समस्त रचनाकारों को मेरा शत शत नमन .....

मंगलवार, 31 मई 2011

एक धोखा खाए हुए आशिक की स्थिती

सनम तेरे प्यार में हम बेवफा हो जायेंगे
सनम तेरे प्यार में हम बेवफा हो जायेंगे
तेरे खातिर जीते है हम, तु कहे तो मर जायेंगे!!
तेरी एक पल की नजर कर दे मुझको घायल 
तेरी बजे जो पायल ,तो बन जाऊ मै शायर !
शायरी में भी  तु ही मिले, निकले दिल के अरमान !!
प्यार करू मै तुझसे
 बेवफाई न हो मुझसे !
प्रीत किया था हमने तुझसे 
प्रेम रूपी कोई ई - मेल नहीं !
प्रेम का मतलब तु क्या जाने 
ये कोई ढाई अक्षर का खेल नहीं !!
हमने तो निभाया अपना फर्ज 
    तुने बेदर्द बना दिया 
दिल के इस नाजुक रिश्ते को 
तुने कुछ पल में भुला दिया !!
सनम तेरे प्यार में हम बेवफा हो जायेंगे
तेरे खातिर जीते है हम, तु कहे तो मर जायेंगे!!
Mani Bhushan Singh





रविवार, 29 मई 2011

झिलमिल तारे {सुभद्राकुमारी चौहान}


कर रहे प्रतीक्षा किसकी हैं
झिलमिल-झिलमिल तारे?
धीमे प्रकाश में कैसे तुम
चमक रहे मन मारे।।

अपलक आँखों से कह दो
किस ओर निहारा करते?
किस प्रेयसि पर तुम अपनी
मुक्तावलि वारा करते?

करते हो अमिट प्रतीक्षा,
तुम कभी न विचलित होते।
नीरव रजनी अंचल में
तुम कभी न छिप कर सोते।।

जब निशा प्रिया से मिलने,
दिनकर निवेश में जाते।
नभ के सूने आँगन में
तुम धीरे-धीरे आते।।

विधुरा से कह दो मन की,
लज्जा की जाली खोलो।
क्या तुम भी विरह विकल हो,
हे तारे कुछ तो बोलो।

मैं भी वियोगिनी मुझसे
फिर कैसी लज्जा प्यारे?
कह दो अपनी बीती को
हे झिलमिल-झिलमिल तारे!

कलह-कारण {सुभद्राकुमारी चौहान}


कड़ी आराधना करके बुलाया था उन्हें मैंने।
पदों को पूजने के ही लिए थी साधना मेरी॥
तपस्या नेम व्रत करके रिझाया था उन्हें मैंने।
पधारे देव, पूरी हो गई आराधना मेरी॥

उन्हें सहसा निहारा सामने, संकोच हो आया।
मुँदीं आँखें सहज ही लाज से नीचे झुकी थी मैं॥
कहूँ क्या प्राणधन से यह हृदय में सोच हो आया।
वही कुछ बोल दें पहले, प्रतीक्षा में रुकी थी मैं॥

अचानक ध्यान पूजा का हुआ, झट आँख जो खोली।
नहीं देखा उन्हें, बस सामने सूनी कुटी दीखी॥
हृदयधन चल दिए, मैं लाज से उनसे नहीं बोली।
गया सर्वस्व, अपने आपको दूनी लुटी दीखी॥

खिलौनेवाला {सुभद्राकुमारी चौहान}


वह देखो माँ आज
खिलौनेवाला फिर से आया है।
कई तरह के सुंदर-सुंदर
नए खिलौने लाया है।

हरा-हरा तोता पिंजड़े में
गेंद एक पैसे वाली
छोटी सी मोटर गाड़ी है
सर-सर-सर चलने वाली।

सीटी भी है कई तरह की
कई तरह के सुंदर खेल
चाभी भर देने से भक-भक
करती चलने वाली रेल।

गुड़िया भी है बहुत भली-सी
पहने कानों में बाली
छोटा-सा 'टी सेट' है
छोटे-छोटे हैं लोटा थाली।

छोटे-छोटे धनुष-बाण हैं
हैं छोटी-छोटी तलवार
नए खिलौने ले लो भैया
ज़ोर-ज़ोर वह रहा पुकार।

मुन्‍नू ने गुड़िया ले ली है
मोहन ने मोटर गाड़ी
मचल-मचल सरला करती है
माँ ने लेने को साड़ी

कभी खिलौनेवाला भी माँ
क्‍या साड़ी ले आता है।
साड़ी तो वह कपड़े वाला
कभी-कभी दे जाता है

अम्‍मा तुमने तो लाकर के
मुझे दे दिए पैसे चार
कौन खिलौने लेता हूँ मैं
तुम भी मन में करो विचार।

तुम सोचोगी मैं ले लूँगा।
तोता, बिल्‍ली, मोटर, रेल
पर माँ, यह मैं कभी न लूँगा
ये तो हैं बच्‍चों के खेल।

मैं तो तलवार खरीदूँगा माँ
या मैं लूँगा तीर-कमान
जंगल में जा, किसी ताड़का
को मारुँगा राम समान।

तपसी यज्ञ करेंगे, असुरों-
को मैं मार भगाऊँगा
यों ही कुछ दिन करते-करते
रामचंद्र मैं बन जाऊँगा।

यही रहूँगा कौशल्‍या मैं
तुमको यही बनाऊँगा।
तुम कह दोगी वन जाने को
हँसते-हँसते जाऊँगा।

पर माँ, बिना तुम्‍हारे वन में
मैं कैसे रह पाऊँगा।
दिन भर घूमूँगा जंगल में
लौट कहाँ पर आऊँगा।

किससे लूँगा पैसे, रूठूँगा
तो कौन मना लेगा
कौन प्‍यार से बिठा गोद में
मनचाही चींजे़ देगा।

नीम {सुभद्राकुमारी चौहान}


सब दुखहरन सुखकर परम हे नीम! जब देखूँ तुझे।
तुहि जानकर अति लाभकारी हर्ष होता है मुझे॥
ये लहलही पत्तियाँ हरी, शीतल पवन बरसा रहीं।
निज मंद मीठी वायु से सब जीव को हरषा रहीं॥
हे नीम! यद्यपि तू कड़ू, नहिं रंच-मात्र मिठास है।
उपकार करना दूसरों का, गुण तिहारे पास है॥
नहिं रंच-मात्र सुवास है, नहिं फूलती सुंदर कली।
कड़ुवे फलों अरु फूल में तू सर्वदा फूली-फली॥
तू सर्वगुणसंपन्न है, तू जीव-हितकारी बड़ी।
तू दु:खहारी है प्रिये! तू लाभकारी है बड़ी॥
है कौन ऐसा घर यहाँ जहाँ काम तेरा नहिं पड़ा।
ये जन तिहारे ही शरण हे नीम! आते हैं सदा॥
तेरी कृपा से सुख सहित आनंद पाते सर्वदा॥
तू रोगमुक्त अनेक जन को सर्वदा करती रहै।
इस भांति से उपकार तू हर एक का करती रहै॥
प्रार्थना हरि से करूँ, हिय में सदा यह आस हो।
जब तक रहें नभ, चंद्र-तारे सूर्य का परकास हो॥
तब तक हमारे देश में तुम सर्वदा फूला करो।
निज वायु शीतल से पथिक-जन का हृदय शीतल करो॥

(यह सुभद्रा जी की पहली कविता है जो 1913 में "मर्यादा" नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। तब वे मात्र 9 साल की थीं। )

मधुमय प्याली {सुभद्राकुमारी चौहान}


रीती होती जाती थी
जीवन की मधुमय प्याली।
फीकी पड़ती जाती थी
मेरे यौवन की लाली।।

हँस-हँस कर यहाँ निराशा
थी अपने खेल दिखाती।
धुंधली रेखा आशा की
पैरों से मसल मिटाती।।

युग-युग-सी बीत रही थीं
मेरे जीवन की घड़ियाँ।
सुलझाये नहीं सुलझती
उलझे भावों की लड़ियाँ।

जाने इस समय कहाँ से
ये चुपके-चुपके आए।
सब रोम-रोम में मेरे
ये बन कर प्राण समाए।

मैं उन्हें भूलने जाती
ये पलकों में छिपे रहते।
मैं दूर भागती उनसे
ये छाया बन कर रहते।

विधु के प्रकाश में जैसे
तारावलियाँ घुल जातीं।
वालारुण की आभा से
अगणित कलियाँ खुल जातीं।।

आओ हम उसी तरह से
सब भेद भूल कर अपना।
मिल जाएँ मधु बरसायें
जीवन दो दिन का सपना।।

फिर छलक उठी है मेरे
जीवन की मधुमय प्याली।
आलोक प्राप्त कर उनका
चमकी यौवन की लाली।।

मेरे पथिक {सुभद्राकुमारी चौहान}


हठीले मेरे भोले पथिक!
किधर जाते हो आकस्मात।
अरे क्षण भर रुक जाओ यहाँ,
सोच तो लो आगे की बात॥

यहाँ के घात और प्रतिघात,
तुम्हारा सरस हृदय सुकुमार।
सहेगा कैसे? बोलो पथिक!
सदा जिसने पाया है प्यार॥

जहाँ पद-पद पर बाधा खड़ी,
निराशा का पहिरे परिधान।
लांछना डरवाएगी वहाँ,
हाथ में लेकर कठिन कृपाण॥

चलेगी अपवादों की लूह,
झुलस जावेगा कोमल गात।
विकलता के पलने में झूल,
बिताओगे आँखों में रात॥

विदा होगी जीवन की शांति,
मिलेगी चिर-सहचरी अशांति।
भूल मत जाओ मेरे पथिक,
भुलावा देती तुमको भ्रांति॥

स्वदेश के प्रति {सुभद्राकुमारी चौहान}


आ, स्वतंत्र प्यारे स्वदेश आ,
स्वागत करती हूँ तेरा।
तुझे देखकर आज हो रहा,
दूना प्रमुदित मन मेरा॥

आ, उस बालक के समान
जो है गुरुता का अधिकारी।
आ, उस युवक-वीर सा जिसको
विपदाएं ही हैं प्यारी॥

आ, उस सेवक के समान तू
विनय-शील अनुगामी सा।
अथवा आ तू युद्ध-क्षेत्र में
कीर्ति-ध्वजा का स्वामी सा॥

आशा की सूखी लतिकाएं
तुझको पा, फिर लहराईं।
अत्याचारी की कृतियों को
निर्भयता से दरसाईं॥

विजयी मयूर {सुभद्राकुमारी चौहान}


तू गरजा, गरज भयंकर थी,
कुछ नहीं सुनाई देता था।
घनघोर घटाएं काली थीं,
पथ नहीं दिखाई देता था॥

तूने पुकार की जोरों की,
वह चमका, गुस्से में आया।
तेरी आहों के बदले में,
उसने पत्थर-दल बरसाया॥

तेरा पुकारना नहीं रुका,
तू डरा न उसकी मारों से।
आखिर को पत्थर पिघल गए,
आहों से और पुकारों से॥

तू धन्य हुआ, हम सुखी हुए,
सुंदर नीला आकाश मिला।
चंद्रमा चाँदनी सहित मिला,
सूरज भी मिला, प्रकाश मिला॥

विजयी मयूर जब कूक उठे,
घन स्वयं आत्मदानी होंगे।
उपहार बनेंगे वे प्रहार,
पत्थर पानी-पानी होंगे॥

मेरा नया बचपन {सुभद्राकुमारी चौहान}


बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥

चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?

ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥

किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥

रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥

मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥

दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥

वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥

लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥

दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥

मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥

सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥

माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥

किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥

आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥

वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥

'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥

पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥

मैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँ, काओ'।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'॥

पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥

मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥

जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥

बिदाई {सुभद्राकुमारी चौहान}


कृष्ण-मंदिर में प्यारे बंधु
पधारो निर्भयता के साथ।
तुम्हारे मस्तक पर हो सदा
कृष्ण का वह शुभचिंतक हाथ॥

तुम्हारी दृढ़ता से जग पड़े
देश का सोया हुआ समाज।
तुम्हारी भव्य मूर्ति से मिले
शक्ति वह विकट त्याग की आज॥

तुम्हारे दुख की घड़ियाँ बनें
दिलाने वाली हमें स्वराज्य।
हमारे हृदय बनें बलवान
तुम्हारी त्याग मूर्ति में आज॥

तुम्हारे देश-बंधु यदि कभी
डरें, कायर हो पीछे हटें,
बंधु! दो बहनों को वरदान
युद्ध में वे निर्भय मर मिटें॥

हजारों हृदय बिदा दे रहे,
उन्हें संदेशा दो बस एक।
कटें तीसों करोड़ ये शीश,
न तजना तुम स्वराज्य की टेक॥

चिंता {सुभद्राकुमारी चौहान}

लगे आने, हृदय धन से
कहा मैंने कि मत आओ।
कहीं हो प्रेम में पागल
न पथ में ही मचल जाओ॥

कठिन है मार्ग, मुझको
मंजिलें वे पार करनीं हैं।
उमंगों की तरंगें बढ़ पड़ें
शायद फिसल जाओ॥

तुम्हें कुछ चोट आ जाए
कहीं लाचार लौटूँ मैं।
हठीले प्यार से व्रत-भंग
की घड़ियाँ निकट लाओ॥

शुक्रवार, 20 मई 2011

जिंदगी एक जंग है !!

जिंदगी एक जंग है !
जंग में लड़ना कर्म है
कर्म से क्यूँ पीछे मुड़े
जब लगे
जिंदगी एक सतरंज है !
कोशिश करके हार जायंगे
फिर भी हमें संभलना है
जिंदगी रूपी इस संग्राम को हमें
हर हाल में जितना है !
कामयाबी
तो मिलेगी
कोशिश अगर करे हम
बार -बार राह भटक
कर भी राह की
खोज में चले हम !
कमियां जब खुद में हो तो दोस
क्यों दे दुसरो को
है तो हम इंसान ही
कोई भगवान् नहीं
गलती तो हर इन्सान की
फिदरत है !
वह कोई भगवान नहीं !
जिंदगी एक जंग है !!!!!!
Mani Bhushan Singh

बुधवार, 18 मई 2011

माँ कह एक कहानी {मैथिलीशरण गुप्त}

माँ कह एक कहानी।"
बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?"
"कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी
कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी?
माँ कह एक कहानी।"


"तू है हठी, मानधन मेरे, सुन उपवन में बड़े सवेरे,
तात भ्रमण करते थे तेरे, जहाँ सुरभी मनमानी।"
"जहाँ सुरभी मनमानी! हाँ माँ यही कहानी।"

वर्ण वर्ण के फूल खिले थे, झलमल कर हिमबिंदु झिले थे,
हलके झोंके हिले मिले थे, लहराता था पानी।"
"लहराता था पानी, हाँ हाँ यही कहानी।"

"गाते थे खग कल कल स्वर से, सहसा एक हँस ऊपर से,
गिरा बिद्ध होकर खर शर से, हुई पक्षी की हानी।"
"हुई पक्षी की हानी? करुणा भरी कहानी!"

