां चेलाई जा सकती हैं। ज़रुरत बस उस शक्ति को इअकटठा करने की हैं। भाप को इंजन, पिस्टन रॉड पर केन्द्रित करने की है।
एमर्सन का कथन है-‘‘अगर जिंदगी में कोई बुद्धिमानी की बात है तो वह एकाग्रता है और अगर कोई खराब बात है तो अपनी शक्तियों को बिखेर देना।’’
दुनिया में लोगों में शक्ति की कमी नहीं है, लेकिन वे अपनी उस शक्ति को केन्द्रित करना नहीं जानते। बंधी हुई भाप बड़े-से-बड़े इंजनों को खींच ले जाती है, लेकिन अगर वह बिखर जाय तो बेकार चली जाती है।
९/काम मे प्रसन्नता
किसी बड़े आदमी ने कहा है कि जिस काम मे प्रसन्नता, आन्नद न हो, वह बेकार है। हम रोज़ देखते है कि कुछ लोग थोड़ा-सा काम करके थक जाते है, जबकि कुछ लोग ढेर-का-ढेर काम करके भी फूल की तरह खिले रहते है। इसका कारण क्या है। इसका कारण यही है कि जिनको काम मे रस नही आता, उनके लिए काम ,भारी बोझ-सा होता है और भला भारी बोझ लेकर आदमी कितनी दूर चल सकता है? जिनको काम में रस मिलता है, वे उसमें आनन्द लेते हैं, उसे सहज भाव से करते है, इसलिए काम का भार उन पर नही पड़ता।
काम में यह आन्नद तब मिलता है, जबकि हम काम के साथ आत्मीयता का नाता जोड़ लेते है। मॉँ अपने बच्चे के लिए रात-रात भर जागती है, फिर भी उसे वह भारी नही पड़ता। दूसरे के लिए थोड़ा-सा भी जगने मे उसे हैरानी हो जाती है।
यह भी जरूरी है कि हम किसी भी काम को छोटा न समझे। हमारे यहॉँ बुद्धि से काम करने वाले शरीर की मेहनत से होने वाले कामों को छोटा समझते है। नतीजा यह कि जब उन्हें शरीर से काम करना पड़ता है तो उन्हें आनन्द नही आता। कोई भी काम छोटा नहीं है, न कोई काम बड़ा है। सबका अपना-अपना स्थान है। कहावत है न कि , "जहॉँ काम अवे सुई, कहॉँ करै तलवार।" यानी जहॉँ सूई की आवश्यकता है, वहॉँ तलवार क्या करेगी? रसोई मे काम करने वाला रसोइया, दफ्तर मे काम करने वाला बाबू, कक्षा मे पढ़ाने वाला अध्यापक, प्रयोगशाला मे प्रयोग करने वाला वैज्ञानिक, इमारतों के नक्शे बनाने वाला इंजीनियर, खेतों मे काम करने वाले किसान और मज़दूर आदि-आदि सबके काम अपना-अपना महत्व रखते है। उनमें न कोई हेय है, न कोइ श्रेष्ठ है। सब आदमी के लिए जरूरी है ओर एक-दूसरे के पूरक है।
जब काम के साथ ऐसी भावना पैदा हो जाती है तो उसमें से आनन्द का सोता फूट पड़ता है। काम बहुत ही प्यारा लगने लगता है। शेक्सपियर ने लिखा है, "जिस परिश्रम से हमें आनन्द मिलता है, वह हमारी व्याधियों के लिए अमृत के समान होता है।"
काम मे आदमी को रस मिलने से उसका उत्साह बढ़ता है। उत्साह बढ़ने से आदमी के हाथ दूना काम करते है। उत्साह वह ज्योति है, जिसके आगे निराशा का अंधकार एक क्षण नही ठहरता। उत्साह से भरा व्यक्ति कभी खाली नही बैठ सकता। उसे नित नये-नये काम सूझते रहते है। बड़ी उम्र मे भी जवान बना रहता है।
जीवन में सबके सामने बड़े-बड़े अवसर आते रहते है। जो उन्हे पहचानकर पकड़ लेते है, वे महान काम कर डालते है। किसी चित्रशाला मे एक चित्र था, जिसमें चेहरा बालों से ढँका था और पैर मे पंख लगे थे। किसी ने पूछा, "यह किसकी तस्वीर है?"
