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रविवार, 17 जुलाई 2011

अन्त { महादेवी वर्मा }

विश्व-जीवन के उपसंहार!
तू जीवन में छिपा, वेणु में ज्यों ज्वाला का वास,
तुझ में मिल जाना ही है जीवन का चरम विकास,
पतझड़ बन जग में कर जाता
नव वसंत संचार!
मधु में भीने फूल प्राण में भर मदिरा सी चाह,
देख रहे अविराम तुम्हारे हिमअधरों की राह,
मुरझाने को मिस देते तुम
नव शैशव उपहार!
कलियों में सुरभित कर अपने मृदु आँसू अवदात,
तेरे मिलन-पंथ में गिन गिन पग रखती है रात,
नवछबि पाने हो जाती मिट
तुझ में एकाकार!
क्षीण शिखा से तम में लिख बीती घड़ियों के नाम,
तेरे पथ में स्वर्णरेणु फैलाता दीप ललाम,
उज्ज्वलतम होता तुझसे ले
मिटने का अधिकार।
घुलनेवाले मेघ अमर जिनकी कण कण में प्यास,
जो स्मृति में है अमिट वही मिटनेवाला मधुमास—
तुझ बिन हो जाता जीवन का
सारा काव्य असार!
इस अनन्त पथ में संसृति की सांसें करतीं लास,
जाती हैं असीम होने मिट कर असीम के पास,
कौन हमें पहुँचाता तुझ बिन
अन्तहीन के पार?
चिर यौवन पा सुषमा होती प्रतिमा सी अम्लान,
चाह चाह थक थक कर हो जाते प्रस्तर से प्राण,
सपना होता विश्व हासमय
आँसूमय सुकुमार!

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