चौंक उन्होंने उसे उठाया, नया जन्म सा उसने पाया,
इतने में आखेटक आया, लक्ष सिद्धि का मानी।"
"लक्ष सिद्धि का मानी! कोमल कठिन कहानी।"

"माँगा उसने आहत पक्षी, तेरे तात किन्तु थे रक्षी,
तब उसने जो था खगभक्षी, हठ करने की ठानी।"
"हठ करने की ठानी! अब बढ़ चली कहानी।"

हुआ विवाद सदय निर्दय में, उभय आग्रही थे स्वविषय में,
गयी बात तब न्यायालय में, सुनी सब ने जानी।"
"सुनी सब ने जानी! व्यापक हुई कहानी।"

राहुल तू निर्णय कर इसका, न्याय पक्ष लेता है किसका?"
"माँ मेरी क्या बानी? मैं सुन रहा कहानी।
कोई निरपराध को मारे तो क्यों न उसे उबारे?
रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी।"

"न्याय दया का दानी! तूने गुणी कहानी।"

दोनों ओर प्रेम पलता है {मैथिलीशरण गुप्त}

दोनों ओर प्रेम पलता है।

सखि, पतंग भी जलता है हा! दीपक भी जलता है!

सीस हिलाकर दीपक कहता--
’बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’
पर पतंग पड़ कर ही रहता

कितनी विह्वलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।

बचकर हाय! पतंग मरे क्या?
प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या?
जले नही तो मरा करे क्या?

क्या यह असफलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।

कहता है पतंग मन मारे--
’तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे,
क्या न मरण भी हाथ हमारे?

शरण किसे छलता है?’
दोनों ओर प्रेम पलता है।

दीपक के जलनें में आली,
फिर भी है जीवन की लाली।
किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली,

किसका वश चलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है।

जगती वणिग्वृत्ति है रखती,
उसे चाहती जिससे चखती;
काम नहीं, परिणाम निरखती।

मुझको ही खलता है।
दोनों ओर प्रेम पलता है।

चारु चंद्र की चंचल किरणें {मैथिलीशरण गुप्त}

चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,

स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।

पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,

मानों झीम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥


पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,

जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर वीर निर्भीकमना,

जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है?

भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥


किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये,

राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये।

बना हुआ है प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या धन है,

जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है, मन है, जीवन है!


मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने, स्वामि-संग जो आई है,

तीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है।

वीर-वंश की लाज यही है, फिर क्यों वीर न हो प्रहरी,

विजन देश है निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी॥


कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;

आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।

बीच-बीच मे इधर-उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी,

मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नई नई-


क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;

है स्वच्छन्द-सुमंद गंधवह, निरानंद है कौन दिशा?

बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,

पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप!


है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,

रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।

और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,

शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है।


सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,

अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!

अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,

पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥


तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात,

वन को आते देख हमें जब, आर्त्त अचेत हुए थे तात।

अब वह समय निकट ही है जब, अवधि पूर्ण होगी वन की।

किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की!


और आर्य को, राज्य-भार तो, वे प्रजार्थ ही धारेंगे,

व्यस्त रहेंगे, हम सब को भी, मानो विवश विसारेंगे।

कर विचार लोकोपकार का, हमें न इससे होगा शोक;

पर अपना हित आप नहीं क्या, कर सकता है यह नरलोक!

प्रतिशोध {मैथिलीशरण गुप्त}

किसी जन ने किसी से क्लेश पाया
नबी के पास वह अभियोग लाया।
मुझे आज्ञा मिले प्रतिशोध लूँ मैं।
नही निःशक्त वा निर्बोध हूँ मैं।
उन्होंने शांत कर उसको कहा यों
स्वजन मेरे न आतुर हो अहा यों।
चले भी तो कहाँ तुम वैर लेने
स्वयं भी घात पाकर घात देने
क्षमा कर दो उसे मैं तो कहूँगा
तुम्हारे शील का साक्षी रहूंगा
दिखावो बंधु क्रम-विक्रम नया तुम
यहाँ देकर वहाँ पाओ दया तुम।


मुझे फूल मत मारो {मैथिलीशरण गुप्त}

मुझे फूल मत मारो,

मैं अबला बाला वियोगिनी, कुछ तो दया विचारो।
होकर मधु के मीत मदन, पटु, तुम कटु गरल न गारो,
मुझे विकलता, तुम्हें विफलता, ठहरो, श्रम परिहारो।
नही भोगनी यह मैं कोई, जो तुम जाल पसारो,
बल हो तो सिन्दूर-बिन्दु यह--यह हरनेत्र निहारो!
रूप-दर्प कंदर्प, तुम्हें तो मेरे पति पर वारो,
लो, यह मेरी चरण-धूलि उस रति के सिर पर धारो!


मातृभूमि {मैथिलीशरण गुप्त}

नीलांबर परिधान हरित तट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है॥
नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं।
बंदीजन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है॥

करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की।
हे मातृभूमि! तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की॥

जिसके रज में लोट-लोट कर बड़े हुये हैं।
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुये हैं॥
परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये।
जिसके कारण धूल भरे हीरे कहलाये॥

हम खेले-कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में।
हे मातृभूमि! तुझको निरख, मग्न क्यों न हों मोद में?

पा कर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा।
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?
तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है।
बस तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है॥

फिर अन्त समय तू ही इसे अचल देख अपनायेगी।
हे मातृभूमि! यह अन्त में तुझमें ही मिल जायेगी॥

निर्मल तेरा नीर अमृत के से उत्तम है।
शीतल मंद सुगंध पवन हर लेता श्रम है॥
षट्ऋतुओं का विविध दृश्ययुत अद्भुत क्रम है।
हरियाली का फर्श नहीं मखमल से कम है॥

शुचि-सुधा सींचता रात में, तुझ पर चन्द्रप्रकाश है।
हे मातृभूमि! दिन में तरणि, करता तम का नाश है॥

सुरभित, सुन्दर, सुखद, सुमन तुझ पर खिलते हैं।
भाँति-भाँति के सरस, सुधोपम फल मिलते है॥
औषधियाँ हैं प्राप्त एक से एक निराली।
खानें शोभित कहीं धातु वर रत्नों वाली॥

जो आवश्यक होते हमें, मिलते सभी पदार्थ हैं।
हे मातृभूमि! वसुधा, धरा, तेरे नाम यथार्थ हैं॥

क्षमामयी, तू दयामयी है, क्षेममयी है।
सुधामयी, वात्सल्यमयी, तू प्रेममयी है॥
विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुःखहर्त्री है।
भय निवारिणी, शान्तिकारिणी, सुखकर्त्री है॥

हे शरणदायिनी देवि, तू करती सब का त्राण है।
हे मातृभूमि! सन्तान हम, तू जननी, तू प्राण है॥

जिस पृथ्वी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे।
उससे हे भगवान! कभी हम रहें न न्यारे॥
लोट-लोट कर वहीं हृदय को शान्त करेंगे।
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे॥

उस मातृभूमि की धूल में, जब पूरे सन जायेंगे।
होकर भव-बन्धन- मुक्त हम, आत्म रूप बन जायेंगे॥


किसान {मैथिलीशरण गुप्त}

हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है
पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है
हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ
आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है कांपना हेमंत में

बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा
है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा
देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे

घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा
तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं

बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है
है शीत कैसा पड़ रहा, औ’ थरथराता गात है
तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते

सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है
है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है
मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है
शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है


अर्जुन की प्रतिज्ञा {मैथिलीशरण गुप्त}

उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उसका लगा,
मानों हवा के वेग से सोता हुआ सागर जगा ।
मुख-बाल-रवि-सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ,
प्रलयार्थ उनके मिस वहाँ क्या काल ही क्रोधित हुआ ?

युग-नेत्र उनके जो अभी थे पूर्ण जल की धार-से,
अब रोश के मारे हुए, वे दहकते अंगार-से ।
निश्चय अरुणिमा-मिस अनल की जल उठी वह ज्वाल ही,
तब तो दृगों का जल गया शोकाश्रु जल तत्काल ही ।

साक्षी रहे संसार करता हूँ प्रतिज्ञा पार्थ मैं,
पूरा करूँगा कार्य सब कथानुसार यथार्थ मैं ।
जो एक बालक को कपट से मार हँसते हैँ अभी,
वे शत्रु सत्वर शोक-सागर-मग्न दीखेंगे सभी ।

अभिमन्यु-धन के निधन से कारण हुआ जो मूल है,
इससे हमारे हत हृदय को, हो रहा जो शूल है,
उस खल जयद्रथ को जगत में मृत्यु ही अब सार है,
उन्मुक्त बस उसके लिये रौख नरक का द्वार है ।

उपयुक्त उस खल को न यद्यपि मृत्यु का भी दंड है,
पर मृत्यु से बढ़कर न जग में दण्ड और प्रचंड है ।
अतएव कल उस नीच को रण-मघ्य जो मारूँ न मैं,
तो सत्य कहता हूँ कभी शस्त्रास्त्र फिर धारूँ न मैं ।

अथवा अधिक कहना वृथा है, पार्थ का प्रण है यही,
साक्षी रहे सुन ये बचन रवि, शशि, अनल, अंबर, मही ।
सूर्यास्त से पहले न जो मैं कल जयद्रथ-वधकरूँ,
तो शपथ करता हूँ स्वयं मैं ही अनल में जल मरूँ ।


नहुष का पतन {मैथिलीशरण गुप्त}

मत्त-सा नहुष चला बैठ ऋषियान में
व्याकुल से देव चले साथ में, विमान में
पिछड़े तो वाहक विशेषता से भार की
अरोही अधीर हुआ प्रेरणा से मार की
दिखता है मुझे तो कठिन मार्ग कटना
अगर ये बढ़ना है तो कहूँ मैं किसे हटना?
बस क्या यही है बस बैठ विधियाँ गढ़ो?
अश्व से अडो ना अरे, कुछ तो बढ़ो, कुछ तो बढ़ो
बार बार कन्धे फेरने को ऋषि अटके
आतुर हो राजा ने सरौष पैर पटके
क्षिप्त पद हाय! एक ऋषि को जा लगा
सातों ऋषियों में महा क्षोभानल आ जगा
भार बहे, बातें सुने, लातें भी सहे क्या हम
तु ही कह क्रूर, मौन अब भी रहें क्या हम
पैर था या सांप यह, डस गया संग ही
पमर पतित हो तु होकर भुंजग ही
राजा हतेज हुआ शाप सुनते ही काँप
मानो डस गया हो उसे जैसे पिना साँप
श्वास टुटने-सी मुख-मुद्रा हुई विकला
"हा ! ये हुआ क्या?" यही व्यग्र वाक्य निकला
जड़-सा सचिन्त वह नीचा सर करके
पालकी का नाल डूबते का तृण धरके
शून्य-पट-चित्र धुलता हुआ सा दृष्टि से
देखा फिर उसने समक्ष शून्य दृष्टि से
दीख पड़ा उसको न जाने क्या समीप सा
चौंका एक साथ वह बुझता प्रदीप-सा -
“संकट तो संकट, परन्तु यह भय क्या ?
दूसरा सृजन नहीं मेरा एक लय क्या ?”
सँभला अद्मय मानी वह खींचकर ढीले अंग -
“कुछ नहीं स्वप्न था सो हो गया भला ही भंग.
कठिन कठोर सत्य तो भी शिरोधार्य है
शांत हो महर्षि मुझे, सांप अंगीकार्य है"
दुख में भी राजा मुसकराया पूर्व दर्प से
मानते हो तुम अपने को डसा सर्प से
होते ही परन्तु पद स्पर्श भुल चुक से
मैं भी क्या डसा नहीं गया हुँ दन्डशूक से
मानता हुँ भुल हुई, खेद मुझे इसका
सौंपे वही कार्य, उसे धार्य हो जो जिसका
स्वर्ग से पतन, किन्तु गोत्रीणी की गोद में
और जिस जोन में जो, सो उसी में मोद में
काल गतिशील मुझे लेके नहीं बेठैगा
किन्तु उस जीवन में विष घुस पैठेगा
फिर भी खोजने का कुछ रास्ता तो उठायेगें
विष में भी अमर्त छुपा वे कृति पायेगें
मानता हुँ भुल गया नारद का कहना
दैत्यों से बचाये भोग धाम रहना
आप घुसा असुर हाय मेरे ही ह्रदय में
मानता हुँ आप लज्जा पाप अविनय में
मानता हुँ आड ही ली मेने स्वाधिकार की
मुल में तो प्रेरणा थी काम के विकार की
माँगता हुँ आज में शची से भी खुली क्षमा
विधि से बहिर्गता में भी साधवी वह ज्यों रमा
मानता हुँ और सब हार नहीं मानता
अपनी अगाति आज भी मैं जानता
आज मेरा भुकत्योजित हो गया है स्वर्ग भी
लेके दिखा दूँगा कल मैं ही अपवर्ग भी
तन जिसका हो मन और आत्मा मेरा है
चिन्ता नहीं बाहर उजेला या अँधेरा है
चलना मुझे है बस अंत तक चलना
गिरना ही मुख्य नहीं, मुख्य है सँभलना
गिरना क्या उसका उठा ही नहीं जो कभी
मैं ही तो उठा था आप गिरता हुँ जो अभी
फिर भी ऊठूँगा और बढ़के रहुँगा मैं
नर हूँ, पुरुष हूँ, चढ़ के रहुँगा मैं
चाहे जहाँ मेरे उठने के लिये ठौर है
किन्तु लिया भार आज मेने कुछ और है
उठना मुझे ही नहीं बस एक मात्र रीते हाथ
मेरा देवता भी और ऊंचा उठे मेरे साथ


सोमवार, 16 मई 2011

समस्त हिंदी प्रेमियो का स्वागत है |

यह एक सुखद संयोग है कि हिंदी भाषा ने अपने आपको देश और काल के अनुरूप बदला है और यह मंच हिंदी प्रेमियों लिए इसी बदलाव की देन है |

हिंदी महज एक भाषा नहीं होकर बल्कि हमारी मात्रभाषा है! जिसका सम्पूर्ण विश्व में एक अलग ही स्थान है इस भाषा ने मानव समाज को कई रत्न दिए है जिसके फलस्वरुप मानव जाति का कल्याण हुआ है| हिंदी अत्याधिक सरल , सरस व् सहज भाषा है जो की बोलने व् लिखने में भी सरल है !
इस मंच के माध्यम से हिंदी की कहानिया ,कविता , दोहे व् गीतों का संग्रह करने का प्रयास किया गया है !

