चमडे उनके आवरण रहे
ऊनों से चले मेरा काम,
वे जीवित हों मांसल बनकर
हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम।
वे द्रोह न करने के स्थल हैं
जो पाले जा सकते सहेतु,
पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं
तो भव-जलनिधि में बनें सेतु।"
"मैं यह तो मान नहीं सकता
सुख-सहज लब्ध यों छूट जायँ,
जीवन का जो संघर्ष चले
वह विफल रहे हम चल जायँ।
काली आँखों की तारा में-
मैं देखूँ अपना चित्र धन्य,
मेरा मानस का मुकुर रहे
प्रतिबिबित तुमसे ही अनन्य।
श्रद्धे यह नव संकल्प नहीं-
चलने का लघु जीवन अमोल,
मैं उसको निश्चय भोग चलूँ
जो सुख चलदल सा रहा डोल
देखा क्या तुमने कभी नहीं
स्वर्गीय सुखों पर प्रलय-नृत्य?
फिर नाश और चिर-निद्रा है
तब इतना क्यों विश्वास सत्य?
यह चिर-प्रशांत-मंगल की
क्यों अभिलाषा इतनी जाग रही?
यह संचित क्यों हो रहा स्नेह
किस पर इतनी हो सानुराग?
यह जीवन का वरदान-मुझे
दे दो रानी-अपना दुलार,
केवल मेरी ही चिता का
तव-चित्त वहन कर रहे भार।
मेरा सुंदर विश्राम बना सृजता
हो मधुमय विश्व एक,
जिसमें बहती हो मधु-धारा
लहरें उठती हों एक-एक।"
"मैंने तो एक बनाया है
चल कर देखो मेरा कुटीर,"
यों कहकर श्रद्धा हाथ पकड
मनु को वहाँ ले चली अधीर।
उस गुफा समीप पुआलों की
छाजन छोटी सी शांति-पुंज,
कोमल लतिकाओं की डालें
मिल सघन बनाती जहाँ कुमज।
थे वातायन भी कटे हुए-
प्राचीर पर्णमय रचित शुभ्र,
आवें क्षण भर तो चल जायँ-
रूक जायँ कहीं न समीर, अभ्र।
उसमें था झूला वेतसी-
लता का सुरूचिपूर्ण,
बिछ रहा धरातल पर चिकना
सुमनों का कोमल सुरभि-चूर्ण।
कितनी मीठी अभिलाषायें
उसमें चुपके से रहीं घूम
कितने मंगल के मधुर गान
उसके कानों को रहे चूम
मनु देख रहे थे चकित नया यह
गृहलक्ष्मी का गृह-विधान
पर कुछ अच्छा-सा नहीं लगा
'यह क्यों'? किसका सुख साभिमान?'
चुप थे पर श्रद्धा ही बोली-
"देखो यह तो बन गया नीड,
पर इसमें कलरव करने को
आकुल न हो रही अभी भीड।
तुम दूर चले जाते हो जब-
तब लेकर तकली, यहाँ बैठ,
मैं उसे फिराती रहती हूँ
अपनी निर्जनता बीच पैठ।
मैं बैठी गाती हूँ तकली के
प्रतिवर्त्तन में स्वर विभोर-
'चल रि तकली धीरे-धीरे
प्रिय गये खेलने को अहेर'।
जीवन का कोमल तंतु बढे
तेरी ही मंजुलता समान,
चिर-नग्न प्राण उनमें लिपटे
सुंदरता का कुछ बढे मान।
किरनों-सि तू बुन दे उज्ज्वल
मेरे मधु-जीवन का प्रभात,
जिसमें निर्वसना प्रकृति सरल ढँक
ले प्रकाश से नवल गात।
वासना भरी उन आँखों पर
आवरण डाल दे कांतिमान,
जिसमें सौंदर्य निखर आवे
लतिका में फुल्ल-कुसुम-समान।
अब वह आगंतुक गुफा बीच
पशु सा न रहे निर्वसन-नग्न,
अपने अभाव की जडता में वह
रह न सकेगा कभी मग्न।
सूना रहेगा मेरा यह लघु-
विश्व कभी जब रहोगे न,
मैं उसके लिये बिछाऊँगा
फूलों के रस का मृदुल फे।
झूले पर उसे झुलाऊँगी
दुलरा कर लूँगी बदन चूम,
मेरी छाती से लिपटा इस
घाटी में लेगा सहज घूम।
वह आवेगा मृदु मलयज-सा
लहराता अपने मसृण बाल,
उसके अधरों से फैलेगी
नव मधुमय स्मिति-लतिका-प्रवाल।
अपनी मीठी रसना से वह
बोलेगा ऐसे मधुर बोल,
मेरी पीडा पर छिडकेगी जो
कुसुम-धूलि मकरंद घोल।
मेरी आँखों का सब पानी
तब बन जायेगा अमृत स्निग्ध
उन निर्विकार नयनों में जब
देखूँगी अपना चित्र मुग्ध"
"तुम फूल उठोगी लतिका सी
कंपित कर सुख सौरभ तरंग,
मैं सुरभि खोजता भटकूँगा
वन-वन बन कस्तूरी कुरंग।
यह जलन नहीं सह सकता मैं
चाहिये मुझे मेरा ममत्व,
इस पंचभूत की रचना में मैं
रमण करूँ बन एक तत्त्व।
यह द्वैत, अरे यह विधातो है
प्रेम बाँटने का प्रकार
भिक्षुक मैं ना, यह कभी नहीं-
मैं लोटा लूँगा निज विचार।
तुम दानशीलता से अपनी बन
सजल जलद बितरो न विदु।
इस सुख-नभ में मैं विचरूँगा
बन सकल कलाधर शरद-इंदु।
भूले कभी निहारोगी कर
आकर्षणमय हास एक,
मायाविनि मैं न उसे लूँगा
वरदान समझ कर-जानु टेक
इस दीन अनुग्रह का मुझ पर
तुम बोझ डालने में समर्थ-
अपने को मत समझो श्रद्धे
होगा प्रयास यह सदा व्यर्थ।
तुम अपने सुख से सुखी रहो
मुझको दुख पाने दो स्वतंत्र,
' मन की परवशता महा-दुख'
मैं यही जपूँगा महामंत्र
लो चला आज मैं छोड यहीं
संचित संवेदन-भार-पुंज,
मुझको काँटे ही मिलें धन्य
हो सफल तुम्हें ही कुसुम-कुंज।"
कह, ज्वलनशील अंतर लेकर मनु
चले गये, था शून्य प्रांत,
"रूक जा, सुन ले ओ निर्मोही"
वह कहती रही अधीर श्रांत।
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