गांधी जी के लिए कभी कोई काम छोटा न था।
कलाकार ने कहा, "अवसर की।"
"इसका मुँह क्यों छिपा हुआ है?"
"इसलिए कि जब यह लोगों के सामने आता है तो वे इसे पहचान नही पाते।"
"इसके पैर में पंख क्यो लगें है?"
"इसलिए कि यह बड़ी तेजी से भाग जाता है और एक बार गया कि उसे कोई नहीं पकड़ सकता।"
उत्साही आदमी अवसर को कभी हाथ से नही जाने देता। उसकी ऑंखे सदा खुली रहती है और उसकी बुद्धि हमेशा जाग्रत रहती है।
बाइबिल मे कहा है-"काम पूजा है।" जिस तरह लोग पूजा मे ऊँची निगाह और ऊँची भावना रखते है, वैसी ही निगाह और भावना हमें हर काम मे रखनी चाहिए। जिसे काम मे रस आता है, वही काम की महिमा को जानता है, वही काम को कर्त्तव्य मानकर करता है। गांधीजी को इतने बड़े-बडे काम रहते थे, लेकिन फिर भी वही अपने आश्रम के छोटे-से-छोटे काम मे भी मदद करते थे। रसोई मे साग काटते थे, पखाना साफ करते थे, बीमारों की देख-भाल करते थे। काम उनके लिए सचमुच की पूजा थी।o
१०/अपने पर भरोसा
आदमी कितनी भी मेहनत कर ले, अगर उसे अपने पर भरोसा नही है तो वह जीवन मे सफल नही हो सकता। बाहरी साधन इंसान के लिए जरूरी होते है, कुछ हद तक मदद भी करते है, लेकिन बिना आत्मविश्वास के उसकी गाड़ी नही बढ़ सकती। अपने पैरो की ताक़त के बिना आदमी दूर तक नही जा सकता।
अपने पर भरोसे के मयने होते है-अपनी शक्तियों पर भरोसा। किसी भी काम को करने वाले आदमी मे अगर यह विश्वास है कि उसे जरूर पूरा कर सकेगा तो वह पूरा होकर ही रहेगा। जन्म से सारे गुण को पैदा कर सकता है। आत्म-विश्वास भी काम से आता है। गांधीजी बचपन मे डरपोक थे, लेकिन आगे चलकर ऐसे निडर बने कि दुनिया की कोई भी ताकत उन्हें नही डरा सकी।
आत्म-विश्वास सौ रोगो की एक दवा है। आत्म विश्वास है तो आपको काम के लिए नहीं भटकना पड़ेगा, भयंकर बीमारियॉँ नही पडेंगी, चिन्ताऍ आपका खून नहीं चूसेंगी ओर दुनिया की असफलताओं की वेदना आपको नही उठानी पड़ेगी। आत्म-विश्वास वह शक्ति है, जो असम्भव को भी सम्भव करके दिखा देती है।
आत्म-विश्वास दृढ़ इच्छा-शक्ति सेउत्पन्न होता है। इच्छा-शक्ति वैसे हरकिसी मे होती है; किन्तु बहुत से लोगों मे वह सोती पडी रहती है। वे जानते ही नही कि उनके अन्दर शक्ति है। जो उसे पहचान लेते है, उनमें यह विश्वस पैदा हो जाता है कि वे जो कुछ करेगें , अच्छा ही होगा। ऐसे आदमी हौसले से काम करते जाते है ओर सफलता हर घड़ी उनके दरवाजें पर खड़ी रहती है।
एक राजा पर उसके दुश्मन ने हमला किया। राजा ने उसका मुकाबला किया, लेकिन वह हार गया। अपने राज्य से भागकर वह एक गुफा मे जा छिपा। राज्य को वापस पाने की उसे कोई आशा न रही। गुफा मे बैठकर उसे बीते दिनों की याद सताने लगी। अकस्मात उसकी निगाह सामने की दीवार पर गयी। देखता क्या है कि एक कीड़ा बार-बार ऊपर चढ़ने की