यदि इस मंच के माध्यम से किसी भी जिज्ञाशु व्यक्ति को किसी भी प्रकार की कहानी,
कविता व दोहे प्राप्त करने में सहयोग प्राप्त होता है तो हमारा इस मंच के निर्माण का उद्देश्य सार्थक होगा |
धन्यवाद !
Mani Bhushan Singh

छिप छिप अश्रु बहाने वालों

छिप छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ लुटाने वालोंकुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है।

सपना क्या है नयन सेज पर, सोया हुई आँख का पानी

और टूटना है उसका ज्यों, जागे कच्ची नींद जवानी।

गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों

कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है।

माला बिखर गयी तो क्या है, खुद ही हल हो गयी सम्स्या

आँसू गर नीलाम हुए तो, समझो पूरी हुई तपस्या।

रूठे दिवस मनाने वालों, फ़टी कमीज़ सिलाने वालों

कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है।

लाखों बार गगरियाँ फ़ूटी, शिकन न आयी पर पनघट पर

लाखों बार किश्तियाँ डूबीं, चहल पहल वो ही है तट पर।

तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों,

लाख करे पतझड़ कोशिश पर, उपवन नहीं मरा करता है।

लूट लिया माली ने उपवन, लुटी ना लेकिन गंध फ़ूल की

तूफ़ानों ने तक छेड़ा पर,खिड़की बंद ना हुई धूल की।

नफ़रत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालों

कुछ मुखड़ों के की नाराज़ी से, दर्पण नहीं मरा करता है!
{गोपालदास "नीरज" }

अंधियार ढल कर ही रहेगा.[गोपालदास “नीरज”}

आंधियां चाहें उठाओ,
बिजलियां चाहें गिराओ,
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

रोशनी पूंजी नहीं है, जो तिजोरी में समाये,
वह खिलौना भी न, जिसका दाम हर गाहक लगाये,
वह पसीने की हंसी है, वह शहीदों की उमर है,
जो नया सूरज उगाये जब तड़पकर तिलमिलाये,
उग रही लौ को न टोको,
ज्योति के रथ को न रोको,
यह सुबह का दूत हर तम को निगलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

दीप कैसा हो, कहीं हो, सूर्य का अवतार है वह,
धूप में कुछ भी न, तम में किन्तु पहरेदार है वह,
दूर से तो एक ही बस फूंक का वह है तमाशा,
देह से छू जाय तो फिर विप्लवी अंगार है वह,
व्यर्थ है दीवार गढना,
लाख लाख किवाड़ जड़ना,
मृतिका के हांथ में अमरित मचलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

है जवानी तो हवा हर एक घूंघट खोलती है,
टोक दो तो आंधियों की बोलियों में बोलती है,
वह नहीं कानून जाने, वह नहीं प्रतिबन्ध माने,
वह पहाड़ों पर बदलियों सी उछलती डोलती है,
जाल चांदी का लपेटो,
खून का सौदा समेटो,
आदमी हर कैद से बाहर निकलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

वक्त को जिसने नहीं समझा उसे मिटना पड़ा है,
बच गया तलवार से तो फूल से कटना पड़ा है,
क्यों न कितनी ही बड़ी हो, क्यों न कितनी ही कठिन हो,
हर नदी की राह से चट्टान को हटना पड़ा है,
उस सुबह से सन्धि कर लो,
हर किरन की मांग भर लो,
है जगा इन्सान तो मौसम बदलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा|

कारवाँ गुज़र गया {गोपालदास नीरज}

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़ेखड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पातपात झर गये कि शाख़शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क बन गए,
छंद हो दफन गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँधुआँ पहन गये,
और हम झुकेझुके,
मोड़ पर रुकेरुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

क्या शबाब था कि फूलफूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा,
इस तरफ ज़मीन उठी तो आसमान उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कलीकली कि घुट गयी गलीगली,
और हम लुटेलुटे,
वक्त से पिटेपिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखरबिखर,
और हम डरेडरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

माँग भर चली कि एक, जब नई नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरनचरन,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयननयन,
पर तभी ज़हर भरी,
गाज एक वह गिरी,
पुँछ गया सिंदूर तारतार हुई चूनरी,
और हम अजानसे,
दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

शनिवार, 14 मई 2011

प्रेम-पथ हो न सूना{गोपालदास "नीरज"}

प्रेम-पथ हो न सूना कभी इसलिए
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।

क़ब्र-सी मौन धरती पड़ी पाँव परल
शीश पर है कफ़न-सा घिरा आसमाँ,
मौत की राह में, मौत की छाँह में
चल रहा रात-दिन साँस का कारवाँ,

जा रहा हूँ चला, जा रहा हूँ बढ़ा,
पर नहीं ज्ञात है किस जगह हो?
किस जगह पग रुके, किस जगह मगर छुटे
किस जगह शीत हो, किस जगह घाम हो,

मुस्कराए सदा पर धरा इसलिए
जिस जगह मैं झरूँ उस जगह तुम खिलो।

प्रेम-पथ हो नस सूना कभी इसलिए,
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।

प्रेम का पंथ सूना अगर हो गया,
रह सकेगी बसी कौन-सी फिर गली?
यदि खिला प्रेम का ही नहीं फूल तो,
कौन है जो हँसे फिर चमन में कली?

प्रेम को ही न जग में मिला मान तो
यह धरा, यह भुवन सिर्फ़ श्मशान है,
आदमी एक चलती हुई लाश है,
और जीना यहाँ एक अपमान है,

आदमी प्यार सीखे कभी इसलिए
रात-दिन मैं ढलूँ, रात-दिन तुम ढलो।

प्रेम-पथ हो न सूना कभी इसलिए,
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।

एक दिन काल-तम की किसी रात ने
दे दिया था मुझे प्राण का यह दिया,
धार पर यह जला, पार पर यह जला
बार अपना हिया विश्व का तम पिया,

पर चुका जा रहा साँस का स्नेह अब
रोशनी का पथिक चल सकेगा नहीं,
आँधियों के नगर में बिना प्यार के
दीप यह भोर तक जल सकेगा नहीं,

पर चले स्नेह की लौ सदा इसलिए
जिस जगह मैं बुझूँ, उस जगह तुम जलो।

प्रेम-पथ हो न सूना कभी इसलिए
जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो।

रोज़ ही बाग़ में देखता हूँ सुबह,
धूल ने फूल कुछ अधखिले चुन लिए,
रोज़ ही चीख़ता है निशा में गगन-
'क्यों नहीं आज मेरे जले कुछ दीए ?'

इस तरह प्राण! मैं भी यहाँ रोज़ ही,
ढल रहा हूँ किसी बूँद की प्यास में,
जी रहा हूँ धरा पर, मगर लग रहा
कुछ छुपा है कहीं दूर आकाश में,

छिप न पाए कहीं प्यार इसलिए
जिस जगह मैं छिपूँ, उस जगह तुम मिलो।

पिया दूर है न पास है{गोपालदास "नीरज"}

ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।
बढ़ रहा शरीर, आयु घट रही,
चित्र बन रहा लकीर मिट रही,
आ रहा समीप लक्ष्य के पथिक,
राह किन्तु दूर दूर हट रही,
इसलिए सुहागरात के लिए
आँखों में न अश्रु है, न हास है।
ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।

गा रहा सितार, तार रो रहा,
जागती है नींद, विश्व सो रहा,
सूर्य पी रहा समुद्र की उमर,
और चाँद बूँद बूँद हो रहा,
इसलिए सदैव हँस रहा मरण,
इसलिए सदा जनम उदास है।
ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।

बूँद गोद में लिए अंगार है,
होठ पर अंगार के तुषार है,
धूल में सिंदूर फूल का छिपा,
और फूल धूल का सिंगार है,
इसलिए विनाश है सृजन यहाँ
इसलिए सृजन यहाँ विनाश है।
ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।

ध्यर्थ रात है अगर न स्वप्न है,
प्रात धूर, जो न स्वप्न भग्न है,
मृत्यु तो सदा नवीन ज़िन्दगी,
अन्यथा शरीर लाश नग्न है,
इसलिए अकास पर ज़मीन है,
इसलिए ज़मीन पर अकास है।
ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।

दीप अंधकार से निकल रहा,
क्योंकि तम बिना सनेह जल रहा,
जी रही सनेह मृत्यु जी रही,
क्योंकि आदमी अदेह ढल रहा,
इसलिए सदा अजेय धूल है,
इसलिए सदा विजेय श्वास है।
ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।


साँसों के मुसाफिर {गोपालदास "नीरज"}

इसको भी अपनाता चल,
उसको भी अपनाता चल,
राही हैं सब एक डगर के, सब पर प्यार लुटाता चल।

बिना प्यार के चले न कोई, आँधी हो या पानी हो,
नई उमर की चुनरी हो या कमरी फटी पुरानी हो,
तपे प्रेम के लिए, धरिवी, जले प्रेम के लिए दिया,
कौन हृदय है नहीं प्यार की जिसने की दरबानी हो,

तट-तट रास रचाता चल,
पनघट-पनघट गाता चल,
प्यासी है हर गागर दृग का गंगाजल छलकाता चल।
राही हैं सब एक डगर के सब पर प्यार लुटाता चल।।

कोई नहीं पराया, सारी धरती एक बसेरा है,
इसका खेमा पश्चिम में तो उसका पूरब डेरा है,
श्वेत बरन या श्याम बरन हो सुन्दर या कि असुन्दर हो,
सभी मछरियाँ एक ताल की क्या मेरा क्या तेरा है?

गलियाँ गाँव गुँजाता चल,
पथ-पथ फूल बिछाता चल,
हर दरवाजा रामदुआरा सबको शीश झुकाता चल।
राही हैं सब एक डगर के सब पर प्यार लुटाता चल।।

हृदय हृदय के बीच खाइयाँ, लहू बिछा मैदानों में,
धूम रहे हैं युद्ध सड़क पर, शान्ति छिपी शमशानों में,
जंजीरें कट गई, मगर आजाद नहीं इन्सान अभी
दुनियाँ भर की खुशी कैद है चाँदी जड़े मकानों में,

सोई किरन जगाता चल,
रूठी सुबह मनाता चल,
प्यार नकाबों में न बन्द हो हर घूँघट खिसकाता चल।
राही हैं सब एक डगर के, सब पर प्यार लुटाता चल।।


बसंत की रात {गोपालदास "नीरज"}

आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना!

धूप बिछाए फूल-बिछौना,
बगिय़ा पहने चांदी-सोना,
कलियां फेंके जादू-टोना,
महक उठे सब पात,
हवन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना!

बौराई अंबवा की डाली,
गदराई गेहूं की बाली,
सरसों खड़ी बजाए ताली,
झूम रहे जल-पात,
शयन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना।

खिड़की खोल चंद्रमा झांके,
चुनरी खींच सितारे टांके,
मन करूं तो शोर मचाके,
कोयलिया अनखात,
गहन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना।

नींदिया बैरिन सुधि बिसराई,
सेज निगोड़ी करे ढिठाई,
तान मारे सौत जुन्हाई,
रह-रह प्राण पिरात,
चुभव की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना।

यह पीली चूनर, यह चादर,
यह सुंदर छवि, यह रस-गागर,
जनम-मरण की यह रज-कांवर,
सब भू की सौगा़त,
गगन की बात न करना!
आज बसंत की रात,
गमन की बात न करना।


नारी {गोपालदास "नीरज"}

अर्ध सत्य तुम, अर्ध स्वप्न तुम, अर्ध निराशा-आशा
अर्ध अजित-जित, अर्ध तृप्ति तुम, अर्ध अतृप्ति-पिपासा,
आधी काया आग तुम्हारी, आधी काया पानी,
अर्धांगिनी नारी! तुम जीवन की आधी परिभाषा।
इस पार कभी, उस पार कभी.....

तुम बिछुड़े-मिले हजार बार,
इस पार कभी, उस पार कभी।
तुम कभी अश्रु बनकर आँखों से टूट पड़े,
तुम कभी गीत बनकर साँसों से फूट पड़े,
तुम टूटे-जुड़े हजार बार
इस पार कभी, उस पार कभी।
तम के पथ पर तुम दीप जला धर गए कभी,
किरनों की गलियों में काजल भर गए कभी,
तुम जले-बुझे प्रिय! बार-बार,
इस पार कभी, उस पार कभी।
फूलों की टोली में मुस्काते कभी मिले,
शूलों की बांहों में अकुलाते कभी मिले,
तुम खिले-झरे प्रिय! बार-बार,
इस पार कभी, उस पार कभी।
तुम बनकर स्वप्न थके, सुधि बनकर चले साथ,
धड़कन बन जीवन भर तुम बांधे रहे गात,
तुम रुके-चले प्रिय! बार-बार,
इस पार कभी, उस पार कभी।
तुम पास रहे तन के, तब दूर लगे मन से,
जब पास हुए मन के, तब दूर लगे तन से,
तुम बिछुड़े-मिले हजार बार,
इस पार कभी, उस पार कभी।

आदमी को प्यार दो {गोपालदास "नीरज"}

सूनी-सूनी ज़िंदगी की राह है,
भटकी-भटकी हर नज़र-निगाह है,
राह को सँवार दो,
निगाह को निखार दो,

आदमी हो तुम कि उठा आदमी को प्यार दो,
दुलार दो।
रोते हुए आँसुओं की आरती उतार दो।

तुम हो एक फूल कल जो धूल बनके जाएगा,
आज है हवा में कल ज़मीन पर ही आएगा,
चलते व़क्त बाग़ बहुत रोएगा-रुलाएगा,
ख़ाक के सिवा मगर न कुछ भी हाथ आएगा,

ज़िंदगी की ख़ाक लिए हाथ में,
बुझते-बुझते सपने लिए साथ में,
रुक रहा हो जो उसे बयार दो,
चल रहा हो उसका पथ बुहार दो।
आदमी हो तुम कि उठो आदमी को प्यार दो,
दुलार दो।

ज़िंदगी यह क्या है- बस सुबह का एक नाम है,
पीछे जिसके रात है और आगे जिसके शाम है,
एक ओर छाँह सघन, एक ओर घाम है,
जलना-बुझना, बुझना-जलना सिर्फ़ जिसका काम है,
न कोई रोक-थाम है,

ख़ौफनाक-ग़ारो-बियाबान में,
मरघटों के मुरदा सुनसान में,
बुझ रहा हो जो उसे अंगार दो,
जल रहा हो जो उसे उभार दो,
आदमी हो तुम कि उठो आदमी को प्यार दो,
दुलार दो।

ज़िंदगी की आँखों पर मौत का ख़ुमार है,
और प्राण को किसी पिया का इंतज़ार है,
मन की मनचली कली तो चाहती बहार है,
किंतु तन की डाली को पतझर से प्यार है,
क़रार है,

पतझर के पीले-पीले वेश में,
आँधियों के काले-काले देश में,
खिल रहा हो जो उसे सिंगार दो,
झर रहा हो जो उसे बहार दो,
आदमी हो तुम कि उठो आदमी को प्यार दो,
दुलार दो।

प्राण एक गायक है, दर्द एक तराना है,
जन्म एक तारा है जो मौत को बजाता है,
स्वर ही रे! जीवन है, साँस तो बहाना है,
प्यार की एक गीत है जो बार-बार गाना है,
सबको दुहराना है,

साँस के सिसक रहे सितार पर
आँसुओं के गीले-गीले तार पर,
चुप हो जो उसे ज़रा पुकार दो,
गा रहा हो जो उसे मल्हार दो,
आदमी हो तुम कि उठो आदमी को प्यार दो,
दुलार दो।

एक चाँद के बग़ैर सारी रात स्याह है,
एक फूल के बिना चमन सभी तबाह है,
ज़िंदगी तो ख़ुद ही एक आह है कराह है,
प्यार भी न जो मिले तो जीना फिर गुनाह है,

