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रविवार, 17 जुलाई 2011

अध्यात्म फल { सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" }

जब कड़ी मारें पड़ीं, दिल हिल गया 
पर न कर चूँ भी, कभी पाया यहाँ; 
मुक्ति की तब युक्ति से मिल खिल गया 
भाव, जिसका चाव है छाया यहाँ। 
खेत में पड़ भाव की जड़ गड़ गयी, 
धीर ने दुख-नीर से सींचा सदा, 
सफलता की थी लता आशामयी, 
झूलते थे फूल-भावी सम्पदा। 
दीन का तो हीन ही यह वक्त है, 
रंग करता भंग जो सुख-संग का 
भेद कर छेद पाता रक्त है 
राज के सुख-साज-सौरभ-अंग का। 
काल की ही चाल से मुरझा गये 
फूल, हूले शूल जो दुख मूल में 
एक ही फल, किन्तु हम बल पा गये; 
प्राण है वह, त्राण सिन्धु अकूल में। 
मिष्ट है, पर इष्ट उनका है नहीं 
शिष्ट पर न अभीष्ट जिनका नेक है, 
स्वाद का अपवाद कर भरते मही, 
पर सरस वह नीति - रस का एक है। 

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