कोशिश कर रहा है। चढ़ता है, गिर पड़ता है। इस तरह वह छ: बार चढ़ा ओर छ: बार गिरा, लेकिन उसने अपना प्रयास नही छोड़ा। राजा बड़ी उत्सुकता से उसे देखता रहा। सातवी बार उसकी कोशिश सफल हुई। वह ऊपर पहुंच गया। राजा सोचने लगा-इस छोटे-से कीडे ने हार नही मानी और ऊपर पहुँचकर ही रहा। आखिर मै तो आदमी हूं, कोशिश करूँ तो कोई वजह नही कि मेरी जीत न हो। यह सोचकर वह बाहर निकला और हिम्मत के साथ अपनी बिखरी सेना को इकटठा करके उसने फिर अपने राज्य को जीतने की कोशिश की। उसे अब भरोसा हो गया था कि उसे अवश्य सफलता मिलेगी और उसकी बात सही निकली।
राजा ने देखा,कीड़े ने हार नहीं मानी।
पं. जवाहरलाल नेहरू ने ठीक ही लिखा है, "हमारी कामयाबी इस बात मे नही है कि हम कभी गिरें ही नही। हमारी कामयाबी इसमें है कि गिरते ही हम हर बार उठकर खड़े हो जायें।"
कुछ लोग आत्म-विश्वास को घमण्ड मानते हैं। यह गलत है। दोनो मे जमीन आसमान का अन्तर है। आत्म-विश्वास आदमी का गुण है, जो उसे काम रकने का हौसला देता है। घमण्ड दुर्गुण है। वह आदमी को गिराता है।उससे आदमी के सारे गुणों पर पर्दा पड़ जाता है ओर समाज मे सब लोग उसे तिरस्कार की निगाह से देखते है। घमण्ड आदमी का बहुत बड़ा दुश्मन है।
११/सफलता की कुंजी
हमारे धर्म-ग्रन्थ मे एक बड़ा सुन्दर मंत्र इन शब्दों मे मिलता है-"उठो, जागों और जब तक ध्येय की प्राप्ति न हो, प्रयत्न करते रहों।" जीवन मे सफलता की यही कुंजी है। बिना सक्रियता के कुछ नही हो सकता। हाथ पर हाथ रखे बैठे रहे तो क्या मिलेगा? दुनिया उसी को प्यार करती है, उसी को मान देती है, जो मेहनत करता है ओर खरी कमाई करके खाता है। आदमी का काम प्यारा होता है चाम नही।
कुछ लोग बड़ी-बड़ी चीजों के चक्कर मे छोटी-छोटी चीजों की ओर ध्यान नही देते। वे भूल जाते है कि जो छोटी चीजों को नही सॅभाल सकता, वह बड़ी चीजों के योग्य नही बन सकता।
एक बार गांधीजी की एक छोटी-सी पैसिल इधर-उधर हो गयी। उसकी तलाश मे उन्होने दो घटें खर्च किये और जब वह मिल गयी, तब उन्हे चैन पड़ा। वह जानते थे कि छोटी चीजों के प्रति लापरवाही हुई कि फिर बड़ी चीजों के लिए भी आदमी मे वह दुर्गुण आ जाता है।
हमारी सफलता इस बात मे है कि हम सावधान रहकर, जो भी काम हमारे हाथ मे हो, उसे अच्छी तरह पूरा करें। हिमालय की चोटी पर च़ढ़ने के अवसर कम ही आते है, लेकिन हाथ के काम को कुशलता से करने का मौका तो हर घड़ी सामने रहता है।
रूसों संसार का एक महापुरूष हो गया है।उसने लिखा, "जो मनुष्य अपने कर्त्तव्य को अच्छी तरह से करने की शिक्षा पा चुका है, वह मनुष्य से सम्बन्ध रखने वाले सभी कामों को भली-भॉती करेगा। मुझे इसकी चिन्ता नही कि मेरे शिष्य सेवा, धर्म या न्यायलय के लिए बनाए गए है। समाज से सम्बन्ध रखने वाले किसी काम के पहले प्रकृति ने हमें मानव-जीवन से सम्बन्ध रखने वाले काम करने के लिए बनाया है। यही मै अपने शिष्य को सिखाऊँगा। जब उसे यह शिक्षा मिल चुकेगी, तब वह न सिपाही होगा, न पादरी होगा और न वकील ही। वह पहले मनुष्य होगा, फिर और कुछ।"