धूल के पवित्र नेत्र-नीर से,
आदमी के दर्द, दाह, पीर से,
जो घृणा करे उसे बिसार दो,
प्यार करे उस पै दिल निसार दो,
आदमी हो तुम कि उठो आदमी को प्यार दो,
दुलार दो।
रोते हुए आँसुओं की आरती उतार दो॥

अंतिम बूँद {गोपालदास "नीरज"}

अंतिम बूँद बची मधु को अब जर्जर प्यासे घट जीवन में।
मधु की लाली से रहता था जहाँविहँसता सदा सबेरा,
मरघट है वह मदिरालय अब घिरा मौत का सघन अंधेरा,
दूर गए वे पीने वाले जो मिट्टी के जड़ प्याले में-
डुबो दिया करते थे हँसकर भाव हृदय का 'मेरा-तेरा',
रूठा वह साकी भी जिसने लहराया मधु-सिन्धु नयन में।
अंतिम बूँद बची मधु को अब जर्जर प्यासे घट जीवन में।।
अब न गूंजती है कानों में पायल की मादक ध्वनि छम छम,
अब न चला करता है सम्मुख जन्म-मरण सा प्यालों का क्रम,
अब न ढुलकती है अधरों से अधरों पर मदिरा की धारा,
जिसकी गति में बह जाता था, भूत भविष्यत का सब भय, भ्रम,
टूटे वे भुजबंधन भी अब मुक्ति स्वयं बंधती थी जिन में।
जीवन की अंतिम आशा सी एक बूँद जो बाकी केवल,
संभव है वह भी न रहे जब ढुलके घट में काल-हलाहल,
यह भी संभव है कि यही मदिरा की अंतिम बूँद सुनहली-
ज्वाला बन कर खाक बना दे जीवन के विष की कटु हलचल,
क्योंकि आखिरी बूँद छिपाकर अंगारे रखती दामन में
अंतिम बूँद बची मधु की अब जर्जर प्यासे घट जीवन में।
जब तक बाकी एक बूँद है तब तक घट में भी मादकता,
मधु से धुलकर ही तो निखरा करती प्याले की सुन्दरता,
जब तक जीवित आस एक भी तभी तलक साँसों में भी गति,
आकर्षण से हीन कभी क्या जी पाई जग में मानवता?
नींद खुला करती जीवन की आकर्षण की छाँह शरण में।
अंतिम बूँद बची मधु की अब जर्जर प्यासे घट जीवन में।।
आज हृदय में जाग उठी है वह व्याकुल तृष्णा यौवन की,
इच्छा होती है पी डालूं बूँद आखिरी भी जीवन की,
अधरों तक ले जाकर प्याला किन्तु सोच यह रुक जाता हूँ,
इसके बाद चलेगी कैसे गति प्राणों के श्वास-पवन को,
और कौन होगा साथी जो बहलाए मन दिन दुर्दिन में।
अंतिम बूँद बची मधु की अब जर्जर प्यासे घट जीवन में॥
मानव! यह वह बूँद कि जिस पर जीवन का सर्वस्व निछावर,
इसकी मादकता के सम्मुख लज्जित मुग्धा का मधु-केशर,
यह वह सुख की साँस आखिरी जिसके सम्मुख हेय अमरता-
यह वह जीवन ज्योति-किरण जो चीर दिया करती तम का घर,
अस्तु इसे पी जा मुस्कुराकर मुस्काए चिर तृषा मरण में।
अंतिम बूँद बची मधु की अब जर्जर प्यासे घट जीवन में॥
किन्तु जरा रुक ऐसे ही यह बूँद मधुरतम मत पी जाना;
इसमें वह मादकता है जो पीकर जगबनता दीवाना,
इससे इसमें वह जीवन विष की एक बूँद तू और मिला ले,
सीख सके जिससे हँस हँसकर मधु के संग विष भी अपनाना,
मधु विष दोनों ही झरते हैं जीवन के विस्तृत आँगन में।
अंतिम बूँद बची मधु की अब जर्जर प्यासे घट जीवन में॥


अन्वेषण {रामनरेश त्रिपाठी}

मैं ढूँढता तुझे था, जब कुंज और वन में ।
तू खोजता मुझे था, तब दीन के सदन में ।।

तू 'आह' बन किसी की, मुझको पुकारता था ।
मैं था तुझे बुलाता, संगीत में भजन में ।।

मेरे लिए खड़ा था, दुखियों के द्वार पर तू ।
मैं बाट जोहता था, तेरी किसी चमन में ।।

बनकर किसी के आँसू, मेरे लिए बहा तू ।
आँखे लगी थी मेरी, तब मान और धन में ।।

बाजे बजाबजा कर, मैं था तुझे रिझाता ।
तब तू लगा हुआ था, पतितों के संगठन में ।।

मैं था विरक्त तुझसे, जग की अनित्यता पर ।
उत्थान भर रहा था, तब तू किसी पतन में ।।

बेबस गिरे हुओं के, तू बीच में खड़ा था ।
मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहाँ चरन में ।।

तूने दिया अनेकों अवसर न मिल सका मैं ।
तू कर्म में मगन था, मैं व्यस्त था कथन में ।।

तेरा पता सिकंदर को, मैं समझ रहा था ।
पर तू बसा हुआ था, फरहाद कोहकन में ।।

क्रीसस की 'हाय' में था, करता विनोद तू ही ।
तू अंत में हँसा था, महमूद के रुदन में ।।

प्रहलाद जानता था, तेरा सही ठिकाना ।
तू ही मचल रहा था, मंसूर की रटन में ।।

आखिर चमक पड़ा तू गाँधी की हड्डियों में ।
मैं था तुझे समझता, सुहराब पीले तन में ।।

कैसे तुझे मिलूँगा, जब भेद इस कदर है ।
हैरान होके भगवन, आया हूँ मैं सरन में ।।

तू रूप कै किरन में सौंदर्य है सुमन में ।
तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में ।।

तू ज्ञान हिन्दुओं में, ईमान मुस्लिमों में ।
तू प्रेम क्रिश्चियन में, तू सत्य है सुजन में ।।

हे दीनबंधु ऐसी, प्रतिभा प्रदान कर तू ।
देखूँ तुझे दृगों में, मन में तथा वचन में ।।

कठिनाइयों दुखों का, इतिहास ही सुयश है ।
मुझको समर्थ कर तू, बस कष्ट के सहन में ।।

दुख में न हार मानूँ, सुख में तुझे न भूलूँ ।

वह देश कौन सा है {रामनरेश त्रिपाठी}

मन मोहनी प्रकृति की गोद में जो बसा है।
सुख स्वर्ग-सा जहाँ है वह देश कौन-सा है।।

जिसका चरण निरंतर रतनेश धो रहा है।
जिसका मुकुट हिमालय वह देश कौन-सा है।।

नदियाँ जहाँ सुधा की धारा बहा रही हैं।
सींचा हुआ सलोना वह देश कौन-सा है।।

जिसके बड़े रसीले फल कंद नाज मेवे।
सब अंग में सजे हैं वह देश कौन-सा है।।

जिसमें सुगंध वाले सुंदर प्रसून प्यारे।
दिन रात हँस रहे है वह देश कौन-सा है।।

मैदान गिरि वनों में हरियालियाँ लहकती।
आनंदमय जहाँ है वह देश कौन-सा है।।

जिसके अनंत धन से धरती भरी पड़ी है।
संसार का शिरोमणि वह देश कौन-सा है।।


बुधवार, 11 मई 2011

सफलता की कुंजी


१/आदमी को कितनी ज़मीन चाहिए?

रूस में एक बहुत बड़े लेखक हुए हैं, इतने बड़े कि सारी दुनिया उन्हें जानती है। उनका नाम था लियो टॉल्स्टॉय, पर हमारे देश में उन्हें महर्षि टॉल्स्टॉय कहते है। उन्होंने बहुत-सी किताबें लिखी है। इन किताबों में बड़ी अच्छी-अच्छी बातें है। उनकी कहानियों का तो कहना ही क्या! एक-से एक बढ़िया है। उन्हें पढ़ते-पढ़ते जी नहीं भरता।

इन्हीं टॉल्स्टॉय की एक कहानी है-आदमी को कितनी जमीन चाहिए.?इस कहानी में उन्होंने यह नहीं बताया कि हर आदमी को अपनी गुज़र-बसर कें लिए किनती ज़मीन की जरूरत है। उन्होनें तो दूसरी ही बात कहीं है। वह कहते हैं कि आदमी ज्यादा-से-ज्यादा जमीन पाने के लिए कोशिश करता है, उसके लिए हैरान होता है, भाग-दौड़ करता है, पर आखिर में कितनी जमीन उसके काम आती है? कुल छ:फुट, जिसमें वह हमेशा के लिए सो जाता है।

यों कहने को यह कहानी है, पर इसमें दो बातें बड़े पते की कही गयी है। पहली यह कि आदमी की इच्छाऍं, कभी पूरी नही होतीं। जैसे-जैसे आदमी उनका गुलाम बनता जाता है, वे और बढ़ती जाती हैं। दूसरे, आदमी आपाधापी करता है, भटकता है, पर अन्त में उसके साथ कुछ भी नहीं जाता।

आपको शायद मालूम न हो, यह कहानी गांधीजी को इतनी पसन्द आयी थी कि उन्होनें इसका गुजराती में अनुवाद किया। हजारों कापियॉँ छपीं और लोगों के हाथों में पहुँचीं। धरती के लालच में भागते-भागते जब आदमी मरता है तो कहानी पढ़ने वालों की ऑंखे गीली हो आती है। उनका दिल कह उठता है-ऐसा धन किस काम का!

अपनी इस काहानी में टॉल्सटॉय ने जो बात कही है, ठीक वहीं बात हमारे साधु-सन्त, और त्यागी-महात्मा सदा से कहते आये है। उन्होने कहा है कि यह दुनिया एक माया-जाल है। जो इसमें फँसा कि फिर निकल नहीं पाता। लक्ष्मी यानी धन-दौलत को उन्होंने चंचला माना है। वे कहते हैं, पैसा किसी के पास नहीं टिकता। जो आज राजा है, वही कल को भिखारी बन जाता है।

आदमी इस दुनिया में खाली हाथ आता है, खाली हाथ जाता है। किसी ने कहा है न:

आया था यहॉँ सिकन्दर, दुनिया से ले गया क्या?

थे दोनों हाथ खाली, बाहर कफ़न से निकले।

संत कबीर ने यही बात दूसरे ढ़ंग से कही है:

कबीर सो धन संचिये, जो आगे कूँ होइ।

सीस चढ़ाये पोटली, जात न देखा कोई।।

उर्दू के मशहूर कवि नजीर ने जो कहा है,

वह तो बच्चे-बच्चे की जवान पर है:

सब ठाठ पड़ा रह जायेगा,

जब लाद चलेगा बंजारा।

एक मुसलमान सन्त ने तो यहॉँ तक कहा है, ए इंसान, दौलत की ख्वाहिश न कर। सोने में गम का सामान है, उसकी मौजूदगी में मुहुब्बत खुदगर्ज और ठंडी हो जाती है। घमंड ओर दिखावे का बुखार चढ़ जाता है।

आप कहंगे, वाह जी वाह, आपने तो इतनी बातें कह डालीं। पर मैं पूछता हूँ कि बिना धन के किसका काम चलता है? साधु-सन्तों की बात छोड़ दीजिए, लेकिन जिसके घर-बार है, उसे खाने को अन्न चाहिए, पहनने को कपड़े और रहने को मकान चाहिए। और, आप क्या जानते नहीं, जिसके पास पैसा है, उसी को लोग इज्जत करते हैं, गरीब को कोई नहीं पूछता।

आपकी बात में सचाई है, पर एक बात बताइए—“आप रोटी खाते हैं?

जी हॉँ। सभी खाते हैं।

किसलिए?

पेट भरने के लिए।

जानवर खाते हैं?

जी हॉँ।

किसलिए?

पेट भरने के लिए?

ठीक। अब मुझे यह बताइए कि जब आदमी और जानवर दोनों पेट भरने के लिए खाते हैं तो फिर दोनों में क्या अन्तर क्या रहा?

यह भी आपने खूब कही! साहब, आदमी आदमी है, जानवर जानवर।

यह तो मैं भी मानता हूँ, पर मेरा सवाल तो यह है कि उन दोनों में अन्तर क्या है?

अन्तर! अन्तर यह है कि जानवर खाने के लिए जीता है, आदमी जीने के लिए खाता है।

वाह, आपने तो मेरे मन की ही बात कह दी। यही तो मैं कहना चाहता था। जब आदमी जीने के लिए खाता है, तब उसके जीवन को कोई उद्देश्य धन कमाना नहीं हो सकता। धन कमाने का मतलब होता है पेट के लिए जीना; और जो पेट के लिए जीता है, उसका पेट कभी नहीं भरता। आदमी तिजोरी में भरी जगह को नहीं देखता। उसकी निगाह खाली जगह पर रहती है। इसी को निन्यानवे का फेरकहते हैं। स्वामी रामतीर्थ ने एक बड़ी सुन्दर कहानी लिखी है। एक धनी आदमी था। वह ओर उसकी स्त्री, दोनों हर घड़ी पेरशान रहते थे और अक्सर आपस में लड़ते रहते थे। उनका पड़ोसी गरीब था, दिन-भर मजूरी करता था। औरत घर का काम करती थी। रात को दोनों चैन की नींद सोते थे। एक दिन धनी स्त्री ने कहा, इन पड़ोसियों को देखो, कैसे चैन से रहते हैं!आदमी ने कहा, ठीक कहती हो।

अगले दिन उसने किया क्या कि पोटली में निन्यानवे रुपये बॉँधे और उसे गरीब पड़ोसी के घर में डाल दिया। पड़ोसी ने रूपये देखे। उसकी आँखे चमक उठीं। उसी घड़ी लोभ ने उसे धर दबोचा। वह निन्यानवे के सौ और सो के एक सौ एक करने में लग गया। फिर क्या था! उसकी नींद हराम हो गयी। सुख भाग गया। मेहनत की खरी कमाई का आनन्द सपना हो गया।

हममें से ज्य़ादातर लोग ऐसे ही चक्कर में पड़े है। हम यह भूल जाते है कि इस चक्कर में कहीं सुख है तो वह नकली है। सुख से अधिक दु:ख है। असल में पैसा अपने-आपमें बुरा नहीं है। बुरा है उसका मोह। बुरा है उसका संग्रह। रोज़ी-पाने का अधिकार सबकों हैं, पर पैसा जोड़कर रखने का अधिकार किसी को भी नहीं है।

आचार्य विनोवा ने बड़ी सुन्दरता से यह बात कही है, धन को धारण करने पर वह निधन (मृत्यु) का कारण बन जाता है। इसलिए धन को द्रव्यबनना चाहिए। जब धन बहने लगता है, तभी वह द्रव्य बनता है। द्रव्य बनने पर धन धान्य बन जाता हे।

गांधीजी के शब्दों में, सच्ची दौलत सोना-चॉँदी नहीं, बल्कि स्वयं मनुष्य ही है। धन की खोज धरती के भीतर नहीं, मनुष्य के हृदय में ही करनी है।

जिस समाज और देश के पास इंसान की दौलत है, उसका मुकाबला कौन कर सकता है!

२/पारसमणि

रवीन्द्र ठाकुर की एक बड़ी ही सीख देने वाली रचना है। एक आदमी को रात में सपने में भगवान् दिखाई दिये। उन्होंने उससे कहा कि जाओ, आमुक जगह पर एक साधु रहता है, उससे मिलो और उसके पास हीरा है, उसे ले लो। उस आदमी को लगा, भगवान की बात सही हो सकी है। सो अगले दिन उसने सबेरे उठकर उनके बताये स्थान पर साधु की खोज की। संयोग से साधु मिल गये। उसने उन्हें सपने में भगवान् के दर्शन देने और उनसे मिलकर हीरा लेने की बात बतायी। साधु ने कहा-हॉँ ठीक है। जाओ, वहॉँ नदी-किनारे पेड़ के नीचे हीरा पड़ा है, उसे ले लो।आदमी वहॉँ गया और उसके अचरज का ठिकाना न रहा, जब उसने देखा कि पेड़ के नीचे सचमुच बड़ा कीमती हीरा पड़ा है। उसने हीरे को उठा लिया। खुशी से उसका दिल नाचने लगा।

हीरे को नदी में फेंककर वह साधु के पस चल दिया।

अचानक उस आदमी के मन में एक विचार पैदा हुआ। साधु ने इसे यों ही क्यों डाल रखा है? जरूर उसके पास इस हीरे से भी मूल्यवान् कोई चीज़ है, जिसने ऐसी अनमोल चीज़ को मिट्टी के मोल बना दिया हैं यह हीरा तो आज है, कल नहीं। मुझे वही चीज़ प्राप्त करनी

चाहिए, जो हीरे को भी ठीकरा कर देती है। इतना सोच उसने हीरे को नदी में फेंक दिया और साधू के पास चला गया।

यह घटना कवि के दिमाग की कोरी कल्पना नहीं है, इसमें बहुत बड़ी सच्चाई है। जिसके पास धन से भी कीमती कोई दूसरी चीज़ होती है, उसे धन फीका लगता है। किसी बुद्धिमान ने ठीक ही लिखा है, जिसके पास केवल धन है, उससे बढ़कर ग़रीब और कोई नहीं है।ऊँचे दर्जे के एक आदमी ने कितनी बढ़िया बात कहीं है, मुझसे धनी कोई नहीं है, क्योंकि मैं सिवा भगवान् के और किसी का दास नहीं हूँ।

यह जानते हुए भी कि धन-दौलत की आदमी को देखते कोई कीमत नहीं है, आज सभी समाजों में, सभी देखों में, पैसे का बोलबाला है। अमरीका के पास बहुत धन है, पर वह और धन चाहता हैं। रूस के पास उतना पैसा नहीं है; लेकिन वह चाहता है कि उसके देशवासी खूब खुशहाल हों। यही हाल दूसरे बहुत-से देशों का है। वे सब दिन-रात पैसे की होड़ में दौड़ रहे है। जानते हैं, इसका नतीजा क्या है? इसका नतीजा यह है कि अमरीका के बहुत-से लोग रोज़ रात को नींद की दवा लेकर सोते है। उनके जीवन में सहजता नहीं है। और जिसके जीवन में उतावली या उलझन है, उसे नींद कहॉँ से आयेगी!

दुनिया आज हैरान इसीलिए बनी हुई है कि उसका मुँह दौलत की ओर है। यहॉँ दौलत से मतलब सिर्फ़ रूपये-पैसे से ही नहीं है, सुख-सुविधा की बाहरी चीजों से भी है। ऐसी चीजों के पीछे पड़ने से आदमी को लगता है कि उसे कुछ मिल रहा है, पर उसकी हालत वैसी ही होती है, जैसी की रेगिस्तान में भ्रम से दीख पड़ने वाले पानी को देखकर हिरन की होती है। वह उसकी ओर दौड़ता है, पर पानी हो तो मिले! बेचारा भटक-भटककर प्यासा ही प्राण दे देता है।

हम कह चुके हैं, संसार में जितने साधु, सन्त, महात्मा और बड़े लोग हुए है, उन्होनें धन से जो कीमती चीजें हैं, उसे पाने की कोशिश की है। उन्होंने अपनी आत्मा को ऊँचा उठाया है, अपनी बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न किया है और अपने सामने ऊँचा उद्देश्य रखा है।

सोचने की बात है अगर पैसे में और पैसे के वैभव में ही सब कुछ होता तो भगवान् बुद्ध क्यों घर-बार छोड़ते और क्यों भगवान् महावीर राजपाट पर लात मारते! यह तो ढाई हजार बरस पहले की बात हुई। आज के जमाने में ही हमने गांधीजी को देखां उन्होंने सारे आडम्बर छोड़ दिये। सादगी का जीवन बनाया और बिताया। वह समझ गये थे कि जो आन्नद सादगी की जिन्दगी में है, वह पैसे की जिन्दगी में नहीं है। यदि वह चाहते तो अच्छी-खासी कमाई कर सकते थे, लेकिन उस हालत में वह गांधी न होते। उन्होंने पैसे का मोह त्यागा और बड़े-बड़े काम किये। दुनिया में उनका नाम अमर हो गया। आपको याद होगा, प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन ने लिखा था—“आगे आने वाली पीढ़ियॉँ मुश्किल से विश्वास कर पायेंगी कि इस धरती पर हाड़-मांस का बना गांधी-जैसा व्यक्ति कभी चलता-फिरता था।

असल में उन्होंने सोना नहीं जुटाया। उन्होनें वह पारसमणि प्राप्त की, जिसको छूकर सब कुछ सोना बन जाता है। जिसके पास ऐसी मणि हो, उसके पास किस चीज़ की कमी हो सकती है!

लेकिन यह पारसमणि यों ही नहीं मिल जाती। इसके लिए बड़ी साधना की जरूरत होती है। सोना तपने पर कंचन बनता है, ठीक यही बात आदमी के साथ भी है।

हमारे धर्म-ग्रन्थों में कहा गया है कि इस दुनिया में सबसे दुलर्भ आदमी का शरीर है। सारे प्राणियों में आदमी को ऊँचा माना गया है और वह इसलिए कि आदमी के पास बुद्धि है, विवेक है। संसार में जितनी ईजादें हुई हैं, सब बुद्धि के बल पर हुई है। आप सबेरे दिल्ली में नाश्ता करके चलते है और दोपहर का खाना मास्कों में खा लेते है। हजारों मील की यात्रा घंटों में हो जाती है। यह सब आदमी की बुद्धि से ही सम्भव हुआ है।

जिसके पास इतनी बड़ी चीज हो, वह धन के या दुनियादारी की चीजों के पीछे भटके, यह उचित नहीं है। बुद्धि का उपयोग उसे बराबर आगे बढ़ने के लिए करना चाहिए। जिन्होंने ऐसा किया है, उन्होंने मानवता की बड़ी सेवा की है। उनका नाम अमर हो गया है।

३/खोटा धन, खरा इंसान

धन की खोट आदमी को तब मालूम होती है, जब वह खरा बनने लगता है। खरा बनने का अर्थ यह नहीं है कि इंसान घरबार छोड़ दे, जंगल में चला जाय और भगवान के चरणों में लौ लगाकर बैठा रहे। बहुत-से लोग ऐसा भी करते हैं, पर यह रास्ता सबका रास्ता नहीं है। ज्यादातर लोग तो दुनिया में रहते है और उनका वास्ता अपने घर के लोगों से ही नहीं, दूसरों के साथ भी पड़ता है। खरा आदमी वह है, जो अपनी बुराइयों को दूर करता है और नीति का जीवन बिताते हुए अपने समाज के और देश के काम आता है। ऐसा आदमी सबकों प्रेम करता है। और सबके सुख-दु:ख में काम आता है। हज़रत मुहम्मद जहॉँ भी दु:ख होता था, वहॉँ फौरन पहुँच जाते थे। भगवान् बुद्ध ने न जाने कितनों की सेवा की। गांधीजी परचुरे शास्त्री के घावों को अपने हाथों से साफ़ करते थे। ये मामूली घाव नहीं थे, कुष्ठ के थे; उनमें से मवाद निकलता था, लेकिन गांधीजी बड़े प्रेम से शास्त्रीजी की सेवा करते थे। ऐसी मिसालें एक-दो, नहीं, सैकड़ों-हजारों है। जो मानव-जाति की सेवा करता है, उससे बड़ा धनी कोई नहीं हो सकता।

अबू बिन अदम की कहानी आपने सुनी होगी। एक दिन रात को वह अपने कमरे में सो रहा था। अचानक उसकी आँख खुली। देखा कि सामने एक देवदूत बेठा कुछ लिख रहा हे। अदम ने पूछा, आप क्या लिख रहे हैं?

उसने जवाब दिया, मैं उन लोगों के नाम लिख रहा हूँ, जो भगवान् के प्यारे हैं?

अदम थोड़ी देर चुप रहां फिर बोला, भैया, मेरा नाम उन लोगों में लिख लेना, जो इंसान की सेवा करते है।

देवदूत चला गया और अगले दिन जब वह लौटा तो उसके हाथ में उन आदमियों की सूची थी, जिन्हें भगवान् का आशीर्बाद मिला था। अबू बिन अदम का नाम सूची में सबसे ऊपर था। साफ है कि जो दूसरों की सेवा करता है, वह भगवान् की ही सेवा करता है।

सेवा करने का अपना आनन्द होता है। एक बार सेवा करने की आदत पड़ जाती है तो फिर छूटती नहीं। जो बिना किसी स्वार्थ दूसरो के दूसरों की सेवा करता है, उसका मुक़ाबला कोई नहीं कर सकता। सूरज बिना बदले की इच्छा रखे सबकों धूप और रोशनी देता है, चॉँद ठंडक पहुँचाता है, धरती अन्न देती है, पानी जीवन देता है, हवा प्राण देती है। इनकी बराबरी कौन कर सकता है!

विनोबा के पास क्या रखा था? न धन, न कोई बाहरी सत्ता; पर सेवा के जोर पर उन्होंने करोड़ों लोगों के दिलों में अपना घर बना लिया। उन्हें चालीस लाख एकड़ से उपर जमीन मिली। सैकड़ों गॉँव ग्रामदान में मिले ओर जीवनदानियों की उनकी पास फौज़ इकट्ठी हो गयी। यह सब कैसे हुआ? सेवा के बल पर। जब विनोबा ने भूदान-यक्ष आरम्भ किया था, लोगों ने जाने क्या-क्या बातें कहीं थीं, पर विनोबा ने उनकी कोई परवा नहीं की। उनका भगवान पर विश्वास था; उनके दिल में कोई स्वार्थ न था। ऐसे आदमी को अपने काम में सफलता मिलनी ही थी। वह हज़ारों मील पैदल चले। जाड़ों में चले, गर्मियों में चले, वर्षा में चले, धूप में चले। लोगों ने कहा, बाबा, चलते-चलते बहुत दिन हो गये। थोड़ा आराम कर लो।

जानते हैं, विनोबा ने क्या जबाबा दिया? उन्होंने कहा, सूरज कभी रूकता नहीं, चाँद कभी टिकता नहीं, नदी कभी थमती नहीं; मेरी भी यात्रा अखण्ड गति से चलेगी।

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विनोबा की पग-यात्रा कभी रूकी नहीं।

सेवा के आनन्द में लीन विनोबा चलते रहे, चलते रहे। देश का कोई भी कोना उन्होंने नहीं छोड़ा। प्रेम की निर्मल धारा उन्होंने घर-घर पहुँचा दी। एक दिन उनकी टोली में हम कई जने बैठे थे। शाम का समय था। उस दिन विनोबा को बहुत-सी जमीन मिली थी। जब उन्हें दिनभर का हिसाब बताया गया तो वह मुस्कराने लगे। बोले, आज इतनी जमीन हाथ में आयी है, लेकिन देखों, कहीं हाथ में मिट्टी चिपकी तो नहीं!

हम सब हँस पड़े, पर विनोबा ने बड़े मर्म की बात कहीं थी। जिसके हाथों में लाखों एकड़ भूमि आयी हो, उसके हाथ में एक कण भी चिपका न रहे, इससे बड़ा त्याग और क्या हो सकता है।

शरीर के दुबले-पतले विनोबा ने हम सबको दिखा दिया कि इंसान दुनिया में किसी का भी मूल्य नहीं है।

एक सूफ़ी सन्त ने कहा है, किसी का दिल उसकी खिदमत करके अपने हाथों में ले, यही सबसे बड़ी इज्ज़त है। हज़ारों काबों से एक दिल बढ़कर है।

गांधीजी ने तो सेवा-धर्म को, अहिंसा और सत्य दोनों की बुनियाद माना। उन्होंने कहा, सेवा-धर्म का पालन किये बिना मैं अहिंसा-धर्म का पालन नहीं कर सकता; और अहिंसा धर्म का पालन किये बिना मैं सत्य की खोज नहीं कर सकता।

सेवा की बड़ी महिमा है। धन से आप कुछ लोगों को अपनी ओर खींच सकते हैं, सेना से कुछ और ज्यादा पर विजय पा सकते हैं, लेकिन सारी दुनिया को तो सेवक ही जीत सकता है।

४/प्रेम की निर्मल धारा

सेवा के लिए पहली शर्त प्रेम हैं, अर्थात जिसके दिल में प्रेम हैं, वही सेवा कर सकता है। टॉल्स्टॉय ने कहा है, प्रेम स्वर्ग का रास्ता है।बुद्ध का कथन है, प्रेम इंसानियत का एक फूल है और है और प्रेम उसका मधु।रामकृष्ण परंमहंस ने कहा है, प्रेम संसार की ज्योति है।विक्टर ह्यूगों का कहना है, जीवन एक फल है और प्रेम उसका मधु।रामकृष्ण परंमहंस ने कहा है, प्रेम अमरता का समुदंर है।कबीर का कथन है, जिस घर में प्रेम नहीं, उसे मरघट समझबिना प्राण के सॉँस लेने वाली लुहार की धौंकनी।

अलगअलग शब्दों में सभी महापुरूषों ने प्रेम का बखान किया है। वास्तव में प्रम मानव-जाति की बुनियाद है। प्रेम ऐसा चुम्बक है, जो सबको अपनी ओर खींच लेता है। जिसके हृदय में प्रेम है, उसके लिए सब अपने हैं। भारतीय संस्कृति में तो सारी पृथ्वी को एक कटुम्ब माना गया है—‘वसुधैव कुटुम्बकम्।

जो सबकों प्रेम करता है, उससे बड़ा दौलतमंद कोई नहीं हो सकता। वह दूसरे के दिल में ऊँची भावना पैदा कर देता है। आप जानते हैं, आदमी को भूमि से कितना मोह होता है। कौरवों ने कहा था कि हम पाण्डवों को सुई की नोक के बराबर भी ज़मीन नहीं देगे; लेकिन विनोबा के प्रेम ने लाखों एकड़-भूमि इकट्ठी करा दी। उन्होंने लोगों से यह नहीं कहा कि मुझे जमींन दो। नहीं दोगे तो कानून से या ज़ोर-जबरजस्ती से छीनवा दूगॉँ । जिसका हृदय प्रेम से सराबोर हो, वह ऐसी भाषा कैसे बोल सकता था! उन्होंने कहा, मेरे प्यारे भाइयों, मैं तुम्हारे घर पर आया हूँ। तुम्हारे पॉच बेटे हैं, छठा होता तो उसका भी लालन-पालन करते न! मुझे अपना छठा बेटा मान लो और मेरा हिस्सा मुझे दे दो।