कुछ लोग जीवन की सफलता पैसे ऑंकते है। जिसने अधिक कमाई कर ली, उसके लिए माना जाता है कि वह जिन्दगी मे सफल रहा। पर धन सफलता की असली कसौटी नही है। धन साधन है, जीवन का साध्य नही हो सकता। यदि पैसा ही सबकुछ होता तो बुद्ध, महावीर, गांधीजी आदि महापुरूष क्यों गरीबी का जीवन अपनातें? बुद्ध और महावीर तो राजा के बेटे थे, राज्य के अधिकारी थे, लेकिन उन्होने राज-पाट के वैभव से मुँह मोड़कर उस रास्ते को अपनाया, जिससे ढाई हज़ार वर्ष बाद आज भी वे जीवित है और जब तक मानव-जाति है, आगे भी जीवित रहेगें। गांधीजी को कौन-सी कमी थी? लेकिन उन्होने सादगी का जीवन अपनाया। आज सारी दुनिया उन्हे प्यार करती है। उनका मान करती है।
आदमी को निराशा तभी होती है, जब वह आशा रखता है। जो काम वह करता है, उसके फल मे उसकी आसक्ति रहती है। गीता बताती है-"काम करों, पर फल की इच्छा मत रक्खों।" मेहनत कभी अकारथ नही जाती। फलों के पेड़ों पर फल आते ही है। लेकिन फलों पर हमारी इतनी निगाह रहती है कि पेड लगाने के आनन्द को हम अनुभव नही करते। अच्छी तरह से काम करने का अपना निराला ही उल्लास होता है।
कुछ लोग कहते है, यह भी कोई जिन्दगी है कि हर घड़ी काम करते रहों। बहुत दिन जीने के लिए आराम बड़ा जरूरी है। ऐसा कहने मे एक बुनियादी दोष है। हर घड़ी काम करने का मतलब यह नही है कि आदमी कभी आरम ही न करे। उसका मतलब है, आदमी कर्मठ रहे, आलस न करें। सच बात यह है कि निष्क्रिय जीवन से बढ़कर दूसरा अभिशाप नही है। जो लोग क्रियाशील रहते है, वे काम करने का सन्तोष पाते है और अपनी प्रसन्नता से धरती का बोझ हल्का करते है। इसके विपरीत जो काम से बचते है,वे स्वयं तो परेशान होते ही है, समाज मे भी बडा दूषित वायुमण्डल पैदा करते है। कर्ममय जीवन दूसरो पर अच्छा असर डालता है, आलसी दूसरे को आलसी बनाता है।
बचपन मे अंग्रेजी की एक बड़ी सुन्दर कविता पढ़ी थी। कवि कहता है, "उठो, दिन बीता जा रहा है और तुम सपने लेते हुए पड़े हुए हो! दूसरे लोगो ने अपने कवच धारण कर लिए हैऔर रणभूमि मे चले गये है।। सेना की पंक्ति मे एक खाली जगह है, जो तुम्हारी राह देख रही है। हर आदमी का अपना कार्य करना होता है।"
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, उसके कर्त्तव्य बढ़ते जाते है। वह जितनी खूबी से उनका पालन करता है, उतना ही वह अच्छा नागरिक बनता है और समाज को सुखी बनाता है।
हर आदमी के लिए ऊँचाई पर स्थान है, लेकिन वहॉँ पहँचता वही है, जिसके अन्तर मे आत्म-विश्वास होता है, हाथ-पैरों मे ताकत होती है, निगाह मे ऊँचाई होती है ओर हृदय में सबके लिए प्रेम और सहानुभूति का सागर उमड़ता रहता है।
ऐसा आदमी जानता है कि उसके ऊपर सदा निर्मल आकाश है। अगर कभी बादल घिर भी आते है तो वे अधिक समय नही टिकते है। अपने लक्ष्य पर आँख रखकर मज़बूती से बढ़े चलना इंसान का सबसे बड़ा कर्त्तव्य है।
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