विनोबा का यह प्रेम ही था, जिसने लोगों के दिलों को मोम बना दिया। किसी-किसी ने तो अपनी सारी-की-सारी जमीन उनके चरणों में रख दी। प्रेम के इतने बड़े चमत्कार की घटनाएँ हम किताबों में पढ़ते है, पर आज के युग में विनोबा ने उसे सामने करके दिखा दिया।

जिसका हृदय निर्मल है, उसी में ऐसे महान् प्रेम का निवास रहता है। वैसे तो हम रोज़ प्रेम करते है; अपने बच्चों के, अपने सम्बन्धियों के, अपने मित्रों के प्रति प्रेम का व्यवहार करते है, लेकिन बारीकी से देखा तो वह असली प्रेम नहीं है। हमारे प्रेम में कर्त्तव्य की थोड़ी-बहुत भावना रहती है; पर साथ ही यह स्वार्थ भी कि हमारे बच्चे बड़े होकर बुढ़ापे का सहारा बनेंगें।

सगे-सम्बन्धी मुसीबत में काम आवेंगे। अगर हमें यह भरोसा हो जाय कि हमारा काम दूसरों के बिना भी चल जायेगा तो सच मानिए, हमारे प्रेम का बर्तन बहुत-कुछ खाली हो जायेगा। ऐसा प्रेम हमारे जीवन में छोटी-मोटी सुविधाएँ पैदा कर सकता है, पर दुनिया को बाँध नहीं सकता।

असली प्रेम तो वह है, जिसमें किसी प्रकार की बदले की भावना न हो। इतना ही नही, उसमें विरोधी के लिए भी जगह हो। गर्मी से व्याकुल होकर हम जाने कितनी बार सूरज को कोसते हैं, पर सूरज कभी हम पर नाराजी दिखाता है? हम धरती को रोज़ पैरों से दबाते हुए चलते हैं, पर वह कभी गुस्सा होती है? ज़रा गरम हवा आती है तो हम कहते हैं-‘’मार डाला कमबख्त़ ने।’’ हमारी गाली का हवा कभी बुरा मानती है? यदि गुस्सा होकर सूरज धूप और रोशनी न दे, धरती अन्न न दे, हवा प्राण न दे, तो सोचिए, हम लोगों की क्या हालत होगी!

संत फ्रांसिस ,जो प्राणि-मात्र को प्रेम करता था।

पर दुनिया उन्हं कितना ही भला-बुरा कहे, वे अपने धर्म को नहीं छोड़ सकते। उनके प्रेम में तनिक भी अन्तर नहीं पड़ सकता, क्योंकि उनके प्रेम के पीछे किसी प्रकार का स्वार्थ नहीं है। वे प्रेम इसलिए देते हैं, कि बिना दिये रह नहीं सकते। यही है वास्तविक प्रेम।

ऐसे प्रेम का वरदान बिरलों को ही मिलता है, पर जिन्हें मिलता है, वे अपने को कृतार्थ बना जाते हैं, दुनिया को धन्य कर जाते हैं।

५/खरी कमाई

आप कहेंगे, तुम सेवा की और प्रेम की बातें करते हो। हम भी उन्हें जानतें है। पर जिन्हें हर घड़ी पेट के लाले पड़े रहते हो, वे कहाँ से सेवा और कहाँ से प्रेम करें? उन्हे तो सबसे पहले रोटी चाहिए।

आपकी बात सच है। भूखे को रोटी चाहिए और रोटी उसे हर हालत मे मिलनी चाहिए, लेकिन उतने से आदमी को सन्तोंष होता कहाँ है! पहली बात तो यह कि आदमी मेहनत नही करता, काम से बचता है; दूसरी बात यह कि वह खाने के लिए कम, बचाने के लिए अधिक कमाता है। गांधीजी ने लिखा है, "हर मेहनती आदमी को रोजी पाने का अधिकार है, मगर धन इकटठा करने का अधिकार किसी को नहीं है। सच कहें तो धन का इकटठा करना चोरी है। जो भूख से अधिक धन लेता है,वह जान मे या अनजान में, दूसरों की रोजी छीनता है।"

आज दुनिया मे यही हो रहा है। एक ओर इतनी कमाई है कि आदमी खाकर हज़म नही कर सकता; दूसरी ओर इतना अभाव है कि आदमी पेट भरकर खा भी नही सकता। जहाँ ढेर होता है, वहाँ गडढा अपने आप हो जाता है। एक बुढिया की बड़ी मजेदार कहानी है। एक बड़ी ग़रीब बुढ़िया थी। बेचारी तंगी के मारे हैरान रहती थी। एक दिन किसी ने उससे कहा, माई पैसे से पैसा आता है।" वह बेचारी कहीं से एक पैसा जुटा लाई ओर पैसे के ढेर के पास खड़ी होकर लगी उसे पैसा दिखाने। थोड़ी देर मे उसका वह पैसा भी ढेर मे चला गया। वह रोने लगी। तब किसी ने उसे समझाया, "तू जानती नही, पैसा ढेर मे जाता है।"

आज यही बात देखने मे आ रही है। कुछ लोग कहते है कि अमीरी और गरीबी किस ज़माने मे नही रही। पुराने समय से लेकर अब तक यह भेद चला आ रहा है। सब बराबर कैसे हो सकते है?

इस तर्क मे बड़ी भूल है। ईश्वर ने सारे इंसानो को एक-सा बनाया है। आदमी आदमी मे कोई अन्तर नही रक्खा। अन्तर तो स्वयं आदमी ने पैदा किया है। एक आदमी दिमाग़ से काम करता है, दूसरा शरीर से। पहले को हम बड़ा मानते है और उसे अधिक पैसा देते है, दूसरे को किसान-मजूर कहकर छोटा मानते है। और उसकी कम कीमत लगाते है। लेकिन यह न्याय नही है। जो दिमाग काम करता है, उसे भी खाने को अन्न चाहिए और अन्न बिना शरीर की मेहनत के नही मिल सकता। शरीर से काम करे वाले को दिमागी काम करने वाले का सहारा चाहिए। इस तरह दोनों एक-दूसरे के पूरक है। एक के बिना दूसरे का काम नही चल सकता।

पर आज का समाज उन्हें एक-दूसरे का पूरक या साथी मानता कहाँ है? बुद्धि से काम करने वाला शरीर की मेहनत को छोटा और ओछा मानता है और उससे बचता है। वह मानता है कि मजूर से मेहनत लेने का उसे अधिकार है। वह यह नही मानता कि

मजूर के प्रति उसका कोई कर्त्तव्य भी है। फल यह कि ईश्वर की दी हुई समानता को आदमी ने न सिर्फ नष्ट कर दिया है, बल्कि आदमी के बीच ऊँच-नीच की, छोटे-बड़े की, अमीरी-गरीबी की चौड़ी खाई भी खोद दी।

मेहनत की खरी कमाई।

गांधीजी इसी खाई को पाटना चाहते थे। उन्होने रामराज्य की जो बात कही थी, उसके पीछे यही भावना थी। वह चाहते थे कि एक भी आदमी बिना अन्न के न रहे, सबको पहनने को कपड़े और रहने को घर मिले, सबको पढाई-लिखाई की सुविधा मिले और हारी-बिमारी के लिए दवा-दारू की व्यवस्था हो; यानी सबको विकास की समान सुविधाएँ हों। उनका तो यहां तक कहना था कि जब तक एक भी आंख मे आंसू है, तब तक लड़ाई की मंजिल पूरी नही सकती।

यह खाई एकदम दूर हो जाए, तब तो कहना ही क्या! लेकिन आज के जमाने में वह बिल्कुल दूर न हो सके तो कम तो हो ही जानी चाहिए। हमारे समाज की बुनियाद नये मूल्यों पर रक्खी जानी चाहिए। धन को अब तक बहुत प्रतिष्ठा मिल चुकी है, उसकी जगह अब सच्चे इंसान को इज्ज़त मिलनी चाहिए। बौद्धिक और शारीरिक भ्रम के बीच जो दीवार खड़ी हो गयी है,वह टूटनी चाहिए। भ्रमका शोषण बंद होना चाहिए। हमारे सारे काम इंसान को, ग़रीबो के उस प्रतिनिधी का , जिसे गांधीजी ने दरिद्रनारायण कहा था, सामने रखकर होने चाहिए। भारत इसलिए भारत बना रहा कि उसने इंसानियत को ऊँची जगह दी। मानवता को वही मान देने का अब समय आ गया है।

कहने का मतलब यह कि हर आदमी अपनी क्षमता के अनुसार काम करे और जरूरत के अनुसार पाये; कोई किसी का शोषण ने करे, न अपना होने दे; सब अपने-अपने कर्त्तव्य को जाने और मानें कि अधिकार तो कर्त्तव्य मे से अपने-आप आते है; सब सादगी से रहे ओर सबके बीच प्रेम का अटूट नाता हों।जब समाज की बुनियाद इन पक्के आधरों पर रखी जायेगी। तो हमारे सारे दुखऔरक्लेश अभाव और भेद, अपने-आप दूर हो जायेगें। तब आदमी धन और सत्ता, प्रभुत्व और वैभव, किसी के नीचे नही रहेगा, बल्कि उन सबके ऊपर रहेगा। मानव को इतना मान मिलेगा तो प्रभु ईसा के शब्दो मे धरती पर स्वर्ग उतरते देर नही लगेगी।

६/ हारिए न हिम्मत

कहिए साहब, क्या मामला है? आप इतने उदास क्यों है। आपकी आंखों मे आंसू क्यों छलछला रहे है। आपके चेहरे पर हवाइयां क्यों उड़ रही है?

ओहो, आप मुसीबतों मे जूझते-बूझते थक गये है। घर मे बीमारी है, बच्चो की पढाई का बोझ है, लड़की का जल्दी ही ब्याह होना है, बीसियों खर्च सिर पर है, पर पैसे की तंगी है। रात-दिन परेशानियों से आपका हौसला पस्त हो गया है, आपकी हिम्मत जवाब दे गयी है। चारों ओर अंधकार दिखाई देता है। कोई रास्ता ही नही सूझता।

भाई, आपके साथ मेरी सहानूभूति है और मै चाहता हूं कि आपकी परेशानियां जल्दी-से-जल्दी दूर हो। पर मेरी एक बात का जवाब दीजिए। क्या आपके इतनी चिन्ता करने, इतना हैरान होने और निराश होकर हाथ-पर-हाथ रखकर बैठ जाने से आपकी कोई समस्या हल हुई है? हल होने में मदद मिली है? बीमारी को कोई फायदा पहुंचा हैं? बच्चों की पढाई का बोझ हल्का हुआ है? लड़की शादी के लिए रास्ता निकला है?

वाह, आपने भी अच्छा सवाल किया! अजी, मुसीबत आती है तो किसे हैरानी नही होती? चोट लगती है तो किसके दर्द नही होता? जब चारों तरफ के रास्तें बंद हो जाते है तो किसका दिल नही टूटता? इंसान ही तो है! बहुत ज्यादा बोझ आखिर कब तक उठा सकता हैं।

आपने इतनी बातें कह डाली, पर मेरे सवाल का ज़वाब मुझे नही मिला। मैने पूछा था कि क्या फ्रिक करने और हिम्मत हारने से आपकी मुश्किलें कम हुई? कठिनाइयों मे से रास्तें निकला?

जी नही, मेरी समस्याएँ ज्यो-की-त्यों बनी है, बल्कि बढ़ी ही है।

तब आप बताइए कि आपने चिन्ता करके, हिम्मत हार करके , क्या पाया? किसी ने ठीक ही कहा है, चिन्ता चिता के समान है। वह आदमी को खा जाती है और जो चिता के वश मे हाकर हौसला छोड़ बैठते है, उनकी नाव डूब जाती है। रूकावटें किसके रास्ते मे नही आती? लेकिन उनसे पार वे ही पाते है, जो उनके आगे सिर नही झुकाते, उनका मुक़ाबला करते हैं,

शुतुरमुर्ग का नाम आपने सुना होगा। जब कोई खतरा आता है तो वह डर के मारे अपना मुँह धरती मे गाड़ लेता है। जानते है, इसका नतीजा क्या होता है? बड़ी आसनी से मौत उसे अपने पंजे मे जकड़ लेती हैं।

शुतुरमुर्ग जानवरर होता है और माना जाता है कि बहुत-से जानवरों मे अक़ल की कमी होती है। पर आदमी तो अक़लमन्द कहलाता है। ऐसी लाचारी उसके लिए शोभा नही देती। मर्द तो वह है, जिसकी हिम्मत के सामने तूफान भी थरथरा उठे।

कोलम्बस की कहानी आपने पढ़ी होगी। वह एक छोटा-सा जहाज लेकर नयी दुनिया की खोज करने के लिए महासागर मे निकल पड़ा था। अचानक तूफान आ गया। तीन दिन तक उसका जहाज लहरों से टक्कर लेता रहा। इतने मे उसका एक मस्तूल ख़राब हो गया। उन दिनों जहाज इंजन से नही चलते थे। ऊँची बल्लियँ। लगाकर उन पर पाल तान देते थे। पालों में हवा भर जाती थी और उससे जहाज चलते थे।

मस्तूल का खराब होना मामूली बात नही थी। उसके मानी थी जहाज का खतरा, आदमियों की जान को ख़तरा। उसके संगी-साथी घबरा गये। उन्होने कहा, "अब हम आगे नही जायेगें। देश लौट जायेंगें। कोलम्बस बड़ा साहसी था। उसने मॉँझियों का हौसला बढ़ाया। बोला, "जरा-सी बात पर हाथ-पैर फुला दोगे तो उससे क्या होगा? तूफान हमारी परीक्षा ले रहा है। हम हार नही मानेगें।"

मॉँझियों की खोई हिम्मत लौट आयी। पर ज़रा आगे बढ़े कि उनकी कुतुबुनुमा बिगड़ गयी। कुतुबुनुमा दिशा बताने वाली घड़ी होती है। उसके ख़राब होने से यह पता लगना कठिन हो गया कि वे किधर जा रहे है। पर कोलम्बस की रग-रग मे हिम्मत भरी थी। मॉँझियों को

समझाकर उसने कहा, "मै आपसे कहता हूँ, कितनी भी मुश्किले आयें, पर जीत हमारी जरुर होगी।"

और उसकी बात सच निकली। वे आगे बढते गये। उनके हर्ष का ठिकाना न रहा, जब उन्हें अकस्मात् पानी पर झाड़ियों की लकड़ियॉँ तैरती दिखाई दी और आकाश मे उड़ते हुए पक्षी नज़र आये। उन्हे नयी दुनिया मिल गयी, जिसकी तलाश मे वे निकले थे।

अब आप बताइए, अगर तूफान के आने, मस्तूल के खराब होने और कुतुबनुमा के बिगड़ जाने पर कोलम्बस ने हार मान ली होती तो क्या होता? दुनिया एक बहुत बड़ी खोज से वंचित रह जाती।

कार्लाइल दुनिया का बहुत बड़ा लेखक हुआ हैं। उसने फ्रांस की क्रान्ति का इतिहास लिखने मे बड़ी मेहनत की। उसका पहला भाग छपने जानेवाला था कि एक मित्र उसे पढ़ने ले गये। मित्र की गलती से वह घर के फर्श पर गिर पड़ा और नौकरानी ने उसे रद्दी काग़ज़ समझकर आग जलाने के काम मे ले लियां। मित्र को मालूम हुआ तो बड़े दुखी हुए, पर कार्लाइल के माथे पर शिकन तक न आयीं। महीनों तक उसने सैकड़ो किताबों, हस्तलिखित पत्रों ओर घटनाओं के हालों को फिर से पढा और उस ग्रन्थ्र को दोबारा लिखकर ही माना।

किसी ने ठीक ही कहा है, "जीवन की धारा जब किसी गीत की तरह बहती हो तो उस समय पुलकित होना काफी आसान है; लेकिन असली अदमी तो वह है, जो सबकुछ उल्टा होने पर भी मुस्करा सके।"

विनोबाजी ने बड़े पते की बात कही-"चिन्तन करो, चिन्ता नही", यानी सामने कोई कठिनाई आवे तो उसमें से निकलने का रास्ता सोचो, हताश मत होओ।

ईसाइयों के धर्म-ग्रन्थ बाइबिल मे प्रभु कहते है, "जो मुसीबतों पर विजय पाता है, उसके लिए मै अपने तख्त पर जगह रखता हूँ।"

७/चरैवेति-चरैवेति

निराशा से हाथ-पर-हाथ रखकर बैठना हार को बुलावा देना है। गतिहीनता मौत का नाम है। कहावत है-गतिशील पत्थर पर काई नही लगती। काम मे आने वाले लोहे पर जंग नही लगती। यह बात सोलहों आने सही है। रूका पानी सड़ जाता है। मेहनत से बचने वाला आदमी निकम्मा हो जाता है।

वेदों मे एक बड़ा सुन्दर गीत है-चरैवेति-चरैवेति। इसका मतलब होता हैचलते रहो, चलते रहो। गीत मे कहा गया है, "जो आदमी चलता रहता है, उसकी जाघों मे फूल फूलते है, उसकी आत्मा मे फल लगते है।बैठे हुए आदमी का सौभग्य पडा रहता है ओर उठकर चलने वाले का सौभाग्य चल पड़ता है। इसलिए चलते रहो, चलते रहो।"

गीतकार आगे कहता है, "चलता हुआ आदमी ही मधु पाता है, मीठे फल चखता है। सूरज की मेहनत को देखों, जो हमेशा चलता रहता है, कभी आलस नही करता। इसलिए चलते रहो, चलते रहों।

आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन है आलस। वह हर घडी दॉँव देखता हैं। आदमी का मन जहॉँ ढीला पड़ा कि वह आकर उसको दबोच लेता है। आलसी आदमी हमेशा हैरान रहता है। उसके सामने काम करने को पड़े रहते है और वह इस उलझन मे रहता है कि उन्हे कैसे निबटायें। काम पूरे नहीं होते तो वह तरह-तरह के बहाने खोजता है। उसमें बहुत-से दुर्गुण पैदा हो जाते है। इसलिए बुद्धिमान आदमी आलस को कभी पास नही फटकने देते।

गांधीजी आगा खॉँ महल से छूटकर आये थे। उन्हें कस्तूरबा ट्रस्ट का विधान बनाया था। उन्होने एक साथी से कहा कि सवेरे प्रार्थना के समय वह उन्हें याद दिला दें। अगले दिन जब सब प्रार्थना के लिए इकटठे हुए तो उन सज्जन ने गांधीजी को याद दिलानी चाही, लेकिन वह कुछ कहे कि उससे पहले ही गांधीजी ने विधान निकालकर सामने रख दिया। बोले, "तुमसे मैने याद दिलाने को कहा था, पर बाद मे मुझे लगा कि भगवान दिन का काम देते है तो उसे करने की शक्ति भी देते है। यदि हम उस काम को उसी दिन नही कर डालते तो भगवान की दी हुई शक्ति का पूरा उपयोग नही करते। यही सोचकर मै रात को बैठ गया और विधान को पूरा करके सोया।"

गांधीजी ने अकेले इतना काम किया, उसका रहस्य यही था कि उन्होने आलस को हमेशा दूर रखा। जिस समय जो काम करना था, उसी समय उसे पूरा किया।

प्रकृति हर घड़ी अपने काम करती रहती है। जरा सोचिए, सूरज आलस करके थोड़ी देर को सो जाय तो क्या होगा? दुनिया मे हाहाकार मच जायेगा। हवा एक पल को रूक जाय तो इस धरती पर कोई भी जीता बचेगा? समय पर वर्षा न हो तो सूखा पड़ जायेगा ओर लोग भूखो मर जायेंगें।

उद्योग सफलता की कुंजी है। मिस्त्र के पिरामिडों का देखकर हम आज भी अचरज करते है। चीन की दीवार को देखकर दॉतो तले उँगली दबाते है। तेनसिंग के एवरेस्ट की चोटी पर चढने की बात याद करके रोमांच हो आता है। ये काम कैसे हुए? बराबर मेहनत करने से। यदि अदमी परिश्रम से बचता तो दुनिया का पता कैसे चलता? समुद्र कैसे पार होते? पहाड़ो की चोटियों पर लोग कैसे पहुँचते? आदमी पृथ्वी की परिक्रमा कैसे कर पाता? रेल, मोटर, हवाई जहाज कहाँ से चलते? दुनिया के हर क्षेत्र मे आज जो चमत्कार दिखाई देते है, वे कहाँ से होते?

अंग्रेजी मे कहावत है-"रोम एक दिन मे नही बन गया था।" हिन्दी मे भी हम कहा करते है-"हथेली पर सरसो नही जमती।" बडे-बडे कामों के पूरा होने मे समय लगता ही है। अग्रेजी के विश्वकोश को पूरा करने मे वैब्सटर को छब्बीस साल लगे। टॉल्स्टॉय ने अपना सुप्रसिद्ध उपन्यास युद्ध और शान्ति सात बरस मे पूरा किया। इतिहासकार गिबन को अपने रोम साम्राज्य के पतन की रचना मे बीस वर्ष लगे। जार्ज स्टीफेंसन रेलगाड़ी का सुधार करने मे पन्द्रह बरस जुटा रहा। शरीर की रक्त-संचालन क्रिया का पता लगाने मे हारवे के आठ वर्ष खर्च हुए। बड़े कामो के लिए बड़ी साधना की जरूरत होती है। जितना गुड़ डालोगे, उतना ही मीठा होगा, यह कहावत बिल्कुल सही है।

८/तल्लीनता

बहुत-से कामों मे हमें सफलता नहीं मिलती तो इसकी वजह यह है कि हम उन कामों को पूरे मन से नही करते। काम उठाया, थोड़ा-सा किया, मन मे दुविधा पैदा हो गयी-यदि यह काम पार न पड़ा तो? नही, इसे यों करें तो ठीक रहेगा। उस तरह सोच लो, फिर उसे करना शुरू करो। एक बार शुरू कर दिया तो उसे अपनी पूरी शक्ति से करों। जिसकी निगाह इधर-उधर भटकती रहती है, वह अपने लक्ष्य को नही देख सकता। आपने देखा होगा, तॉँगे मे घोड़े की ऑंखो के दोनो ओर पटटे बॉँध देते है। क्यो? इसलिए कि उसे सामने का ही रास्ता दिखाई दे। वह दायें-बायें न देखे।

स्टीफन ज्विग दुनिया के बहुत बड़े लेखक हुए है। वे एक बार एक बड़े कलाकार से मिलने गये। कलाकार उन्हे अपने स्टूडियों मे ले गया और मूर्तियों दिखाने लगा। दिखाते-दिखाते एक मूर्ति के सामने आया। बोला, यह मेरी नयी रचना है।" इतना कहकर उसने उस पर से गीला कपड़ा हटाया। फिर मूर्ति को ध्यान से देखा। उसकी निगाह उस पर जमी रही। जैसे अपने से ही कुछ कह रहा हो, वह बड़बड़ाया-"इसके कंधे का यह हिस्सा थोड़ा भारी हो गया है।" उसने ठीक किया। फिर कुछ कदम दूर जाकर उसे देखा, फिर कुछ ठीक किया। इस तरह एक घंटा निकल गया। ज्विग चुपचाप खड़े-खड़े देखते रहे। जब मूर्ति से सन्तोंष हो गया तो कलाकार ने कपड़ा उठाया, धीरे-से उसे मूर्ति पर लपेट दिया और वहां से चल दिया। दरवाजें पर पहुचकर उसकी निगाह पीछे गयी तो देखता क्या कि कोई पीछे-पीछे आ रहा है। अरे, यह अजनबी कौन है? उसने सोचां घड़ी भर वह उसकी ओर ताकता रहा। अचानक उसे याद आया कि यह तो वह मित्र है, जिसे वह स्टूडियो दिखाने साथ लाया था। वह लजा गया। बोला, "मेरे प्यारे दोस्त, मुझे क्षमा करना। मै आपकों एकदम भूल ही गया था।"

ज्विग ने लिखा है, "उस दिन मुझे मालूम हुआ कि मेरी रचनाओं मे क्या कमी थी। शक्तिशाली रचना तब तैयार होती है, जब आदमी सारी शक्तियां बटोरकर एक ही जगह पर केन्द्रित कर देता है।"

अर्जुन की कहानी बहुतों से सुनी होगी। पाण्डवों के तीर चलाने की परिक्षा लेने के लिए

एक दिन गुरू द्रोणावचार्य ने सब भाईयों का इकटठा किया। बोले, "देखो वह सामने पेड़ पर सफेद रंग की एक नकली चिड़िया है। उसकी आंखों मे लाल रंग के दो रत्न लगे है। तुम्हें उसकी दाहीनी आंख पर निशाना लगाना है।" सब भाई धनुष-बाण लेकर तैयार हो गये। द्रोण ने एक-एक से पूछा, "तुम्हें वहॉँ क्या-क्या दिखाई देता है?" किसी ने कुछ बताया, किसी ने कुछ बताया। जब अर्जुनकी बारी आयी तो उसने कहा, "गुरूदेव मुझे तो उस चिड़िया की दायीं ऑंख के सिवा ओर कुछ दिखाई नहीं देता।" इतनी थी उसकी एकाग्रता। तभी तो वह बाण चलने मे बेजोड़ था।

एकाग्रता से आदमी का अपने काम को अच्छी तरह करने का मौका मिलता है। साथ ही उसका संकल्प भी पक्का बनता है। "एकहि साधै सब सधै।" एक चीज अच्छी तरह से हो गयी तो बहुत-सी चीजें आप पूरी हो जाती है। दस साल तक विनोबाजी सारे देश मे पैदल घूमते रहे। वह प्यार से उन लोगो से ज़मीन लेते, जिनके पास थी और प्यार से उन्हे दे देते थे, जिनके पास नही थी। विनोबाजी के पेट मे अल्सर था। वह कभी-कभी बड़ा दर्द करता था। उन्हे बड़ी हैरानी होती थी, पर उनकी यात्रा नही रूकती थी। एक बार जब दर्द बढ़ गया तो डॉक्टरों ने उनकी जॉच की। अच्छी तरह से देखभाल करके उन्होने विनोबाजी से कहा, "आपकी हालत गम्भीर है। आप आठ महीने आराम करें।"

विनोबाजी ने मुस्कराकर कहा, "हालत अच्छी नही है तो आपने चार महीने क्यों छोड़ दियें? अरे, आपको कहना चहिए था कि बारहों महीने आराम करों।"

डॉक्टरों ने कहा, "आप पैदल चलना छोड़ दें।"

विनोबाजी ने उसी लहज़े मे जवाब दिया, "मेरे पेट मे दर्द है, पैरो मे नही।"

विनोबाजी ने एक दिन को भी अपनी पदयात्रा बंद नही की। लोगों ने जब बहुत कहा तो उन्होने जवाब दे दिया, "सूर्य कभी नही रूकता, नदी कभी नही ठहरती, उसी अखण्ड गति से मेरी यात्रा चलेगी।" उनकी इस एकाग्रता का ही नतीजा है कि बिना किसी दबाव के, प्यार की पुकार पर, उन्हें कोई पैतालीस लाख एकड़ भूमि मिल गयी।

सुकरात बहुत बड़े दार्शनिक थे। एक दिन उनकी पत्नी ने उनसे बाज़ार से साग लाने को कहा। वह चले, पर मन दर्शन की किसी गुत्थी मे उल्झा था। सीढ़ियॉँ उतरने लगे कि मन की समस्या ने उनकी गति रोक दी। वह सीढिय़ो पर ही खड़े थे। वह बड़ी झल्लाई, कुंछ उल्टी-सीधी बाते कही। सुकरात का ध्यान टुटा। बोले, "मै अभी साग लाता हूं।" दो-तीन सीढियॉ तेजी से उतरे, पर मन फिर उलझ गया। पैर पिुर रूक गये। बहुत देर हो गयी। पत्नी चौका साफ करके गंदे पानी की बाल्टी उठाकर फेंकने चली तो देखती क्या है कि वह सीढ़ियों से नीचे भी नहीं उतरे हैं। उसने बाल्टी का पानी उनके ऊपर डाल दिया। उन्होंने हंसकर बस इतना ही कहा, ‘‘देवीजी इसमें अचरज की कोई बात नहीं है। बिजली की कड़क के बाद पानी तो आना ही था।’’

चित्त् की एकग्रता से बहुत-सी घरेलू उलझनें हुईं, लेकिन उसी की बदौलत आज सुकरात को दुनिया याद करती है।

किसी महापुरुष ने ठीक ही कहा है, ‘‘प्रतिभा के मानी होते हैं नब्बे फ़ीसदी बहाना और दस फ़ीसदी प्रेरणा। दुनिया के काम मेहनत और एकाग्रता से ही पूरे होते हैं। वैज्ञानिको का कहना है कि एक एकड़ भूमि की घास में इतनी शक्ति भरी होती है कि उसके द्वारा संसार की सारी मोटरें और चक्कियां चेलाई जा सकती हैं। ज़रुरत बस उस शक्ति को इअकटठा करने की हैं। भाप को इंजन, पिस्टन रॉड पर केन्द्रित करने की है।

एमर्सन का कथन है-‘‘अगर जिंदगी में कोई बुद्धिमानी की बात है तो वह एकाग्रता है और अगर कोई खराब बात है तो अपनी शक्तियों को बिखेर देना।’’

दुनिया में लोगों में शक्ति की कमी नहीं है, लेकिन वे अपनी उस शक्ति को केन्द्रित करना नहीं जानते। बंधी हुई भाप बड़े-से-बड़े इंजनों को खींच ले जाती है, लेकिन अगर वह बिखर जाय तो बेकार चली जाती है।

९/काम मे प्रसन्नता

किसी बड़े आदमी ने कहा है कि जिस काम मे प्रसन्नता, आन्नद न हो, वह बेकार है। हम रोज़ देखते है कि कुछ लोग थोड़ा-सा काम करके थक जाते है, जबकि कुछ लोग ढेर-का-ढेर काम करके भी फूल की तरह खिले रहते है। इसका कारण क्या है। इसका कारण यही है कि जिनको काम मे रस नही आता, उनके लिए काम ,भारी बोझ-सा होता है और भला भारी बोझ लेकर आदमी कितनी दूर चल सकता है? जिनको काम में रस मिलता है, वे उसमें आनन्द लेते हैं, उसे सहज भाव से करते है, इसलिए काम का भार उन पर नही पड़ता।

काम में यह आन्नद तब मिलता है, जबकि हम काम के साथ आत्मीयता का नाता जोड़ लेते है। मॉँ अपने बच्चे के लिए रात-रात भर जागती है, फिर भी उसे वह भारी नही पड़ता। दूसरे के लिए थोड़ा-सा भी जगने मे उसे हैरानी हो जाती है।

यह भी जरूरी है कि हम किसी भी काम को छोटा न समझे। हमारे यहॉँ बुद्धि से काम करने वाले शरीर की मेहनत से होने वाले कामों को छोटा समझते है। नतीजा यह कि जब उन्हें शरीर से काम करना पड़ता है तो उन्हें आनन्द नही आता। कोई भी काम छोटा नहीं है, न कोई काम बड़ा है। सबका अपना-अपना स्थान है। कहावत है न कि , "जहॉँ काम अवे सुई, कहॉँ करै तलवार।" यानी जहॉँ सूई की आवश्यकता है, वहॉँ तलवार क्या करेगी? रसोई मे काम करने वाला रसोइया, दफ्तर मे काम करने वाला बाबू, कक्षा मे पढ़ाने वाला अध्यापक, प्रयोगशाला मे प्रयोग करने वाला वैज्ञानिक, इमारतों के नक्शे बनाने वाला इंजीनियर, खेतों मे काम करने वाले किसान और मज़दूर आदि-आदि सबके काम अपना-अपना महत्व रखते है। उनमें न कोई हेय है, न कोइ श्रेष्ठ है। सब आदमी के लिए जरूरी है ओर एक-दूसरे के पूरक है।

जब काम के साथ ऐसी भावना पैदा हो जाती है तो उसमें से आनन्द का सोता फूट पड़ता है। काम बहुत ही प्यारा लगने लगता है। शेक्सपियर ने लिखा है, "जिस परिश्रम से हमें आनन्द मिलता है, वह हमारी व्याधियों के लिए अमृत के समान होता है।"

काम मे आदमी को रस मिलने से उसका उत्साह बढ़ता है। उत्साह बढ़ने से आदमी के हाथ दूना काम करते है। उत्साह वह ज्योति है, जिसके आगे निराशा का अंधकार एक क्षण नही ठहरता। उत्साह से भरा व्यक्ति कभी खाली नही बैठ सकता। उसे नित नये-नये काम सूझते रहते है। बड़ी उम्र मे भी जवान बना रहता है।

जीवन में सबके सामने बड़े-बड़े अवसर आते रहते है। जो उन्हे पहचानकर पकड़ लेते है, वे महान काम कर डालते है। किसी चित्रशाला मे एक चित्र था, जिसमें चेहरा बालों से ढँका था और पैर मे पंख लगे थे। किसी ने पूछा, "यह किसकी तस्वीर है?"

गांधी जी के लिए कभी कोई काम छोटा न था।

कलाकार ने कहा, "अवसर की।"

"इसका मुँह क्यों छिपा हुआ है?"

"इसलिए कि जब यह लोगों के सामने आता है तो वे इसे पहचान नही पाते।"

"इसके पैर में पंख क्यो लगें है?"

"इसलिए कि यह बड़ी तेजी से भाग जाता है और एक बार गया कि उसे कोई नहीं पकड़ सकता।"

उत्साही आदमी अवसर को कभी हाथ से नही जाने देता। उसकी ऑंखे सदा खुली रहती है और उसकी बुद्धि हमेशा जाग्रत रहती है।

बाइबिल मे कहा है-"काम पूजा है।" जिस तरह लोग पूजा मे ऊँची निगाह और ऊँची भावना रखते है, वैसी ही निगाह और भावना हमें हर काम मे रखनी चाहिए। जिसे काम मे रस आता है, वही काम की महिमा को जानता है, वही काम को कर्त्तव्य मानकर करता है। गांधीजी को इतने बड़े-बडे काम रहते थे, लेकिन फिर भी वही अपने आश्रम के छोटे-से-छोटे काम मे भी मदद करते थे। रसोई मे साग काटते थे, पखाना साफ करते थे, बीमारों की देख-भाल करते थे। काम उनके लिए सचमुच की पूजा थी।o

१०/अपने पर भरोसा

आदमी कितनी भी मेहनत कर ले, अगर उसे अपने पर भरोसा नही है तो वह जीवन मे सफल नही हो सकता। बाहरी साधन इंसान के लिए जरूरी होते है, कुछ हद तक मदद भी करते है, लेकिन बिना आत्मविश्वास के उसकी गाड़ी नही बढ़ सकती। अपने पैरो की ताक़त के बिना आदमी दूर तक नही जा सकता।

अपने पर भरोसे के मयने होते है-अपनी शक्तियों पर भरोसा। किसी भी काम को करने वाले आदमी मे अगर यह विश्वास है कि उसे जरूर पूरा कर सकेगा तो वह पूरा होकर ही रहेगा। जन्म से सारे गुण को पैदा कर सकता है। आत्म-विश्वास भी काम से आता है। गांधीजी बचपन मे डरपोक थे, लेकिन आगे चलकर ऐसे निडर बने कि दुनिया की कोई भी ताकत उन्हें नही डरा सकी।

आत्म-विश्वास सौ रोगो की एक दवा है। आत्म विश्वास है तो आपको काम के लिए नहीं भटकना पड़ेगा, भयंकर बीमारियॉँ नही पडेंगी, चिन्ताऍ आपका खून नहीं चूसेंगी ओर दुनिया की असफलताओं की वेदना आपको नही उठानी पड़ेगी। आत्म-विश्वास वह शक्ति है, जो असम्भव को भी सम्भव करके दिखा देती है।

आत्म-विश्वास दृढ़ इच्छा-शक्ति सेउत्पन्न होता है। इच्छा-शक्ति वैसे हरकिसी मे होती है; किन्तु बहुत से लोगों मे वह सोती पडी रहती है। वे जानते ही नही कि उनके अन्दर शक्ति है। जो उसे पहचान लेते है, उनमें यह विश्वस पैदा हो जाता है कि वे जो कुछ करेगें , अच्छा ही होगा। ऐसे आदमी हौसले से काम करते जाते है ओर सफलता हर घड़ी उनके दरवाजें पर खड़ी रहती है।

एक राजा पर उसके दुश्मन ने हमला किया। राजा ने उसका मुकाबला किया, लेकिन वह हार गया। अपने राज्य से भागकर वह एक गुफा मे जा छिपा। राज्य को वापस पाने की उसे कोई आशा न रही। गुफा मे बैठकर उसे बीते दिनों की याद सताने लगी। अकस्मात उसकी निगाह सामने की दीवार पर गयी। देखता क्या है कि एक कीड़ा बार-बार ऊपर चढ़ने की

कोशिश कर रहा है। चढ़ता है, गिर पड़ता है। इस तरह वह छ: बार चढ़ा ओर छ: बार गिरा, लेकिन उसने अपना प्रयास नही छोड़ा। राजा बड़ी उत्सुकता से उसे देखता रहा। सातवी बार उसकी कोशिश सफल हुई। वह ऊपर पहुंच गया। राजा सोचने लगा-इस छोटे-से कीडे ने हार नही मानी और ऊपर पहुँचकर ही रहा। आखिर मै तो आदमी हूं, कोशिश करूँ तो कोई वजह नही कि मेरी जीत न हो। यह सोचकर वह बाहर निकला और हिम्मत के साथ अपनी बिखरी सेना को इकटठा करके उसने फिर अपने राज्य को जीतने की कोशिश की। उसे अब भरोसा हो गया था कि उसे अवश्य सफलता मिलेगी और उसकी बात सही निकली।

राजा ने देखा,कीड़े ने हार नहीं मानी।

पं. जवाहरलाल नेहरू ने ठीक ही लिखा है, "हमारी कामयाबी इस बात मे नही है कि हम कभी गिरें ही नही। हमारी कामयाबी इसमें है कि गिरते ही हम हर बार उठकर खड़े हो जायें।"

कुछ लोग आत्म-विश्वास को घमण्ड मानते हैं। यह गलत है। दोनो मे जमीन आसमान का अन्तर है। आत्म-विश्वास आदमी का गुण है, जो उसे काम रकने का हौसला देता है। घमण्ड दुर्गुण है। वह आदमी को गिराता है।उससे आदमी के सारे गुणों पर पर्दा पड़ जाता है ओर समाज मे सब लोग उसे तिरस्कार की निगाह से देखते है। घमण्ड आदमी का बहुत बड़ा दुश्मन है।

११/सफलता की कुंजी

हमारे धर्म-ग्रन्थ मे एक बड़ा सुन्दर मंत्र इन शब्दों मे मिलता है-"उठो, जागों और जब तक ध्येय की प्राप्ति न हो, प्रयत्न करते रहों।" जीवन मे सफलता की यही कुंजी है। बिना सक्रियता के कुछ नही हो सकता। हाथ पर हाथ रखे बैठे रहे तो क्या मिलेगा? दुनिया उसी को प्यार करती है, उसी को मान देती है, जो मेहनत करता है ओर खरी कमाई करके खाता है। आदमी का काम प्यारा होता है चाम नही।

कुछ लोग बड़ी-बड़ी चीजों के चक्कर मे छोटी-छोटी चीजों की ओर ध्यान नही देते। वे भूल जाते है कि जो छोटी चीजों को नही सॅभाल सकता, वह बड़ी चीजों के योग्य नही बन सकता।

एक बार गांधीजी की एक छोटी-सी पैसिल इधर-उधर हो गयी। उसकी तलाश मे उन्होने दो घटें खर्च किये और जब वह मिल गयी, तब उन्हे चैन पड़ा। वह जानते थे कि छोटी चीजों के प्रति लापरवाही हुई कि फिर बड़ी चीजों के लिए भी आदमी मे वह दुर्गुण आ जाता है।

हमारी सफलता इस बात मे है कि हम सावधान रहकर, जो भी काम हमारे हाथ मे हो, उसे अच्छी तरह पूरा करें। हिमालय की चोटी पर च़ढ़ने के अवसर कम ही आते है, लेकिन हाथ के काम को कुशलता से करने का मौका तो हर घड़ी सामने रहता है।

रूसों संसार का एक महापुरूष हो गया है।उसने लिखा, "जो मनुष्य अपने कर्त्तव्य को अच्छी तरह से करने की शिक्षा पा चुका है, वह मनुष्य से सम्बन्ध रखने वाले सभी कामों को भली-भॉती करेगा। मुझे इसकी चिन्ता नही कि मेरे शिष्य सेवा, धर्म या न्यायलय के लिए बनाए गए है। समाज से सम्बन्ध रखने वाले किसी काम के पहले प्रकृति ने हमें मानव-जीवन से सम्बन्ध रखने वाले काम करने के लिए बनाया है। यही मै अपने शिष्य को सिखाऊँगा। जब उसे यह शिक्षा मिल चुकेगी, तब वह न सिपाही होगा, न पादरी होगा और न वकील ही। वह पहले मनुष्य होगा, फिर और कुछ।"

कुछ लोग जीवन की सफलता पैसे ऑंकते है। जिसने अधिक कमाई कर ली, उसके लिए माना जाता है कि वह जिन्दगी मे सफल रहा। पर धन सफलता की असली कसौटी नही है। धन साधन है, जीवन का साध्य नही हो सकता। यदि पैसा ही सबकुछ होता तो बुद्ध, महावीर, गांधीजी आदि महापुरूष क्यों गरीबी का जीवन अपनातें? बुद्ध और महावीर तो राजा के बेटे थे, राज्य के अधिकारी थे, लेकिन उन्होने राज-पाट के वैभव से मुँह मोड़कर उस रास्ते को अपनाया, जिससे ढाई हज़ार वर्ष बाद आज भी वे जीवित है और जब तक मानव-जाति है, आगे भी जीवित रहेगें। गांधीजी को कौन-सी कमी थी? लेकिन उन्होने सादगी का जीवन अपनाया। आज सारी दुनिया उन्हे प्यार करती है। उनका मान करती है।

आदमी को निराशा तभी होती है, जब वह आशा रखता है। जो काम वह करता है, उसके फल मे उसकी आसक्ति रहती है। गीता बताती है-"काम करों, पर फल की इच्छा मत रक्खों।" मेहनत कभी अकारथ नही जाती। फलों के पेड़ों पर फल आते ही है। लेकिन फलों पर हमारी इतनी निगाह रहती है कि पेड लगाने के आनन्द को हम अनुभव नही करते। अच्छी तरह से काम करने का अपना निराला ही उल्लास होता है।

कुछ लोग कहते है, यह भी कोई जिन्दगी है कि हर घड़ी काम करते रहों। बहुत दिन जीने के लिए आराम बड़ा जरूरी है। ऐसा कहने मे एक बुनियादी दोष है। हर घड़ी काम करने का मतलब यह नही है कि आदमी कभी आरम ही न करे। उसका मतलब है, आदमी कर्मठ रहे, आलस न करें। सच बात यह है कि निष्क्रिय जीवन से बढ़कर दूसरा अभिशाप नही है। जो लोग क्रियाशील रहते है, वे काम करने का सन्तोष पाते है और अपनी प्रसन्नता से धरती का बोझ हल्का करते है। इसके विपरीत जो काम से बचते है,वे स्वयं तो परेशान होते ही है, समाज मे भी बडा दूषित वायुमण्डल पैदा करते है। कर्ममय जीवन दूसरो पर अच्छा असर डालता है, आलसी दूसरे को आलसी बनाता है।

बचपन मे अंग्रेजी की एक बड़ी सुन्दर कविता पढ़ी थी। कवि कहता है, "उठो, दिन बीता जा रहा है और तुम सपने लेते हुए पड़े हुए हो! दूसरे लोगो ने अपने कवच धारण कर लिए हैऔर रणभूमि मे चले गये है।। सेना की पंक्ति मे एक खाली जगह है, जो तुम्हारी राह देख रही है। हर आदमी का अपना कार्य करना होता है।"

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, उसके कर्त्तव्य बढ़ते जाते है। वह जितनी खूबी से उनका पालन करता है, उतना ही वह अच्छा नागरिक बनता है और समाज को सुखी बनाता है।

हर आदमी के लिए ऊँचाई पर स्थान है, लेकिन वहॉँ पहँचता वही है, जिसके अन्तर मे आत्म-विश्वास होता है, हाथ-पैरों मे ताकत होती है, निगाह मे ऊँचाई होती है ओर हृदय में सबके लिए प्रेम और सहानुभूति का सागर उमड़ता रहता है।

ऐसा आदमी जानता है कि उसके ऊपर सदा निर्मल आकाश है। अगर कभी बादल घिर भी आते है तो वे अधिक समय नही टिकते है। अपने लक्ष्य पर आँख रखकर मज़बूती से बढ़े चलना इंसान का सबसे बड़ा कर्त्तव्य है।